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चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 6

कुमार की आज्ञानुसार इन्दिरा ने अपना किस्सा यों बयान किया –

इन्दिरा - मैं कह चुकी हूं कि ऐयारी का कुछ सामान लेकर जब मैं उस खोह के बाहर निकली और पहाड़ तथा जंगल पार करके मैदान में पहुंची तो यकायक मेरी निगाह एक ऐसी चीज पर पड़ी जिसने मुझे धोखा दिया और मैं घबड़ाकर उस तरफ देखने लगी।

जिस चीज को देखकर मैं चौंकी वह एक कपड़ा था जो मुझसे थोड़ी ही दूर पर ऊंचे पेड़ की डाल के साथ लटक रहा था और उस पेड़ के नीचे मेरी मां बैठी हुई कुछ सोच रही थी। जब मैं दौड़ती हुई उसके पास पहुंची तो वह ताज्जुब-भरी निगाहों से मेरी तरफ देखने लगी क्योंकि उस समय ऐयारी से मेरी सूरत बदली हुई थी। मैंने बड़ी खुशी के साथ कहा, “मां, तू यहां कैसे आ गई?' जिसे सुनते ही उसने उठकर मुझे गले से लगा लिया और कहा, “इन्दिरा, यह तेरा क्या हाल है क्या तूने ऐयारी सीख ली है!” मैंने मुख्तसर में अपना सब हाल बयान किया मगर उसने अपने विषय में केवल इतना ही कहा कि अपना किस्सा मैं आगे चलकर तुझसे बयान करूंगी, इस समय केवल इतना ही कहूंगी कि दारोगा ने मुझे एक पहाड़ी में कैद किया था जहां से एक स्त्री की सहायता पाकर परसों मैं निकल भागी मगर अपने घर का रास्ता न पाने के कारण इधर-उधर भटक रही हूं।

अफसोस उस समय मैंने बड़ा ही धोखा खाया और उसके सबब से मैं बड़े संकट में पड़ गई, क्योंकि वह वास्तव में मेरी मां न थी बल्कि मनोरमा थी और यह हाल मुझे कई दिनों के बाद मालूम हुआ। मैं मनोरमा को पहिचानती न थी मगर पीछे मालूम हुआ कि वह मायारानी की सखियों में से थी और गौहर के साथ वह वहां तक गई थी। मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि वह बड़ी शैतान, बेदर्द और दुष्टा थी। मेरी किस्मत में दुःख भोगना बदा हुआ था जो मैं उसे मां समझकर कई दिनों तक उसके साथ रही और उसने भी नहाने-धोने के समय अपने को मुझसे बहुत बचाया। प्रायः कई दिनों के बाद वह नहाया करती और कहती कि मेरी तबियत ठीक नहीं है।

साथ ही इसके यह भी शक हो सकता है कि उसने मुझे जान से क्यों नहीं मार डाला इसके जवाब में मैं कह सकती हूं कि वह मुझे जान से मार डालने के लिए तैयार थी मगर वह भी उसी कम्बख्त दारोगा की तरह मुझसे कुछ लिखवाया चाहती थी। अगर मैं उसकी इच्छानुसार लिख देती तो वह निःसन्देह मुझे मारकर बखेड़ा तै करती। मगर ऐसा न हुआ।

जब उसने मुझसे यह कहा कि 'रास्ते का पता न जानने के कारण से भटकती फिरती हूं' तब मुझे एक तरह का तरद्दुद हुआ, मगर मैंने कुछ जोश के साथ उसी समय जवाब दिया - 'कोई चिन्ता नहीं मैं अपने मकान का पता लगा लूंगी।'

मनो - मगर साथ ही इसके मुझे एक बात और भी कहनी है।

मैं - वह क्या?

मनो - मुझे ठीक खबर लगी है कि कम्बख्त दारोगा ने तेरे बाप को गिरफ्तार कर लिया है और इस समय वह काशी में मनोरमा के मकान में कैद है।

मैं - मनोरमा कौन?

मनो - राजा गोपालसिंह की स्त्री लक्ष्मीदेवी (जिसे अब लोग मायारानी के नाम से पुकारते हैं) की सखी।

मैं - असली लक्ष्मीदेवी से तो गोपालसिंह की शादी हुई ही नहीं, वह बेचारी तो...।

मनो - (बात काटकर) हां-हां, यह हाल मुझे भी मालूम है, मगर इस समय जो राजरानी बनी हुई है लोग तो उसी को न लक्ष्मीदेवी समझे हुए हैं इसी से मैंने उसे लक्ष्मीदेवी कहा।

मैं - (आंखों में आंसू भरकर) तो क्या मेरा बाप भी कैद हो गया?

मनो - बेशक, मैंने उसके छुड़ाने का भी बन्दोबस्त कर लिया है क्योंकि तुझे तो शायद मालूम ही होगा कि तेरे बाप ने मुझे भी थोड़ी-बहुत ऐयारी सिखा रखी है अस्तु वही ऐयारी इस समय मेरे काम आई और आवेगी।

मैं - (ताज्जुब से) मुझे तो नहीं मालूम कि पिताजी ने तुम्हें भी ऐयारी सिखाई है!

मनोरमा - ठीक है, तू उन दिनों बहुत नादान थी इसलिए आज वे बातें तुझे याद नहीं हैं पर मेरा मतलब यही है कि मैं कुछ ऐयारी जानती हूं और इस समय तेरे बाप को छुड़ा भी सकती हूं।

मनोरमा की यह बात ऐसी थी कि मुझे उस पर शक हो सकता था मगर उसकी मीठी-मीठी बातों ने मुझे धोखे में डाल दिया और सच तो यों है कि मेरी किस्मत में दुःख भोगना बदा था, अस्तु मैंने कुछ सोचकर यही जवाब दिया कि 'अच्छा जो उचित समझो सो करो। ऐयारी तो थोड़ी-सी मुझे भी आ गई है और इसका हाल भी मैं तुम्हें कह चुकी हूं कि चम्पा ने मुझे अपनी चेली बना लिया है।'

मनोरमा - हां ठीक है, तो अब सीधे काशी ही चलना चाहिए और वहां चलने का सबसे ज्यादे सुभीता डोंगी पर है, इसलिए जहां तक जल्द हो सके गंगा किनारे चलना चाहिए, वहां कोई-न-कोई डोंगी मिल ही जायगी।

मैं - बहुत अच्छा चलो।

उसी समय हम लोग गंगा की तरफ रवाना हो गए और उचित समय पर वहां पहुंचकर अपने योग्य डोंगी किराये पर ली। डोंगी किराए करने में किसी तरह की तकलीफ न हुई क्योंकि वास्तव में डोंगी वाले भी उसी दुष्ट मनोरमा के नौकर थे मगर उस कम्बख्त ने ऐसे ढंग से बातचीत की मुझे किसी तरह का शक न हुआ या यों समझिए कि मैं अपनी मां से मिलकर एक तरह पर कुछ निश्चिन्त-सी हो रही थी। रास्ते ही में मनोरमा ने मल्लाहों से इस किस्म की बातें भी शुरू कर दीं कि 'काशी पहुंचकर तुम्हीं लोग हमारे लिए एक छोटा-सा मकान भी किराए पर तलाश कर देना, इसके बदले में तुम्हें बहुत कुछ इनाम दूंगी।'

मुख्तसर यह कि हम लोग रात के समय काशी पहुंचे। मल्लाहों द्वारा मकान का बन्दोबस्त हो गया और हम लोगों ने उसमें जाकर डेरा भी डाल दिया। एक दिन उसमें रहने के बाद मनोरमा ने कहा कि 'बेटी, तू इस मकान के अन्दर दरवाजा बन्द करके बैठ तो मैं जाकर मनोरमा का हाल दरियाफ्त कर आऊं। अगर मौका मिला तो मैं उसे जान से मार डालूंगी और तब स्वयं मनोरमा बनकर उसके मकान, असबाब और नौकरों पर कब्जा करके तुझे लेने यहां आऊंगी, उस समय तू मुझे मनोरमा की सूरत-शक्ल में देखकर ताज्जुब न कीजियो। जब मैं तेरे सामने आकर 'चापगेच' शब्द कहूं तब समझ जाइयो कि यह वास्तव में मेरी मां है मनोरमा नहीं क्योंकि उस समय कई सिपाही और नौकर मुझे मालिक समझकर आज्ञानुसार मेरे साथ होंगे। तेरे बारे में मैं उन लोगों में यही मशहूर करूंगी कि यह मेरी रिश्तेदार है। इसे मैंने गोद लिया है और अपनी लड़की बनाया है। तेरी जरूरत की सब चीजें यहां मौजूद हैं तुझे किसी तरह की तकलीफ न होगी।'

इत्यादि बहुत - सी बातें समझा-बुझाकर मनोरमा मकान के बाहर हो गई और मैंने भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया, मगर जहां तक मेरा खयाल है वह मुझे अकेला छोड़कर न गई होगी बल्कि दो-चार आदमी उस मकान के दरवाजे पर या इधर-उधर हिफाजत के लिए जरूर लगा गई होगी।

ओफ ओह, उसने अपनी बातों और तर्कीबों का ऐसा मजबूत जाल बिछाया कि मैं कुछ कह नहीं सकती। मुझे उस पर रत्ती भर भी किसी तरह का शक न हुआ और मैं पूरा धोखा खा गई। इसके दूसरे ही दिन वह मनोरमा बनी हुई कई नौकरों को साथ लिए मेरे पास पहुंची और 'चापगेच' शब्द कहकर मुझे अपना परिचय दिया। मैं यह समझकर बहुत प्रसन्न हुई कि मां ने मनोरमा को मार लिया अब मेरे पिता भी कैद से छुट जायेंगे। अस्तु जिस रथ पर सवार होकर मुझे लेने के लिए आई थी उसी पर मुझे अपने साथ बैठाकर वह अपने घर ले गई और उस समय मैं हर तरह से उसके कब्जे में पड़ गई।

मनोरमा के घर पहुंचकर मैं उस सच्ची मुहब्बत को खोजने लगी जो मां को अपने बच्चे के साथ होती है मगर मनोरमा में वह बात कहां से आती फिर भी मुझे इस बात का गुमान न हुआ कि यहां धोखे का जाल बिछा हुआ है जिसमें मैं फंस गई हूं, बल्कि मैंने यह समझा कि वह मेरे पिता को छुड़ाने की फिक्र में लगी हुई है और इसी से मेरी तरफ ध्यान नहीं देती और वह मुझसे घड़ी-घड़ी यही बात कहा भी करती कि 'बेटी, मैं तेरे बाप को छुड़ाने की फिक्र में पागल हो रही हूं।'

जब तक मैं उसके घर में बेटी कहलाकर रही तब तक न तो उसने स्नान किया और न अपना शरीर ही देखने का कोई ऐसा मौका मुझे दिया जिसमें मुझको शक होता कि यह मेरी मां नहीं बल्कि दूसरी औरत है। और हां, मुझे भी वह असली सूरत में रहने नहीं देती थी। चेहरे में कुछ फर्क डालने के लिए उसने एक तेल बनाकर मुझे दे दिया था जिसे दिन में एक या दो दफे मैं नित्य लगा लिया करती थी। इससे केवल मेरे रंग में फर्क पड़ गया था और कुछ नहीं।

उसके यहां रहने वाले सभी मेरी इज्जत करते और जो कुछ मैं कहती उसे तुरत ही मान लेते मगर मैं उस मकान के हाते के बाहर जाने का इरादा नहीं कर सकती थी। कभी अगर ऐसा करती तो सभी लोग मना करते और रोकने को तैयार हो जाते।

इसी तरह वहां रहते मुझे कई दिन बीत गए। एक दिन जब मनोरमा रथ पर सवार होकर कहीं बाहर गई थी, मैं समझती हूं कि मायारानी से मिलने गई होगी, संध्या के समय जब थोड़ा-सा दिन बाकी था, मैं धीरे-धीरे बाग में टहल रही थी कि यकायक किसी का फेंका हुआ पत्थर का छोटा-सा टुकड़ा मेरे सामने आकर गिरा। जब मैंने ताज्जुब से उसे देखा तो उसमें बंधे कागज के एक पुरजे पर मेरी निगाह पड़ी। मैंने झट उठा लिया और पुर्जा खोलकर पढ़ा, उसमें यह लिखा हुआ था –

“अब मुझे निश्चय हो गया कि तू 'इन्दिरा' है, अस्तु तुझे होशियार करे देता हूं और कहे देता हूं कि तू वास्तव में मायारानी की सखी मनोरमा के फन्दे में फंसी हुई है! यह तेरी मां बनकर तुझे फंसा लाई है और राजा गोपालसिंह के दारोगा की इच्छानुसार अपना काम निकालने के बाद तुझे मार डालेगी। मुझे जो कुछ कहना था कह दिया, अब जैसा तू उचित समझ कर। तुझे धर्म की शपथ है, इस पुर्जे को पढ़कर तुरन्त फाड़ दे।”

मैंने उस पुर्जे को पढ़ने के बाद उसी समय टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया और घबड़ाकर चारों तरफ देखने अर्थात् उस आदमी को ढूंढ़ने लगी जिसने वह पत्थर का टुकड़ा फेंका था, मगर कुछ पता न लगा और न कोई मुझे दिखाई ही पड़ा।

उस पुर्जे के पढ़ने से जो कुछ मेरी हालत हुई मैं बयान नहीं कर सकती। उस समय मैं मनोरमा के विषय में ज्यों-ज्यों पिछली बातों पर ध्यान देने लगी त्यों-त्यों मुझे निश्चय होता गया कि यह वास्तव में मनोरमा है मेरी मां नहीं और अब अपने किये पर पछताने और अफसोस करने लगी कि क्यों उस खोह के बाहर पैर रक्खा और आफत में फंसी!

उसी समय से मेरे रहन-सहन का ढंग भी बदल गया और मैं दूसरी ही फिक्र में पड़ गई। सबसे ज्यादे फिक्र मुझे उसी आदमी के पता लगाने की हुई जिसने वह पुर्जा मेरी तरफ फेंका था। मैं उसी समय वहां से हटकर मकान में चली गई, इस खयाल से कि जिस आदमी ने मेरी तरफ वह पुर्जा फेंका था और उसे फाड़ डालने के लिए कसम दी थी वह जरूर मनोरमा से डरता होगा और यह जानने के लिए कि मैंने पुर्जा फाड़कर फेंक दिया या नहीं, उस जगह जरूर जायगा जहां (बाग में) टहलते समय मुझे पुर्जा मिला था।

जब मैं छत पर चढ़कर और छिपकर उस तरफ देखने लगी जहां मुझे वह पुर्जा मिला था तो एक आदमी को धीरे-धीरे टहलकर उस तरफ जाते देखा। जब वह उस ठिकाने पर पहुंच गया तब उसने इधर-उधर देखा और सन्नाटा पाकर पुर्जे के उन टुकड़ों को चुन लिया जो मैंने फेंके थे और उन्हें कमर में छिपाकर उसी तरह धीरे-धीरे टहलता हुआ उस मकान की तरफ चला आया जिसकी छत पर से मैं यह सब तमाशा देख रही थी। जब वह मकान के पास पहुंचा तब मैंने उसे पहिचान लिया। मनोरमा से बातचीत करते समय मैं कई दफे उसका नाम 'नानू' सुन चुकी थी।

इन्दिरा अपना किस्सा यहां तक बयान कर चुकी थी कि कमलिनी ने चौंककर इन्दिरा से पूछा, “क्या नाम लिया, नानू?'

इन्दिरा - हां, उसका नाम नानू था।

कमलिनी - वह तो इस लायक नहीं था कि तेरे साथ ऐसी नेकी करता और तुझे आने वाली आफत से होशियार कर देता। वह बड़ा ही शैतान और पाजी आदमी था, ताज्जुब नहीं कि किसी दूसरे ने तेरे पास वह पुर्जा फेंका और नानू ने देख लिया हो और उसके साथ दुश्मनी की नीयत से उन टुकड़ों को बटोरा हो।

इन्दिरा - (बात काटकर) बेशक ऐसा ही है, इस बारे में मुझे धोखा हुआ जिसके सबब से मेरी तकलीफ बढ़ गई, जैसा कि मैं आगे चलकर बयान करूंगी।

कमलिनी - ठीक है, मैं उस कम्बख्त नानू को खूब जानती हूं। जब मैं मायारानी के यहां रहती थी तब वह मायारानी और मनोरमा की नाक का बाल हो रहा था और उनकी खैरखाही के पीछे प्राण दिए देता था, मगर अन्त में न मालूम क्या सबब हुआ कि मनोरमा या नागर ही ने उसे फांसी देकर मार डाला। इसका सबब मुझे आज तक मालूम न हुआ और न मालूम होने की आशा ही है क्योंकि उन लोगों में से इसका सबब कोई भी न बतावेगा। मैं भी उसके हाथ से बहुत तकलीफ उठा चुकी हूं जिसका बदला तो मैं ले न सकी मगर उसकी लाश पर थूकने का मौका मुझे जरूर मिल गया। (लक्ष्मीदेवी की तरफ देखके) जब मैंने भूतनाथ के कागजात लेने के लिए मनोरमा के मकान पर जाकर नागर को धोखा दिया था तब मैंने अपनी कोठरी के बगल वाली कोठरी में इसी की लटकती हुई लाश पर थूका था। उसी कोठरी में मैंने अफसोस के साथ 'बरदेबू' को भी मुर्दा पाया था, उसके मरने का सबब भी मुझे न मालूम हुआ और न होगा। वास्तव में 'बरदेबू' बड़ा ही नेक आदमी था और उसने मेरे साथ बड़ी नेकियां की थीं। मुझे यह खबर उसी ने दी थी कि 'अब मायारानी तुम्हें मार डालने का बन्दोबस्त कर रही है।' वह उन दिनों खास बाग के मालियों को दारोगा था।

इन्दिरा - बेशक बरदेबू बड़ा नेक आदमी था, असल में वह पुर्जा उसी ने मेरी तरफ फेंका था और कम्बख्त नानू ने देख लिया था, मगर मैं धोखा खा गई। मेरी समझ में आया कि वह पुर्जा नानू का फेंका हुआ है और उन टुकड़ों को इस खयाल से उसने चुन लिया है कि कोई देखने न पावे या किसी दुश्मन के हाथ में पड़कर मेरा...।

कमलिनी - अच्छा फिर आगे क्या हुआ सो कहो।

इन्दिरा - जब मैंने यह समझ लिया कि यह नेकी नानू ने ही मेरे साथ की है और वह टहलता हुआ मकान के पास आ गया तो मैं छत पर से उतरकर पुनः बाग में आई और टहलती हुई उसके पास पहुंची।

मैं - (नानू से) आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है जो मुझे आने वाली आफत से होशियार कर दिया। मैं अभी तक मनोरमा को अपनी मां ही समझ रही थी।

नानू - ठीक है मगर तुम्हें मुझसे ज्यादा बातचीत न करनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि लोगों को मुझ पर शक हो जाय।

मैं - इस समय यहां कोई भी नहीं है इसलिए मैं यह प्रार्थना करने आई हूं कि जिस तरह आपने मुझ पर इतनी कृपा की है उसी तरह मेरे निकल भागने में भी मदद देकर अनन्त पुण्य के भागी हों।

नानू - अच्छा मैं इस काम में भी तुम्हारी मदद करूंगा मगर तुम भागने में जल्दी न करना नहीं तो सब काम चौपट हो जायगा क्योंकि यहां के सभी आदमी तुम पर गहरी हिफाजत की निगाह रखते हैं और 'बरदेबू' तो तुम्हारा पूरा दुश्मन है, उससे कभी बातचीत न करना, वह बड़ा ही धोखेबाज ऐयार है। बरदेबू को जानती हो न?

मैं - हां, मैं बरदेबू को जानती हूं।

नानू - बस तो तुम यहां से चली जाओ, मैं फिर किसी समय किसी बहाने से तुम्हारे पास आऊंगा तब बातें करूंगा।

मैं खुशी-खुशी वहां से हटी और बाग के दूसरे हिस्से में जाकर टहलने लगी जहां से पहरे वाले बखूबी देख सकते थे।

जैसे - जैसे अंधकार बढ़ता जाता था मुझ पर हिफाजत की निगाह भी बढ़ती जाती थी, यहां तक कि आधी घड़ी रात जाने पर लौंडियों और खिदमतगारों ने मुझे मकान के अन्दर जाने पर मजबूर किया और मैं भी लाचार होकर अपने कमरे में आ बिस्तर पर लेट गई। सभों ने खाने-पीने के लिए कहा मगर इस समय मुझे खाना-पीना कहां सूझता था, अस्तु बहाना करके टाल दिया और लेटे-लेटे सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए।

मैं समझे हुए थी कि नानू मेरे पास आकर मुझे यहां से निकल जाने के विषय में राय देगा जैसा कि वह वादा कर चुका था, मगर मेरा खयाल गलत था। आधी रात तक इन्तजार करने पर भी वह मेरे पास न आया। इसके अतिरिक्त रोज मेरी हिफाजत के लिए रात को दो लौंडियां मेरे कमरे में रहती थीं मगर आज चार लौंडियों को रोज से ज्यादे मुस्तैदी के साथ पहरा देते देखा। उस समय मुझे खुटका हुआ, मैं सोचने लगी कि निःसंदेह इन लोगों को मेरे बारे में कुछ संदेह हो गया है। मैं नींद न पड़ने और सिर में दर्द होने से बेचैनी दिखाकर उठी और कमरे में टहलने लगी, यहां तक कि दरवाजे के बाहर निकलकर सहन में पहुंची और तब देखा कि आज तो बाहर भी पहरे का इंतजाम बहुत सख्त हो रहा है। मैंने प्रकट में किसी तरह का आश्चर्य नहीं किया और पुनः अपने बिस्तरे पर आकर लेट रही और तरह-तरह की बातें सोचने लगी। उसी समय मुझे निश्चय हो गया कि उस पुर्जे को फेंकने वाला नानू नहीं कोई दूसरा है, अगर नानू होता तो इस बात की खबर फैल न जाती क्योंकि उन टुकड़ों को तो नानू ने मेरे सामने ही बटोर लिया था। अफसोस मैंने बहुत बुरा किया, अगर वे थोड़े-से शब्द मैं न कहती तो नानू सहज में ही उन टुकड़ों से कोई मतलब नहीं निकाल सकता था, मगर अब तो असल भेद खुल गया और मेरे पैरों में दोहरी जंजीर पड़ गई, अस्तु अब क्या करना चाहिए!

रात भर मुझे नींद न आई और सुबह को जैसे ही मैं बिछावन पर से उठी तो सुना कि मनोरमा आ गई है। कमरे के बाहर निकलकर सहन में गई जहां मनोरमा एक कुर्सी पर बैठी नानू से बात कर रही थी। दो लौंडियां उसके पीछे खड़ी थीं और उसके बगल में दो-तीन खाली कुर्सियां भी पड़ी हुई थीं। मनोरमा ने अपने पास एक कुर्सी खेंचकर मुझे बड़े प्यार से उस पर बैठने के लिए कहा और जब मैं बैठ गई तो बातें होने लगीं!

मनोरमा - (मुझसे) बेटी, तू जानती है कि यह (नानू की तरफ बताकर) आदमी हमारा कितना बड़ा खैरखाह है!

मैं - मां, शायद यह तुम्हारा खैरखाह होगा मगर मेरा तो पूरा दुश्मन है।

मनोरमा - (चौंककर) क्यों-क्यों, सो क्यों?

मैं - सैकड़ों मुसीबतें झेलकर तो मैं तुम्हारे पास पहुंची और तुमने भी मुझे अपनी लड़की बनाकर मेरे साथ जो सलूक किया वह प्रायः यहां के रहने वाले सभी कोई जानते होंगे। मगर यह नानू नहीं चाहता कि मैं अब भी किसी तरह सुख की नींद सो सकूं। कल शाम को जब मैं बाग में टहल रही थी तो यह मेरे पास आया और एक पुर्जा मेरे हाथ में देकर बोला कि 'इसे पढ़ और होशियार हो जा, मगर खबरदार, मेरा नाम न लीजियो।'

नानू - (मेरी बात काटकर क्रोध से) क्यों मुझ पर तूफान बांध रही हो! क्या यह बात मैंने तुमसे कही थी!

मैं - (रंग बदलकर) बेशक तूने पुर्जा देकर यह बात कही थी और मुझे भाग जाने के लिए भी ताकीद की! आंखें क्यों दिखाता है! जो बातें तूने...?

मनो - (बात काटकर) अच्छा-अच्छा तू क्रोध मत कर जो कुछ होगा मैं समझ लूंगी, तू जो कहती थी उसे पूरा कर। (नानू से) बस चुपचाप बैठे रहो, जब यह अपनी बात पूरी कर ले तब जो कुछ कहना हो कहना।

मैं - मैंने उस पुर्जे को खोलकर पढ़ा तो उसमें यह लिखा हुआ पाया - “जिसे तू अपनी मां समझती है वह मनोरमा है, तुझे अपना काम निकालने के लिए यहां ले आई है, काम निकल जाने पर तुझे जान से मार डालेगी, अस्तु जहां तक जल्द हो सके निकल भागने की फिक्र कर।” इत्यादि और भी कई बातें उसमें लिखी हुई थीं, जिन्हें पढ़कर मैं चौंकी और बात बनाने के तौर पर नानू से बोली, “आपने बड़ी मेहरबानी की जो मुझे होशियार कर दिया, अब भागने में भी आप ही मेरी मदद करेंगे तो जान बचेगी।” इसके जवाब में इसने खुश होकर कहा कि 'तुम्हें मुझसे ज्यादे बातचीत न करनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि लोगों को मुझ पर शक हो जाय। मैं भागने में भी तुम्हारी मदद करूंगा मगर इस बात को बहुत छिपाये रखना क्योंकि यहां बरदेबू नाम का आदमी तुम्हारा दुश्मन है।' इत्यादि –।

नानू - (बात काटकर) हां बेशक यह बात मैंने तुमसे जरूर कही थी कि...।

मैं - धीरे-धीरे तुम सभी बात कबूल करोगे, मगर ताज्जुब यह है कि मना करने पर भी तुम टोके बिना नहीं रहते।

मनोरमा - (क्रोध से) क्या तुम चुप न रहोगे?

इसका जवाब नानू ने कुछ न दिया और चुप हो रहा। इसके बाद मनोरमा की इच्छानुसार मैंने यों कहना शुरू किया –

मैं - मैंने उस पुर्जे को पढ़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला और फेंक दिया। इसके बाद नानू भी चला गया और मैं भी यहां आकर छत के ऊपर चढ़ गई और छिपकर उसी तरफ देखने लगी जहां उस पुर्जे को फाड़कर फेंक आई थी। थोड़ी देर बाद पुनः इस (नानू) को उसी जगह पहुंचकर कागज के उन टुकड़ों को चुनते और बटोरते देखा। जब यह उन टुकड़ों को बटोरकर कमर में रख चुका और इस मकान की तरफ आया तो मैं भी तुरत छत पर से उतरकर इसके पास चली आई और बोली, “कहिए, अब मुझे कब यहां से बाहर कीजिएगा' इसके जवाब में इसने कहा कि 'मैं रात को एकान्त में तुम्हारे पास आऊंगा तो बातें करूंगा।' इतना कहकर यह चला गया और पुनः मैं बाग में टहलने लगी। जब अन्धकार हुआ तो मैं घूमती हुई (हाथ का इशारा करके) उस झाड़ी की तरफ से निकली और किसी के बात की आहट पा पैर दबाती हुई आगे बढ़ी, यहां तक कि थोड़ी ही दूर पर दो आदमियों के बात करने की आवाज साफ-साफ सुनाई देने लगी। मैंने आवाज से नानू को तो पहिचान लिया मगर दूसरे को पहिचान न सकी कि वह कौन था, हां पीछे मालूम हुआ कि वह बरदेबू था।

मनो - अच्छा खैर यह बता कि इन दोनों में क्या बातें हो रही थीं?

मैं - सब बातें तो मैं सुन न सकी, हां जो कुछ सुनने और समझने में आया सो कहती हूं। इस नानू ने दूसरे से कहा कि 'नहीं, नहीं, अब मैं अपना इरादा पक्का कर चुका हूं और उस छोकरी को भी मेरी बातों पर पूरा विश्वास हो चुका है, निःसंदेह उसे ले जाकर मैं बहुत रुपये उसके बदले में पा सकूंगा, अगर तुम इस काम में मेरी मदद करोगे तो मैं उसमें से आधी रकम तुम्हें दूंगा,' इसके जवाब में दूसरे ने कहा कि 'देखो नानू, यह काम तुम्हारे योग्य नहीं है, मालिक के साथ दगा करने वाला कभी सुख नहीं भोग सकता, बेहतर है कि तुम मेरी बात मान जाओ नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा और मैं तुम्हारा दुश्मन बन जाऊंगा।' यह जवाब सुनते ही नानू क्रोध में आकर उसे बुरा-भला कहने और धमकाने लगा। उसी समय इसके सम्बोधन करने पर मुझे मालूम हुआ कि उस दूसरे का नाम बरदेबू है। खैर, जब मैंने जाना कि अब ये दोनों अलग होते हैं तो मैं चुपके से चल पड़ी और अपने कमरे में लेट रही। थोड़ी ही देर में यह मेरे पास पहुंचा और बोला, 'बस अब जल्दी से उठ खड़ी हो और मेरे पीछे चली आओ क्योंकि अब वह मौका आ गया कि मैं तुम्हें इस आफत से बचाकर बाहर निकाल दूं।' इसके जवाब में मैंने कहा कि 'बस रहने दीजिए। आपकी सब कलई खुल गई, मैं आपकी और बरदेबू की बातें छिपकर सुन चुकी हूं, मां को आने दीजिए तो मैं आपकी खबर लेती हूं।' इतना सुनते ही यह लाल-पीला होकर बोला कि 'खैर देख लेना कि मैं तेरी खबर लेता हूं या तू मेरी खबर लेती है।' बस यह कहके चला गया और थोड़ी देर में मैंने अपने को सख्त पहरे में पाया।

मनो - ठीक है अब मुझे असल बातों का पता लग गया।

नानू - (क्रोध के साथ) ऐसी तेज और धूर्त लड़की तो आज तक मैंने देखी ही नहीं! मेरे सामने ही मुझे झूठा और दोषी बना रही है और अपने सहायक बरदेबू को निर्दोष बनाया चाहती है!

इतना कहकर इन्दिरा कुछ देर के लिए रुक गई और थोड़ा-सा जल पीने के बाद बोली –

“जो कुछ मैंने कहा उस पर मनोरमा को विश्वास हो गया।”

इन्द्रजीत - विश्वास होना ही चाहिए, इसमें कोई शक नहीं कि तूने जो कुछ मनोरमा से कहा उसका एक-एक अक्षर चालाकी और होशियारी से भरा हुआ था।

कमला - निःसन्देह, अच्छा तब क्या हुआ?

इन्दिरा - नानू ने मुझे झूठा बनाने के लिए बहुत जोर मारा मगर कुछ कर न सका क्योंकि मनोरमा के दिल पर मेरी बातों का पूरा असर पड़ चुका था। उस पुर्जे के टुकड़ों ने उसी को दोषी ठहराया जो उसने बरदेबू को दोषी ठहराने के लिए चुन रक्खे थे, क्योंकि बरदेबू ने यह पुर्जा अक्षर बिगाड़कर ऐसे ढंग से लिखा था कि उसके कलम का लिखा हुआ कोई कह नहीं सकता था। मनोरमा ने इशारे से मुझे हट जाने के लिए कहा और मैं उठकर कमरे के अन्दर चली गई। थोड़ी देर के बाद जब मैं उसके बुलाने पर पुनः बाहर गई तो वहां मनोरमा को अकेले बैठे हुए पाया। इसके पास वाली कुर्सी पर बैठकर मैंने पूछा कि 'मां, नानू कहां गया इसके जवाब में मनोरमा ने कहा कि 'बेटी, नानू को मैंने कैदखाने में भेज दिया। ये लोग उस कम्बख्त दारोगा के साथी और बड़े ही शैतान हैं इसलिए किसी-न-किसी तरह इन लोगों को दोषी ठहराकर जहन्नम में मिला देना ही उचित है। अब मैं उस दारोगा से बदला लेने की धुन में लगी हुई हूं, इसी काम के लिए मैं बाहर गयी थी और इस समय पुनः जाने के लिए तैयार हूं केवल तुझे देखने के लिए चली आयी थी, तू बेफिक्री के साथ यहां रह। आशा है कि कल शाम तक मैं अवश्य लौट आऊंगी। जब तक मैं उस कम्बख्त से बदला न ले लूं और तेरे बाप को कैद से छुड़ा न लूं तब तक एक घड़ी के लिए भी अपना समय नष्ट करना नहीं चाहती। बरदेबू को अच्छी तरह समझा जाऊंगी, वह तुझे किसी तरह की तकलीफ न होने देगा।'

इन बातों को सुनकर मैं बहुत खुश हुई और सोचने लगी कि यह कम्बख्त जहां तक शीघ्र चली जाय उत्तम है क्योंकि मुझे हर तरह से निश्चय हो चुका था कि यह मेरी मां नहीं है और यहां से यकायक निकल जाना भी कठिन है। साथ ही इसके मेरा दिल कह रहा था कि मेरा बाप कैद नहीं हुआ, यह सब मनोरमा की बनावट है जो मेरे बाप का कैद होना बता रही है।

मनोरमा चली गई मगर उसने शायद मुझको यह न बताया कि नानू के साथ क्या सलूक किया या अब वह कहां है। फिर भी मनोरमा के चले जाने के बाद मैंने नानू को न देखा और न किसी लौंडी या नौकर ही ने उसके बारे में कभी कुछ कहा।

अबकी दफे मनोरमा के चले जाने के बाद मुझ पर उतना सख्त पहरा नहीं रहा जितना नानू ने बढ़ा दिया था मगर वहां का कोई आदमी मेरी तरफ से गाफिल भी न था।

उसी दिन आधी रात के समय जब मैं कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई नींद न आने के कारण तरह - तरह के मनसूबे बांध रही थी यकायक बरदेबू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, “शाबाश तूने बड़ी चालाकी से मुझे बचा लिया और ऐसी बात गढ़ी कि मनोरमा को नानू पर ही पूरा शक हो गया और मैं इस आफत से बच गया। नहीं तो नानू ने मुझे पूरी तरह फांस लिया था, क्योंकि वह पुर्जा वास्तव में मेरा ही लिखा हुआ था। मैं तुझसे बहुत खुश हूं और तुझे इस योग्य समझता हूं कि तेरी सहायता करूं।”

मैं - आपको मेरी बातों का हाल क्योंकर मालूम हुआ?

बरदेबू - एक लौंडी की जुबानी मालूम हुआ जो उस समय मनोरमा के पास खड़ी थी।

मैं - ठीक है, मुझे विश्वास होता है कि आप मेरी सहायता करेंगे और किसी तरह इस आफत से बाहर कर देंगे क्योंकि मनोरमा के न रहने से अब मौका भी बहुत अच्छा है।

बरदेबू - बेशक मैं तुझे आफत से छुड़ाऊंगा मगर आज ऐसा करने का मौका नहीं है, मनोरमा की मौजूदगी में यह काम अच्छी तरह हो जायेगा और मुझ पर किसी तरह का शक भी न होगा क्योंकि जाते समय मनोरमा मुझे तेरी हिफाजत में छोड़ गई है। इस समय मैं केवल इसलिए आया हूं कि तुझे हर तरह की बातें समझा-बुझाकर यहां से निकल भागने की तर्कीब बता दूं और साथ ही इसके यह भी कह दूं कि तेरी मां दारोगा की बदौलत जमानिया में तिलिस्म के अन्दर कैद है और इस बात की खबर गोपालसिंह को नहीं है। मगर मैं उनसे मिलने की तर्कीब तुझे अच्छी तरह बता दूंगा।

बरदेबू घंटे भर तक मेरे पास बैठा रहा और उसने वहां की बहुत-सी बातें मुझे समझाईं और निकल भागने के लिए जो कुछ तर्कीब सोची थी वह भी कही जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा-साथ ही इसके बरदेबू ने मुझे यह भी समझा दिया कि मनोरमा की उंगली में एक अंगूठी रहती है जिसका नोकीला नगीना बहुत ही जहरीला है, किसी के बदन में कहीं भी रगड़ देने से बात-की-बात में उसका तेज जहर तमाम बदन में फैल जाता है और तब सिवाय मनोरमा की मदद के वह किसी तरह नहीं बच सकता। वह जहर की दवाइयों को (जिन्हें मनोरमा ही जानती है) घोड़े का पेट चीरकर और उसकी ताजी आंतों में उनको रखकर तैयार करती है...।

इतना सुनते ही कमलिनी ने रोककर कहा, “हां-हां, यह बात मुझे भी मालूम है। जब मैं भूतनाथ के कागजात लेने वहां गई थी तो उसी कोठरी में एक घोड़े की दुर्दशा भी देखी थी जिसमें नानू और बरदेबू की लाश देखी, अच्छा तब क्या हुआ' इसके जवाब में इन्दिरा ने फिर कहना शुरू किया –

बरदेबू मुझे समझा-बुझाकर और बेहोशी की दवा की दो पुड़ियां देकर चला गया और उसी समय से मैं भी मनोरमा के आने का इन्तजार करने लगी। दो दिन तक वह न आई और इस बीच में पुनः दो दफे बरदेबू से बातचीत करने का मौका मिला। और सब बातें तो नहीं मगर यह मैं इसी जगह कह देना उचित समझती हूं कि बरदेबू ने वह दवा की पुड़ियां मुझे क्यों दे दी थीं। उनमें से एक तो बेहोशी की दवा थी और दूसरी होश में लाने की। मनोरमा के यहां एक ब्राह्मणी थी जो उसकी रसोई बनाती थी और उस मकान में रहने तथा पहरा देने वाली ग्यारह लौंडियों को भी उसी रसोई में से खाना मिलता था। इसके अतिरिक्त एक ठकुरानी और थी जो मांस बनाया करती थी। मनोरमा को मांस खाने का शौक था और प्रायः नित्य खाया करती थी। मांस ज्यादे बना करता और जो बच जाता वह सब लौडियों, नौकरों और मालियों को बांट दिया जाता था। कभी-कभी मैं भी रसोई बनाने वाली मिसरानी या ठकुरानी के पास बैठकर उसके काम में सहायता कर दिया करती थी और वह बेहोशी की दवा बरदेबू ने इसलिए दी थी कि समय आने पर खाने की चीजों तथा मांस इत्यादि में जहां तक हो सके मिला दी जाय।

आखिर मुझे अपने काम में सफलता प्राप्त हुई, अर्थात् चौथे-पांचवें दिन संध्या के समय मनोरमा आ पहुंची और मांस के बटुए में बेहाशी की दवा मिला देने का भी मौका मिल गया।

रात के समय जब भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर मनोरमा अपने कमरे में बैठी तो उसने मुझे भी अपने पास बुलाकर बैठा लिया और बातें करने लगी। उस समय सिवाय हम दोनों के वहां और कोई भी न था।

मनोरमा - अबकी दफा का सफर मेरा बहुत अच्छा हुआ और मुझे बहुत-सी बातें नई मालूम हो गईं जिससे तेरे बाप के छुड़ाने में अब किसी तरह की कठिनाई नहीं रही। आशा है कि दो ही तीन दिन में वह कैद से छूट जायंगे और हम लोग भी इस अनूठे भेष को छोड़कर अपने घर जा पहुंचेंगे।

मैं - तुम कहां गई थीं और क्या करके आईं?

मनो - मैं जमानिया गई थी। वहां राजा गोपालसिंह की मायारानी तथा दारोगा से भी मुलाकात की। मायारानी ने वहां अपना पूरा दखल जमा लिया है और वहां की तथा तिलिस्म की बहुत-सी बातें उसे मालूम हो गई हैं। इसलिए अब राजा गोपालसिंह को मार डालने का बन्दोबस्त कर रही है।

मैं - तिलिस्म कैसा?

मनोरमा - (ताज्जुब के साथ) क्या तू नहीं जानती कि जमानिया का खास बाग एक बड़ा भारी तिलिस्म है?

मैं - नहीं, मुझे तो यह बात नहीं मालूम और तुमने भी कभी मुझे कुछ नहीं बताया।

यद्यपि मुझे जमानिया तिलिस्म का हाल मालूम था और इस विषय की बहुत-सी बातें अपनी मां से सुन चुकी थी मगर इस समय मनोरमा से यही कह दिया कि 'नहीं, यह बात भी मालूम नहीं है और तुमने भी इस विषय में कभी कुछ नहीं कहा।' इसके जवाब में मनोरमा ने कहा, “हां ठीक है, मैंने नादान समझकर वे बातें नहीं कही थीं।”

मैं - अच्छा यह तो बताओ कि मायारानी को थोड़े ही दिनों में वहां का सब हाल कैसे मालूम हो गया?

मनोरमा - ये सब बातें मुझे मालूम न थीं मगर दारोगा ने मुझको असली मनोरमा समझकर बता दिया अस्तु जो कुछ उसकी जुबानी सुनने में आया है सो तुझे कहती हूं, मायारानी को वहां का हाल यकायक थोड़े ही दिनों में मालूम न हो जाता और दारोगा भी इतनी जल्दी उसे होशियार न कर देता मगर उसके (मायारानी के) बाप ने उसे हर तरह से होशियार कर दिया है क्योंकि उसके बड़े लोग दीवान के तौर पर कहीं की हुकूमत कर चुके हैं और इसीलिए उसके बाप को भी न मालूम किस तरह पर वहां की बहुत-सी बातें मालूम हैं।

मैं - खैर इन सब बातों से मुझे कोई मतलब नहीं। यह बताओ कि मेरे पिता कहां हैं और उन्हें छुड़ाने के लिए तुमने क्या बन्दोबस्त किया वह छूट जायं तो राजा गोपालसिंह को मायारानी के फंदे से बचा लें। हम लोगों के किये इस बारे में कुछ न हो सकेगा।

मनोरमा - उन्हें छुड़ाने के लिए भी मैं सब बन्दोबस्त कर चुकी हूं, देर बस इतनी ही है कि तू एक चिट्ठी गोपालसिंह के नाम की उसी मजमून की लिख दे जिस मजमून की लिखने के लिए दारोगा तुझे कहता था। अफसोस इसी बात का है कि दारोगा को तेरा हाल मालूम हो गया है। वह तो मुझे नहीं पहचान सका मगर इतना कहता था कि 'इन्दिरा को तूने अपनी लड़की बनाकर घर में रख लिया है, सो खैर तेरे मुलाहिजे में मैं उसे छोड़ देता हूं मगर उसके हाथ से इस मजमून की चिट्ठी लिखकर जरूर भेजना होगा।' (कुछ रुककर) न मालूम क्यों मेरा सिर घूमता है।

मैं - खाने को ज्यादा खा गई होगी।

मनोरमा - नहीं मगर...।

इतना कहते-कहते मनोरमा ने गौर की निगाह से मुझे देखा और मैं अपने को बचाने की नीयत से उठ खड़ी हुई। उसने यह देख मुझे पकड़ने की नीयत से उठना चाहा मगर उठ न सकी और उस बेहोशी की दवा का पूरा-पूरा असर उस पर हो गया अर्थात् वह बेहोश होकर गिर पड़ी। उस समय मैं उसके पास से चली आई और कमरे के बाहर निकली, चारों तरफ देखने से मालूम हुआ कि सब लौंडी, नौकर, मिसरानी और माली वगैरह जहां-तहां बेहोश पड़े हैं, किसी को तनोबदन की सुध नहीं है। मैं एक जानी हुई जगह से मजबूत रस्सी लेकर पुनः मनोरमा के पास पहुंची और उसी से खूब जकड़कर दूसरी पुड़िया सुंघा उसे होश में लाई। चैतन्य होने पर उसने हाथ में खंजर लिए मुझे अपने सामने खड़े पाया। वह उसी का खंजर था जो मैंने ले लिया था।

मनोरमा - हैं यह क्या तूने मेरी ऐसी दुर्दशा क्यों कर रक्खी है?

मैं - इसलिए कि तू वास्तव में मेरी मां नहीं है और मुझे धोखा देकर यहां ले आई है।

मनोरमा - यह तुझे किसने कहा?

मैं - तेरी बातों और करतूतों ने।

मनोरमा - नहीं-नहीं, यह सब तेरा भ्रम है।

मैं - अगर यह सब मेरा भ्रम है और तू वास्तव में मेरी मां है तो बता मेरे नाना ने अपने अन्तिम समय में क्या कहा था?

मनोरमा - (कुछ सोचकर) मेरे पास आ तो बताऊं।

मैं - तेरे पास आ सकती हूं मगर इतना समझ ले कि अब वह जहरीली अंगूठी तेरी उंगली में नहीं है।

इतना सुनते ही वह चौंक पड़ी। उसके बाद और भी खूब-सूब बातें उससे हुईं जिससे निश्चय हो गया कि मेरी ही करनी से वह बेहोश हुई थी और अब मैं उसके फेर में नहीं पड़ सकती। मैं उसे निःसन्देह जान से मार डालती मगर बरदेबू ने ऐसा करने से मुझे मना कर दिया था। वह कह चुका था कि...”मैं तुझे इस कैद से छुड़ा तो देता हूं मगर मनोरमा की जान पर किसी तरह की आफत नहीं ला सकता क्योंकि उसका नकम खा चुका हूं।”

यही सबब था कि उस समय मैंने उसे केवल बातों की ही धमकी देकर छोड़ दिया। बची हुई बेहोशी की दवा जबर्दस्ती उसे सुंघाकर बेहोश करने के बाद मैं कमरे के बाहर निकली और बाग में चली आई जहां प्रतिज्ञानुसार बरदेबू खड़ा मेरी राह देख रहा था। उसने मेरे लिए एक खंजर और ऐयारी का बटुआ भी तैयार कर रखा था जो मुझे देकर उसके अन्दर की सब चीजों के बारे में अच्छी तरह समझा दिया और इसके बाद जिधर मालियों के रहने का मकान था उधर ले गया। माली सब तो बेहोश थे ही अस्तु कमन्द के सहारे मुझे बाग की दीवार के बाहर कर दिया और फिर मुझे मालूम न हुआ कि बरदेबू ने क्या कार्रवाइयां कीं और उस पर तथा मनोरमा इत्यादि पर क्या बीती।

मनोरमा के घर से बाहर निकलते ही मैं सीधे जमानिया की तरफ भागी क्योंकि एक तो अपनी मां को छुड़ाने की फिक्र लगी हुई थी जिसके लिए बरदेबू ने कुछ रास्ता भी बता दिया था, मगर इसके इलावे मेरी किस्मत में भी यही लिखा था कि बनिस्बत घर जाने के जमानिया को जाना पसन्द करूं और वहां अपनी मां की तरह खुद भी फंस जाऊं। अगर मैं घर जाकर अपने पिता से मिलती और यह सब हाल कहती तो दुश्मनों का सत्यानाश भी होता और मेरी मां भी छूट जाती मगर सो न तो मुझको सूझा और न हुआ। इस सम्बन्ध में उस समय मुझको घड़ी-घड़ी इस बात का भी खयाल होता था, मनोरमा मेरा पीछा जरूर करेगी। अगर मैं घर की तरफ जाऊंगी तो निःसन्देह गिरफ्तार हो जाऊंगी।

खैर, मुख्तसर यह है कि बरदेबू के बताए हुए रास्ते से मैं इस तिलिस्म के अन्दर आ पहुंची। आप तो यहां की सब बात का भेद जान ही गए होंगे इसलिए विस्तार के साथ कहने की कोई जरूरत नहीं, केवल इतना ही कहना काफी होगा कि गंगा किनारे एक श्मशान पर जो महादेव का लिंग एक चबूतरे के ऊपर है वही रास्ता आने के लिए बरदेबू ने मुझे बताया था।

इन्दिरा ने अपना हाल यहां तक बयान किया था कि कमलिनी ने रोका और कहा, “हां-हां, उस रास्ते का हाल मुझे मालूम है, (कुमार से) जिस रास्ते से मैं आप लोगों को निकालकर तिलिस्म के बाहर ले गई थी!”

इन्द्रजीत - ठीक है (इन्दिरा से) अच्छा तब क्या हुआ?

इन्दिरा - मैं इस तिलिस्म के अन्दर आ पहुंची और घूमती-घूमती उसी कमरे में पहुंच गई जिसमें आपने उस दिन मुझे, मेरे पिता और राजा गोपालसिंह को देखा था, जिस दिन आप उस बाग में पहुंचे थे जिसमें मेरी मां कैद थी।

इन्द्रजीत - अच्छा ठीक है, तो उसी खिड़की में से तूने भी अपनी मां को देखा होगा?

इन्दिरा - जी हां, दूर ही से उसने मुझे देखा और मैंने उसे देखा मगर उसके पास न पहुंच सकी। उस समय हम दोनों की क्या अवस्था होगी इसे आप स्वयं समझ सकते हैं। मुझमें कहने की सामर्थ्य नहीं है। (एक लम्बी सांस लेकर) कई दिनों तक व्यर्थ उद्योग करने पर भी जब मुझे निश्चय हो गया कि मैं किसी तरह उसके पास नहीं पहुंच सकती और न उसके छुड़ाने का कुछ बन्दोबस्त ही कर सकती हूं तब मैंने चाहा कि अपने पिता को इन सब बातों की इत्तिला दूं। मगर अफसोस, यह काम मेरे किए न हो सका। मैं किसी तरह इस तिलिस्म के बाहर न जा सकी और मुद्दत तक यहां रहकर ग्रहदशा के दिन काटती रही।

इन्द्रजीत - अच्छा यह बता कि राजा गोपालसिंह वाली तिलिस्मी किताब तुझे क्योंकर मिली?

इन्दिरा - यह हाल भी मैं आपसे कहती हूं।

इतना कहकर इन्दिरा थोड़ी देर के लिए चुप हो गयी और उसके बाद फिर अपना किस्सा शुरू किया ही चाहती थी कि कमरे का दरवाजा जो कुछ घूमा हुआ था यकायक जोर से खुला और राजा गोपालसिंह आते हुए दिखाई पड़े।

चंद्रकांता संतति

देवकीनन्दन खत्री
Chapters
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चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 16 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 17 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 2 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चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 4 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