चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 10
रात अनुमान दो पहर के जा चुकी है। खास बाग के दूसरे दर्जे में दीवानखाने की छत पर कुबेरसिंह, भीमसेन और उसके चारों ऐयार तथा माधवी के साथ बैठी हुई मायारानी बड़ी प्रसन्नता से बातें कर रही है। चांदनी खूब छिटकी हुई है और बाग की हर एक चीज जहां तक निगाह बिना ठोकर खाये जा सकती है साफ दिखाई दे रही है, बातचीत का विषय अब यह था कि 'राजा गोपालसिंह से तो छुट्टी मिल गई, अब राज्य तथा राजकर्मचारियों के लिए क्या प्रबन्ध करना चाहिए
जिस छत पर ये लोग बैठे हुए थे उसके दाहिनी तरफ वाली पट्टी में भी एक सुन्दर इमारत और उसके पीछे ऊंची दीवार के बाद तिलिस्मी बाग का तीसरा दर्जा पड़ता था। इस समय मायारानी का मुंह ठीक उसी इमारात और दीवार की तरफ था। और उस तरफ की चांदनी दरवाजों के अन्दर घुसकर बड़ी बहार दिखा रही थी। बात करते-करते मायारानी चौंकी और उस तरफ हाथ का इशारा करके बोली - “हैं! उस छत पर कौन जा पहुंचा है'
माधवी - हां एक आदमी हाथ में नंगी तलवार लेकर टहल रहा है।
भीम - चेहरे पर नकाब डाले हुए है।
कुबेर - हमारे फौजी सिपाहियों में से शायद कोई ऊपर चला गया होगा, मगर उन्हें बिना हुक्म ऐसा करना नहीं चाहिए!
माया - नहीं-नहीं, उस मकान में सिवा मेरे और कोई नहीं जा सकता।
माधवी - तो फिर वहां गया कौन?
माया - यही तो ताज्जुब है! देखिए एक और भी आ पहुंचा, यह तीसरा भी आया, मामला क्या है?
अजायब - कहीं राजा गोपालसिंह कुएं में घुसकर वहां न जा पहुंचे हों! मगर वे तो केवल दो ही आदमी थे!!
माया - और ये तीन हैं! (कुछ रुककर) लीजिए अब पांच हो गये!
मायारानी और उसके संगी-साथियों के देखते-देखते उस छत पर पचीस आदमी हो गये। उन सभों ही के हाथों में नंगी तलवारें थीं। जिस छत पर वे सब थे वहां पर से ऊपर मायारानी के पास तक जाने में यद्यपि कई तरह की रुकावटें थीं मगर ऐयारों के लिए यह कोई मुश्किल बात न थी इसीलिए मायारानी के पक्ष वालों को भय हुआ और उन्होंने चाहा कि अपने फौजी आदमियों में से कुछ को ऊपर बुला लें और ऐसा करने के लिए अजायबसिंह को कहा गया।
अजायबसिंह फौजी सिपाहियों को लाने के लिए चला गया मगर मकान के नीचे न जा सका और तुरंत लौट आकर बोला, “जाने का हर दरवाजा बन्द है, कोई तर्कीब मायारानी करें तो शायद वहां पहुंचने की नौबत आवे!”
अजायबसिंह की इस बात ने सभों को चौंका दिया और साथ ही इसके सभों को अपनी-अपनी जान की फिक्र पड़ गई। मायारानी के दिलाये हुए भरोसे से जो कुछ उम्मीद की जड़ इन लोगों के दिलों में जमी थी वह हिल गई और अब अपने किए पर पछताने की नौबत आई, मगर मायारानी अब भी बात बनाने से न चूकी, यह कहती हुई अपनी जगह से उठी कि “कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह इस तिलिस्म को तोड़ रहे हैं इसलिए ताज्जुब नहीं कि ये सब बातें कुछ उन्हीं से सम्बन्ध रखती हों।”
मायारानी स्वयं नीचे उतरी मगर जा न सकी और अजायबसिंह की तरह लाचार होकर बैरंग लौट आई। उस समय उसके दिल में भी तरह-तरह के खुटके पैदा हुए और वह ताज्जुब की निगाह से उन लोगों की तरफ देखने लगी जो उसके मुकाबले में एकाएक आकर अब गिनती में पचीस हो गए थे।
थोड़ी देर बाद वे ऊपर से कूदते-फांदते मायारानी की तरफ आते हुए दिखाई दिए। उस समय मायारानी और उसके संगी-साथी सभी उठ खड़े हुए और अपनी-अपनी जान बचाने की नीयत से तलवारें खेंच-खेंच मुस्तैद हो गए।
बात की बात में वे पचीसों आदमी उस छत पर चले आए जिस पर मायारानी थी, मगर मायारानी या उसके साथियों से किसी ने कुछ भी न कहा बल्कि उनकी तरफ आंख उठाकर देखा भी नहीं और मस्तानी चाल से चलते हुए छत के नीचे उतर गए। इन लोगों ने भी यह सोचकर कि वे लोग गिनती में हमसे ज्यादे हैं रोक-टोक न किया मगर इस बात का खयाल जरूर रहा कि नीचे जाने के रास्ते तो सब बन्द हैं खुद मायारानी भी न जा सकी और लौट आई, इन सभों को भी निःसन्देह लौट आना पड़ेगा, मगर थोड़ी देर में यह गुमान जाता रहा जब कि पचीसों नीचे उतरकर बाग के बीच में चलते हुए दिखाई दिए।
माधवी ने समझा कि हमारे फौजी सिपाही उन लोगों को जरूर टोकेंगे और वास्तव में बात ऐसी ही थी। उन पचासों को बाग में देख फौजी सिपाहियों में खलबली मच गई और बहुतों ने उठकर उन लोगों को रोकना चाहा मगर वे लोग देखते ही देखते पेड़ों की झुरमुट में घुसकर ऐसा गायब हुए कि किसी का पता भी न लगा और सब लोग आश्चर्य से देखते रह गए। उस समय माधवी ने मायारानी से कहा, “बहिन, यहां तो मामला बेढब नजर आता है!”
माया - कुछ समझ में नहीं आता कि ये लोग कौन थे, यहां क्यों आये और हम लोगों को बिना रोके-टोके इस तरह क्यों और कहां गायब हो गये!
माधवी - यह तो ठीक ही है मगर मैं पूछती हूं कि आप तिलिस्म की रानी कहलाकर भी इस बाग का हाल क्या जानती हैं मैं तो समझती हूं कि कुछ भी नहीं जानतीं! खास अपने कमरे का मामूली दरवाजा भी आपसे नहीं खुलता और हम लोगों की जान मुफ्त में जाया चाहती है!
भीम - अब आपकी कोई कार्रवाई हम लोगों को भरोसा नहीं दिला सकती।
माया - इस समय मैं मजबूर हो रही हूं इसलिए टेढ़ी-सीधी जो जी में आवे सुनाओ लेकिन अगर इस मकान के नीचे उतरने की नौबत आयेगी तो दिखा दूंगी कि मैं क्या कर सकती हूं।
कुबेर - नीचे जाने की नौबत ही क्यों आवेगी! गैर लोग आवें और चले जायें मगर यहां की रानी होकर तुम कुछ न कर सकीं, यह बड़े शर्म की बात है।
मायारानी इसका जवाब कुछ दिया ही चाहती थी कि सीढ़ी की तरफ से आवाज आई, “तुम लोगों के कलपने पर मुझे दया आती है, अच्छा हम दरवाजा खोल देते हैं, तुम लोग नीचे उतर आओ और अपनी जान बचाओ!” इसके बाद सीढ़ी वाले दरवाजे के खुलने की आवाज आई।
सभों को ताज्जुब हुआ और सीढ़ी की तरफ जाते डर मालूम हुआ मगर यह सोचकर कि यहां पड़े रहने से भी जान बचने की आशा नहीं है सभों ने जी कड़ा करके नीचे उतरने का इरादा किया।
वास्तव में दरवाजे जो बन्द हो गये थे खुले हुए दिखाई दिए और सब कोई जल्दी के साथ नीचे उतर गये। उस समय मायारानी ने एक लम्बी सांस लेकर कहा, “अब कोई चिन्ता नहीं।”
बाकर - मगर यह न मालूम हुआ कि दरवाजा खोलने वाला कौन था?
यारअली - और उसने हम लोगों के साथ वह नेकी का बर्ताव क्यों किया?
इतने ही में ऊपर से आवाज आई, “दरवाजा खोलने वाला मैं हूं।”
सभों ने घबराकर ऊपर की तरफ देखा। एक आदमी मुंह पर नकाब डाले बरामदे में झांकता हुआ दिखाई दिया। कुबेरसिंह ने उससे पूछा, “तुम कौन हो?'
नकाबपोश - मैं इस तिलिस्म का दारोगा हूं।
माया - इस तिलिस्म का दारोगा तो राजा वीरेन्द्रसिंह के कब्जे में है।
नकाब - वह तुम्हारा दारोगा था और मैं राजा गोपालसिंह का दारोगा हूं, आजकल यह बाग मेरे ही कब्जे में है।
माया - जिस समय हम लोग यहां आये तुम कहां थे?
नकाब - इसी बाग में।
माया - फिर हम लोगों को रोका क्यों नहीं?
नकाब - रोकने की जरूरत ही क्या थी यह तो मैं जानता ही था कि तुम लोग अपने पैर में कुल्हाड़ी मार रहे हो। तुम लोगों की बेवकूफी पर मुझे हंसी आती है।
माया - बेवकूफी काहे की?
नकाब - एक तो यही कि तुम लोगों ने इतनी फौज को बाग के अन्दर घुसेड़ तो लिया मगर यह न सोचा कि इतने आदमी यहां आकर खायेंगे क्या अगर घास और पेड़-पत्तों को भी खाकर गुजारा किया चाहें तो भी दो-एक दिन से ज्यादे का काम नहीं चल सकता। क्या तुम लोगों ने समझा था कि बाग में पहुंचते ही राजा गोपालसिंह को मार लेंगे?
माया - गोपालसिंह को हम लोगों ने मार ही लिया, इसमें शक ही क्या है बाकी रही हमारी फौज तो एक दिन का खाना अपने साथ रखती है, कल तो हम लोग इस बाग के बाहर हो ही जायेंगे।
नकाब - दोनों बातें शेखचिल्ली की-सी हैं। न तो राजा गोपालसिंह का तुम लोग कुछ बिगाड़ सकते हो और न इस बाग के बाहर की हवा ही खा सकते हो।
माया - तो क्या गोपालसिंह किसी दूसरी राह से निकल जायेंगे?
नकाब - बेशक।
माया - और हम लोग बाहर न जा सकेंगे?
नकाब - कदापि नहीं क्योंकि मैंने सब दरवाजे अच्छी तरह बन्द कर दिए हैं। तुम तो तिलिस्म की रानी बनने का दावा व्यर्थ ही कर रही हो! तुम्हें तो यहां का हाल रुपये में एक पैसा भी नहीं मालूम है। अभी मैंने तुम लोगों के उतरने की राह रोक दी थी सो तुम्हारे किये कुछ भी न बन पड़ा! जब तुम लोग छत पर थे, पचीस आदमी तुम्हारे सामने से होकर नीचे चले आये, अगर तुम्हें तिलिस्म की रानी होने का दावा था तो उन्हें रोक लेतीं! मगर राजा साहब के हौसले को देखो कि तुम लोगों के यहां आने की खबर पाकर भी अकेले सिर्फ भैरोसिंह को साथ लेकर इस बाग में चले आए!
माया - उन्हें हमारे आने की खबर कैसे मिली?
नकाब - (जोर से हंसकर) इसके जवाब में तो इतना ही कहना काफी है कि तुम्हारी लीला इस बाग में आने के पहिले ही गिरफ्तार कर ली गई।
माधवी - तो क्या हम लोग किसी तरह अब इस बाग के बाहर नहीं जा सकते?
नकाब - जीते तो नहीं जा सकते मगर जब तुम लोग मर जाओगे तब सभों की लाशें जरूर फेंक दी जायेंगी!
जिस मकान से मायारानी उतरी थी उसी के बरामदे में वह नकाबपोश टहल रहा था। बरामदे के आगे किसी तरह की आड़ या रुकावट न थी। माया उससे बातें करती जाती और छिपे ढंग से अपने तिलिस्मी तमंचे को भी दुरुस्त करती जाती थी तथा रात होने के सबब यह बात उस नकाबपोश को मालूम न हुई। जब वह माधवी से बातें करने लगा उस समय मौका पाकर मायारानी ने तिलिस्मी तमंचा उस पर चलाया। गोली उसकी छाती में लगकर फट गई और बेहोशी का धुआं बहुत जल्द उसके दिमाग में चढ़ गया, साथ ही वह आदमी बेहोश होकर जमीन पर लुढ़कता हुआ मायारानी के आगे आ पड़ा। भीमसेन ने झपटकर उसकी नकाब हटा दी और चौंककर बोल उठा, “वाह-वाह! यह तो राजा गोपालसिंह हैं।”