चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 1
दिन घंटे भर से ज्यादे चढ़ चुका है। महाराज सुरेन्द्रसिंह सुनहरी चौकी पर बैठे दातुन कर रहे हैं और जीतसिंह, तेजसिंह, इंद्रजीतसिंह, आनंदसिंह, देवीसिंह, भूतनाथ और राजा गोपालसिंह उनके सामने की तरफ बैठे हुए इधर-उधर की बातें कर रहे हैं। रात महाराज की तबीयत कुछ खराब थी, इसलिये आज स्नान-संध्या में देर हो गई है।
सुरेन्द्र - (गोपालसिंह से) गोपाल, इतना तो हम जरूर कहेंगे कि गद्दी पर बैठने के बाद तुमने कोई बुद्धिमानी का काम नहीं किया बल्कि हर एक मामले में तुमसे भूल ही होती गई!
गोपाल - निःसंदेह ऐसा ही है और उस लापरवाही का नतीजा भी मुझे वैसा ही भोगना पड़ा।
वीरेन्द्र - धोखा खाये बिना कोई होशियार नहीं होता। कैद से छूटने के बाद तुमने बहुत-से अनूठे काम भी किये हें। हां यह तो बताओ कि दारोगा और जैपाल के लिये तुमने क्या सजा तजवीज की है।
गोपाल - इस बारे में दिन-रात सोचा ही करता हूं मगर कोई सजा ऐसी नहीं सूझती जो उन लोगों के लायक हो और जिससे मेरा गुस्सा शांत हो।
सुरेन्द्र - (मुस्कराकर) मैं तो समझता हूं कि यह काम भूतनाथ के हवाले किया जाय, यही उन शैतानों के लिए कोई मजेदार सजा तजवीज करेगा। (भूतनाथ की तरफ देख के) क्यों जी, तुम कुछ बता सकते हो?
भूत - (हाथ जोड़ के) उनके योग्य क्या सजा है इसका बताना तो बड़ा ही कठिन है, मगर एक छोटी-सी सजा मैं जरूर बता सकता हूं।
गोपाल - वह क्या?
भूत - पहले तो उन्हें कच्चा पारा खिलाना चाहिए जिसकी गरमी से उन्हें सख्त तकलीफ हो और तमाम बदन फूट जाय, जब जख्म खूब मजेदार हो जायं तो नित्य लाल मिर्च और नमक का लेप चढ़ाया जाय। जब तक वे दोनों जीते रहें तब तक ऐसा ही होता रहे।
सुरेन्द्र - सजा हलकी तो नहीं है, मगर किसी की आत्मा...।
गोपाल - (बात काटकर) खैर उन कम्बख्तों के लिए आप कुछ न सोचिये, उन्हें मैं जमानिया ले जाऊंगा और उसी जगह उनकी मरम्मत करूंगा।
वीरेन्द्र - इन सब रंज देने वाली बातों का ज्रिक्र जाने दो, यह बताओ कि अगर हम लोग जमानिया के तिलिस्म की सैर किया चाहें तो कैसे कर सकते हैं?
गोपाल - यह तो मैं आप ही निश्चय कर चुका हूं कि आप लोगों को वहां की सैर जरूर कराऊंगा।
इंद्रजीत - (गोपाल से) हां खूब याद आया, वहां के बारे में मुझे भी दो-एक बातों का शक बना हुआ है।
गोपाल - वह क्या?
इंद्र - एक तो यह बताइये कि तिलिस्म के अंदर जिस मकान में पहले-पहल आनंदसिंह फंसे थे, उस मकान में सिंहासन पर बैठी हुई लाडिली की मूरत कहां से आई1 और उस आईने (शीशे) वाले मकान में जिसमें कमलिनी, लाडिली तथा हमारे ऐयारों की-सी मूरतों ने हमें धोखा दिया, क्या था जब हम दोनों उसके अंदर गये तो उन मूरतों को देखा जो नालियों पर चला करती थीं2 मगर ताज्जुब है कि...।
गोपाल - (बात काटकर) वह सब कार्रवाई मेरी थी। एक तौर पर मैं आप लोगों को कुछ-कुछ तमाशा भी दिखाता जाता था। वे सब मूरतें बहुत पुराने जमाने की बनी हुई हैं मगर मैंने उन पर ताजा रंग-रोगन चढ़ाकर कमलिनी, लाडिली वगैरह की सूरतें बना दी थीं।
इंद्र - ठीक है, मेरा भी यही खयाल था। अच्छा एक बात और बताइये।
गोपाल - पूछिये।
इंद्र - जिस तिलिस्मी मकान में हम लोग हंसते-हंसते कूद पड़े थे उसमें कमलिनी के कई सिपाही भी जा फंसे थे और...।
गोपाल - जी हां, ईश्वर की कृपा से वे लोग कैदखाने में जीते-जागते पाये गये और इस समय जमानिया में मौजूद हैं। उन्हीं में के एक आदमी को दारोगा ने गठरी बांधकर रोहतासगढ़ के किले में छोड़ा था जब मैं कृष्णाजिन्न बनकर पहले-पहल वहां गया था।3
इंद्र - बहुत अच्छा हुआ, उन बेचारों की तरफ से मुझे बहुत ही खुटका था।
वीरेन्द्र - (गोपालसिंह से) आज दलीपशाह की जुबानी जो कुछ उसका किस्सा सुनने में आया उससे हमें बड़ा ही आश्चर्य हुआ। यद्यपि उसका किस्सा अभी तक समाप्त नहीं हुआ और समाप्त होने तक शायद और भी बहुत-सी बातें मालूम हों, परतु इस बात का ठीक-ठीक जवाब
1. देखिए नौवां भाग, दूसरा बयान।
2. सोलहवां भाग, छठवां बयान।
3. बारहवां भाग, सातवां बयान
तो तुम्हारे सिवाय दूसरा शायद ही कोई नहीं दे सकता कि तुम्हें कैद करने में मायारानी ने कौन-सी ऐसी कार्रवाई की कि किसी को पता न लगा और सभी लोग धोखे में पड़ गये, यहां तक कि तुम्हारी समझ में भी कुछ न आया और तुम चारपाई पर से उठाकर कैदखाने में डाल दिये गये।
गोपाल - इसका ठीक-ठीक जवाब तो मैं नहीं दे सकता। कई बातों का पता मुझे भी नहीं लगा क्योंकि मैं ज्यादा देर तक बीमारी की अवस्था में पड़ा नहीं रहा, बहुत जल्द बेहोश कर दिया गया। मैं क्योंकर जान सकता था कि कम्बख्त मायारानी दवा के बदले मुझे जहर पिला रही है, मगर मुझको विश्वास है कि दलीपशाह को इसका हाल बहुत ज्यादे मालूम हुआ होगा।
जीत - खैर आज के दरबार में और भी जो कुछ है मालूम हो जायगा।
कुछ देर तक इसी तरह की बातें होती रहीं। जब महाराज उठ गये तब सब कोई अपने ठिकाने चले गये और कारिंदे लोग दरबार की तैयारी करने लगे।
भोजन इत्यादि से छुट्टी पाने के बाद दोपहर होते-होते महाराज दरबार में पधारे। आज का दरबार भी कल की तरह रौनकदार था और आदमियों की गिनती बनिस्बत कल के आज बहुत ज्यादे थी।
महाराज की आज्ञानुसार दलीपशाह ने इस तरह अपना किस्सा बयान करना शुरू किया –
मैं बयान कर चुका हूं कि मैंने अपना घोड़ा गिरिजाकुमार को देकर दारोगा का पीछा करने के लिए कहा, अस्तु जब वह दारोगा के पीछे चला गया तब हम दोनों में सलाह होने लगी कि अब क्या करना चाहिए। अंत में यह निश्चय हुआ कि इस समय जमानिया न जाना चाहिए, बल्कि घर लौट चलना चाहिए।
उसी समय इंद्रदेव के साथी लोग भी वहां आ पहुंचे। उनमें से एक का घोड़ा मैंने ले लिया और फिर हम लोग इंद्रदेव के मकान की तरफ रवाना हुए। मकान पर पहुंचकर इंद्रदेव ने अपने कई जासूसों और ऐयारों को हर एक बात का पता लगाने के लिए जमानिया की तरफ रवाना किया। मैं भी अपने घर जाने को तैयार हुआ मगर इंद्रदेव ने मुझे रोक लिया।
यद्यपि मैं कह चुका हूं कि अपने किस्से में भूतनाथ का हाल बयान न करूंगा तथापि मौका पड़ने पर कहीं-कहीं लाचारी से उसका जिक्र करना ही पड़ेगा, अस्तु इस जगह यह कह देना जरूरी जान पड़ता है कि इंद्रदेव के मकान ही पर मुझे इस बात की खबर लगी कि भूतनाथ की स्त्री बहुत बीमार है। मेरे एक शागिर्द ने आकर यह संदेशा दिया और साथ ही इसके यह भी कहा कि आपकी स्त्री उसे देखने के लिए जाने की आज्ञा मांगती है।
भूतनाथ की स्त्री शांता बड़ी नेक और स्वभाव की बहुत अच्छी है। मैं भी उसे बहिन की तरह मानता था इसलिए उसकी बीमारी का हाल सुनकर मुझे तरद्दुद हुआ और मैंने अपनी स्त्री को उसके पास जाने की आज्ञा दे दी तथा उसकी हिफाजत का पूरा-पूरा इंतजाम भी कर दिया। इसके कई दिन बाद खबर लगी कि मेरी स्त्री शांता को लेकर अपने घर आ गई।
आठ-दस दिन बीत जाने पर भी न तो जमानिया से कुछ खबर आई न गिरिजाकुमार ही लौटा। हां रियासत की तरफ से एक चिट्ठी न्यौते की जरूर आई थी जिसके जवाब में इंद्रदेव ने लिख दिया कि गोपालसिंह से और मुझसे दोस्ती थी सो वह तो चल बसे, अब उनकी क्रिया मैं अपनी आंखों से देखना पसंद नहीं करता।
मेरी इच्छा तो हुई कि गिरिजाकुमार का पता लगाने के लिए मैं खुद जाऊं मगर इंद्रदेव ने कहा कि नहीं दो-चार दिन और राह देख लो, कहीं ऐसा न हो कि तुम उसकी खोज में जाओ और वह यहां आ जाय। अस्तु मैंने भी ऐसा ही किया।
बारहवें दिन गिरिजाकुमार हम लोगों के पास आ पहुंचा। उसके साथ अर्जुनसिंह भी थे जो हम लोगों की मंडली में एक अच्छे ऐयार गिने जाते थे, मगर भूतनाथ से और इनसे खूब ही चखाचखी चली आती थी (महाराज और जीतसिंह की तरफ देखकर) आपने सुना ही होगा कि इन्होंने एक दिन भूतनाथ को धोखा देकर कुएं में ढकेल दिया था और उसके बटुए में से कई चीजें निकाल ली थीं।
जीत - हां मालूम है, मगर इस बात का पता नहीं लगा कि अर्जुन ने भूतनाथ के बटुए में से क्या निकाला था।
इतना कहकर जीतसिंह ने भूतनाथ की तरफ देखा।
भूत - (महाराज की तरफ देखकर) मैंने जिस दिन अपना किस्सा सरकार को सुनाया था उस दिन अर्ज किया था कि जब वह कागज का मुट्ठा मेरे पास से चोरी गया तो मुझे बड़ा ही तरद्दुद हुआ और उसके बहुत दिनों के बाद राजा गोपालसिंह के मरने की खबर उड़ी1 इत्यादि। यह वही कागज का मुट्ठा था जो अर्जुनसिंह ने मेरे बटुए से निकाल लिया था, तथा इसके साथ और भी कई कागज थे। असल बात यह है कि उन चीठियों की नकल के मैंने दो मुट्ठे तैयार किये थे, एक तो हिफाजत के लिए अपने मकान में रख छोड़ा था और दूसरा मुट्ठा समय पर काम लेने के लिए हरदम अपने बटुए में रखता था। मुझे गुमान था अर्जुनसिंह ने जो मुट्ठा ले लिया था उसी से मुझे नुकसान पहुंचा मगर अब मालूम हुआ कि ऐसा नहीं हुआ, अर्जुनसिंह ने न तो वह किसी को दिया और न उससे मुझे कुछ नुकसान पहुंचा। हाल में जो दूसरा मुट्ठा जैपाल ने मेरे घर से चुरवा लिया था उसी ने तमाम बखेड़ा मचाया।
जीत - ठीक है (दलीपशाह की तरफ देख के) अच्छा तब क्या हुआ।
दलीपशाह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया –
दलीप - गिरिजाकुमार और अर्जुनसिंह में एक तरह की नातेदारी भी है परंतु उसका खयाल न करके ये दोनों आपस में दोस्ती का बर्ताव रखते थे। खैर, उस समय इन दोनों के आ जाने से हम लोगों को खुशी हुई और फिर इस तरह बातें होने लगीं –
1. चंद्रकान्ता संतति, इक्कीसवां भाग, दूसरा बयान।
मैं - गिरिजाकुमार, तुमने तो बहुत दिन लगा दिये!
गिरिजा - जी हां, मुझे तो और भी कई दिन लग जाते मगर इत्तिफाक से अर्जुनसिंह से मुलाकात हो गई और इनकी मदद से मेरा काम बहुत जल्द हो गया।
मैं - खैर यह बताओ कि तुमने किन-किन बातों का पता लगाया और मुझसे बिदा होकर तुम दारोगा के पीछे कहां तक गए?
गिरिजा - जैपाल को साथ लिए हुए दारोगा सीधे मनोरमा के मकान पर चला गया। उस समय मनोरमा वहां न थी, वह दारोगा के आने के तीन पहर बाद रात के समय अपने मकान पर पहुंची। मैं भी छिपकर किसी-न-किसी तरह उस मकान में दाखिल हो गया। रात को दारोगा और मनोरमा में खूब हुज्जत हुई मगर अंत में मनोरमा ने उसे विश्वास दिला दिया कि राजा गोपालसिंह को मारने के विषय में उससे जबर्दस्ती पुर्जा लिखा लेने वाला मेरा आदमी न था बल्कि वह कोई और था जिसे मैं नहीं जानती। दारोगा ने बहुत सोच-विचारकर विश्वास कर लिया कि यह काम भूतनाथ का है। इसके बाद इन दोनों में जो कुछ बातें हुर्ईं उनसे यही मालूम हुआ कि गोपालसिंह जरूर मर गए और दारोगा को भी यही विश्वास है, मगर मेरे दिल में यह बात नहीं बैठती, खैर जो कुछ हो। उसके दूसरे दिन मनोरमा के मकान में से एक कैदी निकाला गया जिसे बेहोश करके जैपाल ने बेगम के मकान में पहुंचा दिया। मैंने उसे पहचानने के लिए बहुत कुछ उद्योग किया मगर पहचान न सका क्योंकि उसे गुप्त रखने की उन्होंने बहुत कोशिश की थी, मगर मुझे गुमान होता है कि वह जरूर बलभद्रसिंह होगा। अगर वह दो दिन भी बेगम के मकान में रहता तो मैं जरूर निश्चय कर लेता मगर न मालूम किस वक्त और कहां बेगम ने उसे पहुंचवा दिया कि मुझे इस बात का कुछ भी पता न लगा, हां इतना जरूर मालूम हो गया कि दारोगा भूतनाथ को फंसाने के फेर में पड़ा हुआ है और चाहता है कि किसी तरह भूतनाथ मार डाला जाय।
इन कामों से छुट्टी पाकर दारोगा अकेला अर्जुनसिंह के मकान पर गया, इनसे बड़ी नरमी और खुशामद के साथ मुलाकात की, और देर तक मीठी-मीठी बातें करता रहा जिसका तत्व यह था कि तुम दलीपशाह को साथ लेकर मेरी मदद करो और जिस तरह हो सके भूतनाथ को गिरफ्तार करा दो, अगर तुम दोनों की मदद से भूतनाथ गिरफ्तार हो जायगा तो मैं इसके बदले में दो लाख रुपया तुम दोनों को इनाम दूंगा, इसके अतिरिक्त वह आपके नाम का एक पत्र भी अर्जुनसिंह को दे गया।
अर्जुनसिंह ने दारोगा का वह पत्र निकालकर मुझे दिया, मैंने पढ़कर इंद्रदेव के हाथ में दे दिया और कहा, 'इसका मतलब भी वही है जो गिरिजाकुमार ने अभी बयान किया है' परंतु यह कदापि नहीं हो सकता कि मैं भूतनाथ के साथ किसी तरह की बुराई करूं, हां दारोगा के साथ दिल्लगी अवश्य करूंगा।'
इसके बाद कुछ देर तक और भी बातचीत होती रही। अंत में गिरिजाकुमार ने कहा कि मेरे इस सफर का नतीजा कुछ भी न निकला और न मेरी तबीयत ही भरी, आप कृपा करके मुझे जमानिया जाने की इजाजत दीजिये।
गिरिजाकुमार की दरखास्त मैंने मंजूर कर ली। उस दिन रात-भर हम लोग इंद्रदेव के यहां रहे, दूसरे दिन गिरिजाकुमार जमानिया की तरफ रवाना हुआ और मैं अर्जुनसिंह को साथ लेकर अपने घर मिर्जापुर चला आया।
घर पहुंचकर मैंने भूतनाथ की स्त्री शांता को देखा जो बीमार तथा बहुत ही कमजोर और दुबली हो रही थी, मगर उसकी सब बीमारी भूतनाथ की नादानी के सबब से थी और वह चाहती थी कि जिस तरह भूतनाथ ने अपने को मरा हुआ मशहूर किया था उसी तरह वह भी अपने और छोटे बच्चे के बारे में मशहूर करे। उसकी अवस्था पर मैं बड़ा दुःखी हुआ और जो कुछ वह चाहती थी उसका प्रबंध मैंने कर दिया। यही सबब था कि भूतनाथ ने अपने छोटे बच्चे के विषय में धोखा खाया जिसका हाल महाराज और राजकुमारों को मालूम है, मगर सर्वसाधारण के लिए मैं इस समय उसका जिक्र न करूंगा। इसका खुलासा हाल भूतनाथ अपनी जीवनी में बयान करेगा। खैर –
घर पहुंचकर मैंने दिल्लगी के तौर पर भूतनाथ के विषय में दारोगा से लिखा-पढ़ी शुरू कर दी मगर ऐसा करने से मेरा असल मतलब यह था कि मुलाकात होने पर मैं वह सब पत्र जो इस समय हरनामसिंह के पास मौजूद हैं भूतनाथ को दिखाऊं और उसे होशियार कर दूं। अस्तु अंत में मैंने उसे (दारोगा को) साफ-साफ जवाब दे दिया।
यहां तक अपना किस्सा कहकर दलीपशाह ने हरनामसिंह की तरफ देखा और हरनामसिंह ने सब पत्र जो एक छोटी-सी संदूकड़ी में बंद थे महाराज के आगे पेश किये जिसे मामूली तौर पर सभों ने देखा। इन चीठियों से दारोगा की बेईमानी के साथ-ही-साथ यह भी साबित होता था कि भूतनाथ ने दलीपशाह पर व्यर्थ ही कलंक लगाया। महाराज की आज्ञानुसार वह चीठियां कम्बख्त दारोगा के आगे फेंक दी गईं और इसके बाद दलीपशाह ने फिर इस तरह बयान करना शुरू किया –
“मेरे और दारोगा के बीच में जो कुछ लिखा-पढ़ी हुई थी उसका हाल किसी तरह भूतनाथ को मालूम हो गया या शायद वह स्वयं दारोगा से जाकर मिला और दारोगा ने मेरी चीठियां दिखाकर इसे मेरा दुश्मन बना दिया तथा खुद भी मेरी बर्बादी के लिए तैयार हो गया। इस तरह दारोगा की दुश्मनी का वह पौधा जो कुछ दिनों के लिए मुरझा गया था फिर से लहलहा उठा और हरा-भरा हो गया, और साथ ही उसके मैं भी हर तरह से दारोगा का मुकाबिला करने के लिए तैयार हो गया।
कई दिन के बाद गिरिजाकुमार जमानिया से लौटा तो उसकी जुबानी मालूम हुआ कि मायारानी का दिन बड़ी खुशी और चहल-पहल के साथ गुजर रहा है। मनोरमा और नागर के अतिरिक्त धनपत नामी एक औरत और भी है जिसे मायारानी बहुत प्यार करती है मगर उस पर मर्द होने का शक होता है। इसके अतिरिक्त यह भी मालूम हुआ कि दारोगा ने मेरी गिरफ्तारी के लिए तरह-तरह के बंदोबस्त कर रखे हैं और भूतनाथ भी दो-तीन दफे उसके पास आता-जाता दिखाई दिया है मगर यह बात निश्चय रूप से मैं नहीं कह सकता कि वह जरूर भूतनाथ ही था।
एक दिन संध्या के समय जब दारोगा अपने बाग में टहल रहा था तो भेष बदले हुए गिरिजाकुमार पिछली दीवार लांघ के उसके पास जा पहुंचा और बेखौफ सामने खड़ा होकर बोला, 'दारोगा साहब, इस समय आप मुझे गिरफ्तार करने का खयाल भी न कीजियेगा क्योंकि मैं आपके कब्जे में नहीं आ सकता।' साथ ही इसके यह भी समझ रखिए कि मैं आपकी जान लेने के लिए नहीं आया हूं बल्कि आपसे दो-चार बातें करने के लिए आया हूं।'
दारोगा घबड़ा गया और उसकी बातों का कुछ विशेष जवाब न देकर बोला, 'खैर कहो क्या चाहते हो।'
गिरिजा - मनोरमा और मायारानी के फेर में पड़कर तुमने राजा गोपालसिंह को मरवा डाला, इसका नतीजा एक-न-एक दिन तुम्हें भोगना ही पड़ेगा। मगर अब मैं यह पूछता हूं कि जिनके डर से तुमने लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को कैद कर रखा था वे तो मर ही गये अब अगर तुम उन दोनों को छोड़ भी दोगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा?
दारोगा - (ताज्जुब में आकर) मेरी समझ में नहीं आता कि तुम कौन हो और क्या कह रहे हो?
गिरिजा - मैं कौन हूं इसके जानने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं मगर क्या तुम कह सकते हो कि जो कुछ मैंने कहा है वह सब झूठ है?
दारोगा - बेशक झूठ है! तुम्हारे पास इन बातों का क्या सबूत है?
गिरिजा - जैपाल और हेलासिंह के बीच जो कुछ लिखा-पढ़ी है उसके अतिरिक्त वह चिट्ठी इस समय भी मेरे पास मौजूद है जो राजा गोपालसिंह को मार डालने के लिए तुमने मनोरमा को लिख दी थी।
दारोगा - मैंने कोई चिट्ठी नहीं लिखी थी, मालूम होता है कि दलीपशाह और भूतनाथ वगैरह मिल-जुलकर मुझ पर जाल बांधना चाहते हैं और तुम उन्हीं में से किसी के नौकर हो।
गिरिजा - भूतनाथ तो मर गया, अब तुम भूतनाथ को क्यों बदनाम करते हो?
दारोगा - भूतनाथ जैसा मरा है सो मैं खूब जानता हूं, अगर खुद मुझसे मुलाकात न हुई होती तो शायद मैं धोखे में आ भी जाता।
गिरिजा - भूतनाथ तुम्हारे पास न आया होगा, किसी दूसरे आदमी ने सूरत बदलकर तुम्हें धोखा दिया होगा, वह बेशक मर गया!
दारोगा - (सिर हिलाकर) हां ठीक है, शायद ऐसा ही हो, मगर उन सब बातों से तुम्हें मतलब ही क्या है और तुम मेरे पास किसलिए आये हो सो कहो।
गिरिजा - मैं केवल इसीलिए आया हूं कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को छोड़ देने के लिए तुमसे प्रार्थना करूं।
दारोगा - पहले तुम अपना ठीक-ठीक परिचय दो तब मैं तुम्हारी बातों का जवाब दूंगा।
गिरिजा - अपना ठीक परिचय तो नहीं देता।
दारोगा - तब मैं तुम्हारी बातों का जवाब भी नहीं दे सकता।
इतना कहकर दारोगा पीछे की तरफ हटा और उसने अपने आदमियों को आवाज दी मगर गिरिजाकुमार झपटकर एक मुक्का दारोगा की गर्दन पर मारने के बाद तेजी के साथ बाग के बाहर निकल गया।
उसके दूसरे दिन गिरिजाकुमार ने उसी तरह मायारानी से भी मिलने की कोशिश की मगर उसके खास बाग के अंदर न जा सका। लाचार उसने मायारानी के ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह का पीछा किया और दो ही तीन दिन की मेहनत में धोखा देकर बिहारीसिंह को गिरफ्तार कर लिया और उसे अर्जुनसिंह के यहां पहुंचाकर मेरे पास चला आया।
ऊपर लिखी बातें बयान करके गिरिजाकुमार चुप हो गया और तब मैंने उससे कहा, 'बिहारीसिंह को तुमने गिरफ्तार कर लिया यह बहुत बड़ा काम हुआ और जब तुम बिहारीसिंह बनकर वहां जाओगे और चालाकी से उन लोगों में मिल-जुलकर अपने को छिपा सकोगे तो बेशक बहुत-सी बातों का पता लग जायगा और हम लोगों के लिए जो कुछ दारोगा किया चाहता है वह भी मालूम हो जायगा।'
गिरिजा - बेशक ऐसा ही हो। मैं आपसे बिदा होकर अर्जुनसिंह के यहां जाऊंगा और फिर बिहारीसिंह बनकर जमानिया पहुंचूंगा। मेरे जी में तो यही आया था कि मैं कम्बख्त दारोगा को सीधे यमलोक पहुंचा दूं मगर यह काम आपकी आज्ञा के बिना नहीं कर सकता था।
मैं - नहीं-नहीं, इंद्रदेव की आज्ञा बिना यह काम कदापि न करना चाहिए, पहले वहां का असल हाल-चाल तो मालूम कर लो फिर इस बारे में इंद्रदेव से बातचीत करेंगे।
गिरिजा - जो आज्ञा।
इसके बाद और भी तरह-तरह की बातचीत होती रही। उस दिन गिरिजाकुमार मेरे ही घर पर रहा और दूसरे दिन मुझसे बिदा हो अर्जुनसिंह के पास चला गया।
इसके बाद आठ दिन तक मुझे किसी बात का पता नहीं लगा, आखिर जब गिरिजाकुमार का पत्र आया तब मालूम हुआ कि वह बिहारीसिंह बनकर बड़ी खूबी के साथ उन लोगों से मिल गया है। उन लोगों की गुप्त कमेटी में भी बैठकर हर एक बात में राय दिया करता है जिससे बहुत जल्द कुछ भेदों का पता लग जाने की आशा होती है। गिरिजाकुमार ने यह भी लिखा है कि दारोगा को उस चिट्ठी की बड़ी ही चिंता लगी हुई है जो मनोरमा के नाम से राजा गोपालसिंह को मार डालने के लिए मैंने (गिरिजाकुमार ने) जबर्दस्ती उससे लिखवा ली थी। वह चाहता है कि जिस तरह हो वह चिट्ठी उसके हाथ लग जाय और इस काम के लिए लाखों रुपये खर्च करने को तैयार है। वह कहता है और वास्तव में ठीक कहता है कि उस चिट्ठी का हाल अगर लोगों को मालूम हो जायगा तो दूसरों की कौन कहे जमानिया की रियाया ही मुझे बुरी तरह से मारने के लिए तैयार हो जायगी। एक दिन हरनामसिंह ने उसे राय दी कि दलीपशाह को मार डालना चाहिए। इस पर वह बहुत ही झुंझलाया और बोला कि 'जब तक वह चिट्ठी मेरे हाथ न लग जाय तब तक दलीपशाह और उसके साथियों को मार डालने से मुझे क्या फायदा होगा बल्कि मैं और भी बहुत जल्द बर्बाद हो जाऊंगा क्योंकि दलीपशाह के मारे जाने से उसके दोस्त लोग जरूर उस चिट्ठी को मशहूर कर देंगे, इसलिए जब तक वह चिट्ठी अपने कब्जे में न आ जाय तब तक किसी के मारने का ध्यान भी मन में न आना चाहिए। हां दलीपशाह को गिरफ्तार करने से बेशक फायदा पहुंच सकता है। अगर वह कब्जे में आ जायगा तो उसे तरह-तरह की तकलीफ पहुंचाकर किसी प्रकार उस चिट्ठी का पता जरूर लगा लूंगा,' इत्यादि।
वास्तव में बात भी ऐसी ही थी, इसमें कोई शक नहीं कि उसी चिट्ठी की बदौलत हम लोगों की जान बची रही, यद्यपि तकलीफें हर दर्जे की भोगनी पड़ीं मगर जान से मारने की हिम्मत दारोगा को न हुई, क्योंकि उसके दिल में विश्वास करा दिया गया था कि हम लोगों की मंडली का एक भी आदमी जिस दिन मारा जायगा उसी दिन वह चिट्ठी तमाम दुनिया में मशहूर हो जायगी, इस बात का बहुत ही उत्तम प्रबंध किया गया है।
इसके बाद कई दिन बीत गये मगर गिरिजाकुमार की फिर कोई चिट्ठी न आई जिससे एक तरह पर तरद्दुद हुआ और जी में आया कि खुद जमानिया चलकर उसका पता लगाना चाहिए।
दूसरे दिन अपने घर की हिफाजत का इंतजाम करके मैं बाहर निकला और अर्जुनसिंह के घर पहुंचा। ये उस समय अपने बैठक में अकेले बैठे हुए एक चिट्ठी लिख रहे थे, मुझे देखते ही उठ खड़े हुए और बोले, 'वाह-वाह, बहुत ही अच्छा हुआ जो आप आ गये, मैं इस समय आप ही के नाम एक चिट्ठी लिख रहा था और उसे अपने शागिर्द के हाथ आपके पास भेजने वाला था। आइये बैठिये।'
मैं - (बैठकर) क्या कोई नई बात मालूम हुई है?
अर्जुन - नहीं बल्कि एक नई बात हो गई है।
मैं - वह क्या?
अर्जुन - आज रात को बिहारीसिंह हमारी कैद से निकलकर भाग गया है।
मैं - (घबराकर) यह तो बुरा हुआ।
अर्जुन - बेशक बुरा हुआ। जिस समय वह जमानिया पहुंचेगा उस समय बेचारे गिरिजाकुमार पर जो बिहारीसिंह बनकर बैठा हुआ है आफत आ जायगी और वह भारी मुसीबत में गिरफ्तार हो जायगा। मैं यही खबर देने के लिए आपके पास आदमी भेजने वाला था।
मैं - आखिर ऐसा हुआ ही क्यों हिफाजत में कुछ कसर पड़ गई थी?
अर्जुन - अब तो ऐसा ही समझना पड़ेगा चाहे उसकी कैसी ही हिफाजत क्यों न की गई हो, मगर असल में यह मेरे एक सिपाही की बेईमानी का नतीजा है क्योंकि बिहारीसिंह के साथ ही वह भी यहां से गायब हो गया है। जरूर बिहारीसिंह ने उसे लालच देकर अपना पक्षपाती बना लिया होगा।
मैं - खैर जो कुछ होना था वह तो हो गया। अब किसी तरह गिरिजाकुमार को बचाना चाहिए क्योंकि असली बिहारीसिंह के जमानिया पहुंचते ही नकली बिहारीसिंह (गिरिजाकुमार) का भेद खुल जायगा और वह मजबूर करके कैदखाने में झोंक दिया जायगा।
अर्जुन - मैं खुद यही बात कह चुका हूं। खैर अब इस विषय में विशेष सोच-विचार न करके जहां तक जल्द हो सके जमानिया पहुंचना चाहिए।
मैं - मैं तो तैयार ही हूं क्योंकि अभी कमर भी नहीं खोली।
अर्जुन - खैर आप कमर खोलिये और कुछ भोजन कीजिये, मैं भी आपके साथ चलने के लिए घंटे-भर के अंदर ही तैयार हो जाऊंगा।
मैं - क्या आप जमानिया चलेंगे?
अर्जुन - (आवाज में जोर देकर) जरूर!
घंटे भर के अंदर ही हम दोनों आदमी जमानिया जाने के लिए हर तरह से तैयार हो गये और ऐयारी का पूरा-पूरा सामान दुरुस्त कर लिया। दोनों आदमी असली सूरत में पैदल ही घर से बाहर निकले और कई कोस निकल जाने के बाद जंगल में बैठकर अपनी सूरत बदली, इसके बाद कुछ देर आराम करके फिर आगे की तरफ रवाना हुए और इरादा कर लिया कि आज की रात किसी जंगल में पेड़ के ऊपर बैठकर बिता देंगे।
आखिर ऐसा ही हुआ। संध्या होने पर हम दोनों दोस्त जंगल में एक रमणीक स्थान देखकर अटक गये जहां पानी का सुंदर चश्मा बह रहा था तथा सलई का एक बहुत बड़ा और घना पेड़ भी था जिस पर बैठने के लिए ऐसी अच्छी जगह थी कि उस पर बैठे-बैठे घंटे-दो घंटे नींद भी ले सकते थे।
यद्यपि हम लोग किसी सवारी पर बहुत जल्द जमानिया पहुंच सकते थे और वहां अपने लिए टिकने का भी इंतजाम कर सकते थे मगर उन दिनों जमानिया की ऐसी बुरी अवस्था थी कि ऐसा करने की हिम्मत न पड़ी और जंगल में टिके रहना ही उचित जान पड़ा। दोनों आदमी एक दिल थे इसलिए कुछ तरद्दुद या किसी तरह के खुटके का भी कुछ खयाल न था।
अंधकार छा जाने के साथ ही हम दोनों आदमी पेड़ के ऊपर जा बैठे और धीरे-धीरे बातें करने लगे, थोड़ी ही देर बाद कई आदमियों के आने की आहट मालूम हुई, हम दोनों चुप हो गये और इंतजार करने लगे कि देखें कौन आता है। थोड़ी ही देर में दो आदमी उस पेड़ के नीचे आ पहुंचे। रात हो जाने के सबब हम उनकी सूरत अच्छी तरह देख नहीं सकते थे, घने पेड़ों में से छनी हुई कुछ-कुछ और कहीं-कहीं चंद्रमा की रोशनी जमीन पर पड़ रही थी, उसी से अंदाजा कर लिया कि ये दोनों सिपाही हैं, मगर ताज्जुब होता था कि ये लोग रास्ता छोड़, भेदियों और ऐयारों की तरह जंगल में क्यों टिके हैं!
दोनों आदमी अपनी छोटी गठरी जमीन पर रखकर पेड़ के नीचे बैठ गये और इस तरह बातें करने लगे –
एक - भाई हमें तो इस जंगल में रात काटना कठिन मालूम होता है।
दूसरा - सो क्यों?
पहला - डर मालूम होता है कि किसी जानवर का शिकार न बन जायं।
दूसरा - बात तो ऐसी ही है। मुझे भी यहां टिकना बुरा मालूम होता है। मगर क्या किया जाय, बाबाजी का हुक्म ही ऐसा है।
पहला - बाबाजी तो अपने काम के आगे दूसरे की जान का कुछ भी खयाल नहीं करते। जब से हमारे राजा साहब का देहांत हुआ है तब से इनका दिमाग और भी बढ़ गया है।
दूसरा - इनकी हुकूमत के आगे तो हमारा जी ऊब गया, नौकरी करने की इच्छा नहीं होती।
पहला - मगर इस्तीफा देते भी डर मालूम होता है, झट यही कह बैठेंगे कि 'तू हमारे दुश्मनों से मिल गया है।' अगर इस तरह की बात उनके दिल में बैठ गयी तो जान बचानी भी मुश्किल होगी।
दूसरा - इनकी नौकरी में यही तो मुश्किल है, रुपया खूब मिलता है इसमें कोई संदेह नहीं, मगर जान का डर हरदम बना रहता है। कम्बख्त मनोरमा की हुकूमत के मारे तो और भी नाक में दम रहता है। जब से राजा साहब मरे हैं इसने महल में डेरा ही जमा लिया है, पहले डर के मारे दिखाई भी नहीं देती थी। एक बाजारू औरत का इस तरह रियासत में घुसे रहना कोई अच्छी बात है?
पहला - अजी जब हमारी रानी साहिबा ही ऐसी हैं तो दूसरे को क्या कहें मनोरमा तो बाबाजी की जान ही ठहरी।
दूसरा - (बीच में) यह बेगम कम्बख्त नई निकल पड़ी है, जहां घड़ी-घड़ी दौड़ के जाना पड़ता है!
पहला - (हंसकर) जानते नहीं हो यह जैपालसिंह की नानी (रंडी) है। पहले भूतनाथ के पास रही अब इनके गले पड़ी है। इसे भी तुम आफत की पुड़िया ही समझो। चार दफे मैं उनके पास जा चुका हूं, आज पांचवीं दफे जा रहा हूं, इस बीच में मैं उसे अच्छी तरह पहचान गया।
दूसरा - मैं समझता हूं कि बिहारीसिंह से और उससे भी कुछ संबंध है।
पहला - नहीं ऐसा तो नहीं है, अगर बिहारीसिंह से बेगम का कुछ लगाव होता तो जैपालसिंह और बिहारीसिंह से जरूर खटक जाती, तिसमें इधर तो बिहारीसिंह बहुत दिनों तक अर्जुनसिंह के यहां कैदी ही रहे, आज किसी तरह छूटकर अपने घर पहुंचे हैं, अब देखो गिरिजाकुमार पर क्या मुसीबत आती है!
दूसरा - गिरिजाकुमार कौन है?
पहला - वही जो बिहारीसिंह बना हुआ था।
दूसरा - वह तो अपना नाम शिवशंकर बताता है।
पहला - बताता है मगर मैं तो उसे खूब पहचानता हूं।
दूसरा - तो तुमने बाबाजी से कहा क्यों नहीं?
पहला - मुझे क्या गरज पड़ी है जो उसके लिए दलीपशाह से दुश्मनी पैदा करूं वह दलीपशाह का बहुत प्यारा शागिर्द है, खबरदार, तुम भी इस बात का जिक्र किसी से न करना, मैंने तुम्हें अपना दोस्त समझकर कह दिया।
दूसरा - नहीं जी मैं क्यों किसी को कहने लगा (चौंककर ) देखो यह किसी भयानक जानवर के बोलने की आवाज है।
पहला - तो डर के मारे तुम्हारा दम क्यों निकला जाता है ऐसा ही है तो थोड़ी-सी लकड़ी बटोरकर आग सुलगा लो या पेड़ के ऊपर चढ़कर बैठो।
दूसरा - इससे तो यह बेहतर होगा कि यहां से चले चलें, सफर ही में रात काट देंगे, बाबाजी कुछ देखने थोड़े ही आते हैं।
पहला - जैसा कहो।
दूसरा - हमारी तो यही राय है।
पहला - अच्छा चलो, जिसमें तुम खुश रहो वही ठीक है।
उन दोनों की बात सुनकर हम लोगों को बहुत-सी बातों का पता लग गया। गिरिजाकुमार की बात सुनकर मुझे बड़ा ही दुःख हुआ, साथ ही इस बात के जानने की उत्कंठा भी हुई कि वे दोनों बेगम के यहां क्यों जा रहे हैं। दिल दो तरफ के खिंचाव में पड़ गया, एक तो इच्छा हुई कि दोनों को कब्जे में करके मालूम कर लें कि बेगम के पास किस मजमून की चिट्ठी ले जा रहे हैं और अगर उचित मालूम हो तो इनकी सूरत बनाकर खुद बेगम के पास चलें, संभव है कि बहुत-से भेदों का पता लग जाय, दूसरे इस बात की भी जल्दी पड़ गई कि किसी तरह शीघ्र जमानिया पहुंचकर गिरिजाकुमार की मदद करनी चाहिए। जब यह मालूम हुआ कि अब वे दोनों यहां से जाना चाहते हैं तब हम लोग भी झट पेड़ के नीचे उतर आए और उन दोनों के सामने खड़े होकर मैंने कहा, 'नहीं जानवरों के डर से मत भागो, हम लोग तुम्हारे साथ हैं।'
हम दोनों को यकायक इस तरह पेड़ से उतरकर सामने खड़े होते देख वे दोनों डर गये मगर कुछ देर बाद एक ने जी कड़ा करके कहा, 'भाई तुम लोग कौन हो भूत हो, प्रेत हो, या जिन्न हो?
मैं - डरो मत, हम लोग भूत-प्रेत नहीं हैं, आदमी हैं और ऐयार हैं, तुम लोगों में जो कुछ बातें हुई हैं हम लोग पेड़ पर बैठे-बैठे सुन रहे थे, जब देखा कि अब तुम लोग जाना चाहते हो तो हम दोनों भी उतर आये।
एक सिपाही - (घबड़ानी आवाज से) आप कहां के रहने वाले और कौन हैं?
मैं - हम दोनों आदमी दलीपशाह के नौकर हैं।
दूसरा - अगर आप दलीपशाह के नौकर हैं तो हम लोगों को विशेष न डरना चाहिये क्योंकि आप लोग न तो हमारे मालिकों से मिलेंगे और न इस बात का जिक्र करेंगे कि हम लोग क्या बातें करते थे, हां अगर कोई हमारा दरबार का आदमी होता तो जरूर हम लोग बर्बाद हो जाते।
मैं - बेशक ऐसा ही है और तुम लोगों की बातों से यह जानकर हम दोनों बहुत प्रसन्न हुए कि तुम लोग ईमानदार और इंसाफपसंद आदमी हो और हमें यह भी उम्मीद है कि जो कुछ हम पूछेंगे उसका ठीक-ठीक जवाब देंगे।
दूसरा - हमारी बातों से आप जान ही चुके हैं कि हम लोग कैसे खूंखार आदमी के नौकर हैं और आप लोगों से बातें करने का कैसा बुरा नतीजा निकल सकता है।
मैं - ठीक है मगर तुम्हारे दारोगा साहब को इन बातों की खबर कुछ भी न लगेगी।
पहला - इस समय हम आपके काबू में हैं क्योंकि सिपाही होने पर भी ऐयारों का मुकाबला नहीं कर सकते तिस पर ऐसी अवस्था में कि दोनों तरफ की गिनती बराबर हो इसलिये इस समय आप जो कुछ चाहें हम लोगों पर जबर्दस्ती कर सकते हैं।
मैं - नहीं-नहीं, हम लोग तुम पर जबर्दस्ती नहीं किया चाहते बल्कि तुम्हारी खुशी और हिफाजत का खयाल रखकर अपना काम निकाला चाहते हैं।
पहला - इसके अतिरिक्त हम लोगों को इस बात का भी निश्चय हो जाना चाहिए कि आप लोग वास्तव में दलीपशाह के ऐयार हैं और हम लोगों की हिफाजत के लिये आपने कोई अच्छी तरकीब सोच ली है अगर हम लोग आपकी किसी बात का जवाब दें।
सिपाही की आखिरी बात से हमें निश्चय हो गया कि वे लोग हमारे कब्जे में आ जायेंगे और हमारी बात मान लेंगे और अगर ऐसा न करते तो वे लोग कर ही क्या सकते थे आखिर हर तरह का ऊंच-नीच दिखाकर हमने उन्हें राजी कर लिया और अपना सच्चा परिचय देकर उन्हें विश्वास करा दिया कि जो कुछ हमने कहा है सब सच है। इसके बाद हमने जो कुछ पूछा उन्होंने साफ-साफ बता दिया और जो कुछ देखना चाहा (बेगम के नाम के पत्र इत्यादि) दिखा दिया। गिरिजाकुमार के बारे में तो जो कुछ पहले मालूम कर चुके थे उससे ज्यादा कुछ मालूम न हुआ क्योंकि उसके विषय में उन्हें कुछ विशेष खबर ही न थी, केवल इतना ही जानते थे असली बिहारीसिंह के पहुंचने पर नकली बिहारीसिंह (गिरिजाकुमार) गिरफ्तार कर लिया गया, हां दूसरी बात यह मालूम हो गई कि वे दोनों आदमी दारोगा और जैपाल की चिट्ठी लेकर बेगम के पास जा रहे हैं, कल संध्या समय तक बेगम के पास पहुंच जायेंगे और परसों संध्या को बेगम को साथ लिए हुए किश्ती की सवारी से गंगाजी की तरफ से रातोंरात जमानिया लौटेंगे। अस्तु हम लोगों ने उन दोनों सिपाहियों को जिस तरह बन पड़ा इस बात पर राजी कर लिया कि जब तुम लोग बेगम को लिए हुए रातोंरात गंगाजी की राह लौटो तो अमुक समय अमुक स्थान पर कुछ देरी के लिए किसी बहाने किश्ती किनारे लगा के रोक लेना, उस समय हम लोग डाकुओं की तरह पहुंचकर बेगम को गिरफ्तार कर लेंगे और जो कुछ चीजें हमारे मतलब की उसके पास होंगी उन्हें ले लेंगे मगर तुम लोगों को छोड़ देंगे, इस तरह हमारा काम भी निकल जायगा और तुम लोगों पर कोई किसी तरह का शक भी न कर सकेगा।
रुपये पाने के साथ ही अपना किसी तरह का हर्ज न देखकर दोनों सिपाहियों ने इस बात को भी मंजूर कर लिया। इसके बाद हम लोगों में मेल-मुहब्बत की बातचीत होने लगी और तमाम रात हम लोगों ने उस पेड़ पर काट दी। सबेरा होने पर दोनों सिपाही हमसे बिदा होकर चले गये तब हम लोग आपस में विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिए। अंत में यह निश्चय करके कि अर्जुनसिंह तो गिरिजाकुमार को छुड़ाने के लिए जमानिया जायं और मैं बेगम को फंसाने का बंदोबस्त करूं, हम दोनों भी एक-दूसरे से बिदा हुए।
इस जगह मैं किस्से के तौर पर थोड़ा-सा हाल गिरिजाकुमार का बयान करूंगा जो कुछ दिन बाद मुझे उसी की जुबानी मालूम हुआ था।
अर्जुनसिंह की कैद से छुटकारा पाकर बिहारीसिंह सीधे जमानिया दारोगा के पास चला मगर ऐसे ढंग से गया कि किसी को कुछ मालूम न हुआ और न गिरिजाकुमार ही को इस बात का पता लगा। रात पहर भर से कुछ ज्यादा जा चुकी थी जब दारोगा ने नकली बिहारीसिंह अर्थात् गिरिजाकुमार को अपने घर बुलाया। बेचारे गिरिजाकुमार को क्या खबर थी आज मैं मुसीबत में डाला जाऊंगा। वह बेधड़क मामूली ढंग पर बाबाजी (दारोगा) के मकान पर चला गया और देखा कि दारोगा अकेले ऊंची गद्दी पर बैठा हुआ है और उसके सामने सात-आठ सिपाही तलवार लगाये खड़े हैं। दारोगा का इशारा पाकर गिरिजाकुमार उसके सामने बैठ गया। बैठने के साथ ही उन सब सिपाहियों ने एक साथ गिरिजाकुमार को धर दबाया और बात की बात में हाथ-पैर बांध के छोड़ दिया। बेचारा गिरिजाकुमार अकेला कुछ भी न कर सका और जो कुछ हुआ उसने चुपचाप बर्दाश्त कर लिया। इसके बाद दारोगा ने ताली बजाई, उसी समय असली बिहारीसिंह कोठरी में से निकलकर बाहर चला आया और गिरिजाकुमार की तरफ देख के बोला, 'अब तो तुम समझ गये होगे कि तुम्हारा भंडा फूट गया और मैं तुम्हारे कैद से छूटकर निकल आया। मगर शाबाश, तुमने बड़ी खूबी के साथ मुझे धोखा देकर गिरफ्तार किया था। अब मेरी पारी है, देखो मैं किस तरह तुमसे बदला लेता हूं।'
गिरिजा - यह तो ऐयारों का काम ही है कि एक दूसरे को धोखा दिया करता है, इसमें अनर्थ क्या हो गया मेरा दांव लगा? मैंने तुम्हें गिरफ्तार करके कैदखाने में डाल दिया, अब तुम्हारा दांव लगा है तो तुम मुझे कैदखाने में डाल दो, जिस तरह तुम अपनी चालाकी से छूट आये हो उसी तरह छूटने के लिए मैं भी उद्योग करूंगा।
बिहारी - सो तो ठीक है, मगर इतना समझ रखो कि हम लोग तुम्हारे साथ मामूली बर्ताव न करेंगे बल्कि हद दर्जे की तकलीफ देंगे।
गिरिजा - यह तो ऐयारों के कायदे के बाहर है।
बिहारी - जो भी हो।
गिरिजा - खैर कोई हर्ज नहीं, जो कुछ होगा झेलेंगे।
बिहारी - अगर तुम तकलीफ से बचना चाहो तो मेरी बातों का साफ और सच-सच जवाब दो।
गिरिजा - वादा तो नहीं करते मगर जो कुछ पूछना हो पूछो।
बिहारी - तुम्हारा नाम क्या है?
गिरिजा - शिवशंकर।
बिहारी - किसके नौकर हो?
गिरिजा - किसी के भी नहीं।
बिहारी - फिर यहां आये थे किसके काम के लिये?
गिरिजा - गुरुजी के।
बिहारी - तुम्हारा गुरु कौन है
गिरिजा - वही जिसे तुम जान चुके हो और जिसके यहां इतने दिनों तक तुम कैद थे।
बिहारी - अर्जुनसिंह?
गिरिजा - हां।
बिहारी - उन्हें हम लोगों से क्या दुश्मनी थी?
गिरिजा - कुछ भी नहीं।
बिहारी - फिर यहां उत्पात मचाने के लिए तुम्हें भेजा क्यों?
गिरिजा - मुझे सिर्फ भूतनाथ का पता लगाने के लिए भेजा था क्योंकि उन्हें भूतनाथ से बहुत ही रंज है। यद्यपि भूतनाथ ने अपना मरना मशहूर किया है मगर उन्हें विश्वास है कि वह मरा नहीं और दारोगा साहब के साथ मिल-जुलकर काम कर रहा है और उनकी (अर्जुनसिंह की) बर्बादी का बंदोबस्त करता है। इसी से उन्होंने मुझे आज्ञा दी थी कि दारोगा साहब के यहां घुसपैठ कर और कुछ दिन तक उन लोगों के साथ रहकर ठीक-ठीक पता लगाओ और बन पड़े तो उसे गिरफ्तार भी कर लो, बस।
बिहारी - भूतनाथ और अर्जुनसिंह से लड़ाई क्यों हो गई?
गिरिजा - लड़ाई तो बहुत पुरानी है मगर इधर जब से गुरुजी ने उसका ऐयारी का बटुआ ले लिया तब से रंज ज्यादे हो गया है।
बिहारी - (ताज्जुब से) क्या भूतनाथ का बटुआ अर्जुनसिंह ने ले लिया?
गिरिजा - हां।
बिहारी - उसमें से क्या चीज निकली?
गिरिजा - सो तो नहीं मालूम मगर इतना गुरुजी कहते थे कि उस बटुए से हमारा काम नहीं चला इसलिए उसे गिरफ्तार ही करना पड़ेगा।
बिहारी - मगर भूतनाथ के खयाल से तुम्हारे गुरुजी ने हमें क्यों तकलीफ दी?
गिरिजा - तुम्हें उन्होंने किसी तरह की तकलीफ नहीं दी बल्कि बड़े आराम के साथ कैद में रखा था, क्योंकि तुम लोगों से उन्हें किसी तरह की दुश्मनी नहीं है। उनका खयाल यही था कि बिहारीसिंह को तीन-चार दिन से ज्यादे कैद में रखने की जरूरत न पड़ेगी और इसके बीच ही में भूतनाथ का पता लग जायगा। उन्हें इस बात की भी खबर लगी थी कि भूतनाथ जमानिया में बिहारीसिंह के पास आया करता है, मगर यहां आने से मुझे उसका कुछ भी पता न लगा, अस्तु मैं एक-दो दिन में खुद ही लौट जाने वाला था, तुम अपनी बुद्धिमानी से अगर न भी छूटते तो एक-दो दिन में जरूर छोड़ दिये जाते।
गिरिजाकुमार ने ऐसे ढंग से सूरत बनाकर बातें कीं कि दारोगा और बिहारीसिंह को उसकी सच्चाई पर विश्वास हो गया। मैं पहले ही बयान कर चुका हूं कि गिरिजाकुमार बातचीत के समय सूरत बनाना बहुत ही अच्छा जानता था। अस्तु गिरिजाकुमार और बिहारीसिंह की बातें सुन दारोगा ने कहा - 'शिवशंकर, मालूम तो होता है कि तुम जो कुछ कहते हो वह सच ही है परंतु ऐयारों की बातों पर विश्वास करना जरा मुश्किल है, फिर भी तुम अच्छे और साफ दिल के मालूम होते हो।'
गिरिजा - जो आप चाहे खयाल करें मगर मैं तो यही समझता हूं कि आप लोगों से मुझे झूठ बोलने की जरूरत ही क्या है न मेरे गुरुजी को आप लोगों से दुश्मनी है न मुझी को, हां अगर यह मालूम हो जायगा कि हमारे मुकाबिले में आप लोग भूतनाथ की सहायता करते हैं तो बेशक दुश्मनी हो जायगी, यह मैं खुले दिल से कहे देता हूं चाहे आप मुझे बेवकूफ समझें चाहे नालायक।
दारोगा - नहीं-नहीं, शिवशंकर, हम लोग भूतनाथ की मदद किसी तरह नहीं कर सकते, हम तो उसे खुद ही ढूंढ़ रहे हैं मगर उस कम्बख्त का कहीं पता ही नहीं लगता, ताज्जुब नहीं कि वास्तव में मर ही गया हो।
गिरिजा - (सिर हिलाकर) कदापि नहीं, अभी महीने भर से ज्यादे न हुआ होगा कि मैंने खुद अपनी आंखों से उसे देखा था मगर उस समय मैं ऐसी अण्डस में था कि कुछ न कर सका। खैर कम्बख्त जाता कहां है, मुझे उसके दो-चार ठिकाने ऐसे मालूम हैं कि जिसके सबब से एक-न-एक दिन उसे जरूर गिरफ्तार कर लूंगा।
दारोगा - (ताज्जुब और खुशी से) क्या तुमने उसे खुद अपनी आंखों से देखा था और उसके दो-चार ठिकाने तुम्हें मालूम हैं?
गिरिजा - बेशक।
दारोगा - क्या उन ठिकानों का पता मुझे बता सकते हो?
गिरिजा - नहीं।
दारोगा - सो क्यों?
गिरिजा - गुरुजी ने मुझे जो कुछ ऐयारी सिखाना था सिखा चुके। मैं गुरुजी से वादा कर चुका हूं कि अब आपकी इच्छानुसार गुरुदक्षिणा में भूतनाथ को गिरफ्तार करके आपके हवाले करूंगा और जब तक ऐसा न करूंगा अपने घर कदापि न जाऊंगा। ऐसी अवस्था में अगर मैं भूतनाथ का कुछ पता आपको बता दूं तो मानो अपने पैर में आप ही कुल्हाड़ी मारूं क्योंकि आप अमीर और शक्ति संपन्न हैं, बनिस्बत मुझ गरीब के आप उसे बहुत जल्द गिरफ्तार कर सकते हैं, अस्तु अगर ऐसा हुआ और वह आपके हाथ में पड़ गया तो मैं सूखा ही रह जाऊंगा और गुरुदक्षिणा न दे सकने के कारण अपने घर भी न जा सकूंगा।
दारोगा - (हंसकर) मगर शिवशंकर, तुम बड़े ही सीधे आदमी हो और बहुत ही साफ-साफ कह देते हो, ऐयारों को ऐसा नहीं करना चाहिए।
गिरिजा - नहीं साहब, आपसे साफ-साफ कह देने में कोई हर्ज नहीं है क्योंकि आप हमारे दुश्मन नहीं हैं, दूसरे यह कि अभी तक मुझे ऐयार की पदवी नहीं मिली, जब गुरुदक्षिणा देकर ऐयार की पदवी पा जाऊंगा तो ऐयारों की-सी चाल चलूंगा, अभी तो मैं एक गरीब छोकरा हूं।
दारोगा - नहीं, तुम बहुत अच्छे आदमी हो। हम तुमसे खुश हैं। (बिहारीसिंह की तरफ देख के) इस बेचारे के हाथ-पैर खोल दो! (गिरिजाकुमार से) मगर तुम भूतनाथ का जो कुछ पता-ठिकाना जानते हो हमें बता दो, हम तुमसे वादा करते हैं कि भूतनाथ को गिरफ्तार करके अपना काम भी निकाल लेंगे और तुम्हारे सिर से गुरुदक्षिणा का बोझ भी उतरवा देंगे।
गिरिजा - (मुंह बिचकाकर और सिर हिलाकर) जी नहीं, हां अगर इसके साथ आप और भी दो-तीन बातों का वादा करें तो मैं बेशक आपकी मदद कर सकता हूं।
बिहारी - (गिरिजाकुमार के हाथ-पैर खोलकर) तुम जो कुछ चाहोगे बाबाजी देंगे मगर इनकी बातों से इंकार न करो।
गिरिजा - (अच्छी तरह बैठकर) ठीक है मगर मैं विशेष धन-दौलत नहीं चाहता और न मुझे इसकी जरूरत ही है क्योंकि ईश्वर ने मुझे बिल्कुल ही अकेला कर दिया है, न बाप, न मां, न भाई, न भौजाई, ऐसी अवस्था में मैं धन-दौलत लेकर क्या करूंगा, मगर दो-तीन बातों का इकरार लिए बिना मैं दारोगा साहब को कुछ भी न बताऊंगा चाहे मार ही डाला जाऊं!
दारोगा - (मुस्कराकर) अच्छा-अच्छा, बताओ तुम क्या चाहते हो?
गिरिजा - एक तो यह कि उसकी खोज में मैं अगुआ रखा जाऊं।
दारोगा - मंजूर है। अच्छा और बताओ।
गिरिजा - बिहारीसिंह मेरी मदद के लिए दिये जायं क्योंकि मैं इन्हें पसंद करता हूं।
दारोगा - यह भी कबूल है, और बोलो!
गिरिजा - जहां तक जल्द हो सके मैं गुरुदक्षिणा के बोझ से हलका किया जाऊं क्योंकि इसके लिए मैं जोश में आकर बहुत बुरी कसम खा चुका हूं, यद्यपि गुरुजी मना करते थे कि तुम कसम न खाओ तुम्हारे जैसे जिद्दी आदमी का कसम खाना अच्छा नहीं है!
दारोगा - बेशक ऐसा ही किया जायगा, तुम जो चाहते हो, वही होगा। और कहो।
गिरिजा - गुरुदक्षिणा से छुट्टी पाकर मैं ऐयार की पदवी पा जाऊं तो मुझे यहां किसी तरह की नौकरी मिल जाय जिससे मेरा गुजारा चले, और मेरी शादी करा दी जाय। यह मैं इसलिए कहता हूं कि मुझे शादी करने का शौक है और मैं अपनी बिरादरी में ऐसा गरीब हूं कि कोई मुझे लड़की देना कबूत न करेगा।
दारोगा - यह सब-कुछ हो जायगा, तुम कुछ चिंता न करो। और फिर तुम गरीब भी न रहोगे। अच्छा बताओ और भी कुछ चाहते हो?
गिरिजा - एक बात और है।
दारोगा - वह भी कह डालो।
गिरिजा - (बिहारीसिंह की तरफ इशारा करके) ये हमारे गुरुजी से किसी तरह की दुश्मनी न रखें और मेरे साथ वहां चलने में कोई परहेज न करें, देखिये मैं अपने दिल का हाल बहुत साफ कह रहा हूं।
बिहारी - ठीक है, ठीक है, जो कुछ तुम कहते हो मंजूर है।
गिरिजा - (दारोगा की तरफ देखकर) तो बस मैं भी आपका हुक्म बजा लाने के लिए दिलोजान से तैयार हूं।
दारोगा - अच्छा तो अब उसके दो-तीन ठिकाने जो तुम्हें मालूम हैं उनका पता बताओ।
गिरिजा - पता क्या, अब तो मैं खुद इनको (बिहारीसिंह को) अपने साथ ले चलकर सब-कुछ दिखाऊंगा और पता लगाऊंगा। मैं उस कम्बख्त को बिना ढूंढ़े छोड़ने वाला नहीं। मुझे आप चाणक्य की तरह जिद्दी समझिये।
दारोगा - अच्छा यह तो बताओ तुमने भूतनाथ को कहां देखा था जिसका जिक्र अभी तुमने किया है?
गिरिजा - बेगम के मकान से बाहर निकलते हुए।
बिहारी - (ताज्जुब से) कौन बेगम?
गिरिजा - वही जिसे जैपालसिंह अपनी समझते हैं। ताज्जुब क्या करते हैं, उसे आप साधारण औरत मत समझिये, मैं साबित कर दूंगा कि उसका मकान भी भूतनाथ का एक अड्डा है मगर वहां इत्तिफाक ही से वह कभी जाता है, हां बेगम उससे मिलने के लिए कभी-कभी कहीं जाती है परंतु उसका ठीक हाल मुझे अभी मालूम नहीं हुआ। मैं तो अब तक उसका भी पता लगा लिए होता मगर क्या कहूं गुरुजी ने कहा कि तुम जमानिया ही जाओ वहां भूतनाथ जल्दी मिल जायगा, नहीं तो मैं बेगम का ही पीछा करने वाला था।
दारोगा - मुझे तुम्हारी इन बातों पर ताज्जुब मालूम पड़ता है!
गिरिजा - अभी क्या आगे चलकर और भी ताज्जुब होगा जब खुद बिहारीसिंह वहां की कैफियत आपसे बयान करेंगे।
दारोगा - खैर अगर तुम्हारी राय हो तो मैं बेगम को यहां बुलाऊं?
गिरिजा - बुलवाइए मगर मेरी समझ में उसे होशियार कर देना मुनासिब न होगा, बल्कि मैं तो कहता हूं कि इसका जिक्र अभी आप जैपाल से भी न कीजिये, कुछ सबूत इकट्ठा कर लेने दीजिए।
दारोगा - खैर जैसा तुम चाहते हो वैसा ही होगा, बेगम को यहां बुलवाकर भूतनाथ का जिक्र न करूंगा बल्कि उसकी तबीयत और नीयत का अंदाजा करूंगा।
गिरिजा - हां तो बुलावाइये!
दारोगा - तब तक तुम क्या करोगे
गिरिजा - कुछ भी नहीं, अभी तो दो-तीन दिन तक मैं यहां से न जाऊंगा, बल्कि मैं चाहता हूं कि दो रोज मुझे आप इन्हीं (बिहारीसिंह) की सूरत में रहने दीजिए और बिहारीसिंह को कहिए कि अपनी सूरत बदल लें। जब बेगम आकर यहां से चली जाएगी तब हम दोनों आदमी भूतनाथ की खोज में जाएंगे।
दारोगा - इसमें क्या फायदा है असली सूरत में अगर तुम यहां रहो तो क्या कोई हर्ज है?
गिरिजा - हां जरूर हर्ज है, यहां मैं कई ऐसे आदमियों से मिलजुल रहा हूं जिनसे भूतनाथ की बहुत-सी बातें मालूम होने की आशा है। उन्हें अगर मेरा असल भेद मालूम हो जायगा तो बेशक हर्ज होगा। इसके अतिरिक्त जब बेगम यहां आ जाय तो मैं बिहारीसिंह बना हुआ आपके सामने ऐसे ढंग पर बातें करूंगा कि ताज्जुब नहीं आपको भी इस बात का पता लग जाय कि भूतनाथ से और उससे कुछ संबंध है।
दारोगा - अगर ऐसी बात है तो तुम्हारा बिहारीसिंह ही बने रहना ठीक है।
गिरिजा - इसी से तो मैं कहता हूं।
दारोगा - खैर ऐसा ही होगा और मैं आज ही बेगम को लाने के लिए आदमी भेजता हूं। (बिहारीसिंह की तरफ देखकर) तुम अपनी सूरत बदलने का बंदोबस्त करो!
बिहारी - बहुत अच्छा।
यहां तक बयान करके दलीपशाह चुप हो गया और कुछ दम लेकर फिर इस तरह बयान करने लगा –
“इस समय मेरी बातें सुन-सुनकर दारोगा और जैपाल वगैरह के कलेजे पर सांप लोट रहा होगा और उस समय की बातें याद करके ये बेचैन हो रहे होंगे क्योंकि वास्तव में गिरिजाकुमार ने उन्हें ऐसा उल्लू बनाया कि उस बात को ये कभी भूल नहीं सकते। खैर, उस समय जब हम दोनों आदमी जंगल में दारोगा के सिपाहियों से जुदा हुए, हमें गिरजाकुमार के मामले की कुछ खबर न थी। अगर खबर होती तो बेगम को न लूटते और न अर्जुनसिंह ही गिरिजाकुमार की खोज में जमानिया जाते। खैर फिर भी जो कुछ हुआ अच्छा ही हुआ और अब मैं आगे का हाल बयान करता हूं।”