चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 3
प्रेमी पाठक भूले न होंगे कि दो आदमियों ने भूतनाथ से अपना नाम दलीपशाह बतलाया था जिनमें से एक को पहला दलीप और दूसरे को दूसरा दलीप समझना चाहिए।
भूतनाथ तो पहले ही सोच में पड़ गया था कि अपना हाल आगे बयान करे या नहीं, अब दोनों दलीपशाह को देखकर वह और भी घबड़ा गया। ऐयार लोग समझ रहे थे कि अब उसमें बात करने की भी ताकत नहीं रही। उसी समय इंद्रदेव ने भूतनाथ से कहा, “क्यों भूतनाथ, चुप क्यों हो गये कहो, हां तब आगे क्या हुआ?'
इसका जवाब भूतनाथ ने कुछ न दिया और सिर झुकाकर जमीन की तरफ देखने लगा। उस समय पहले दलीपशाह ने हाथ जोड़कर महाराज की तरफ देखा और कहा, “कृपानाथ, भूतनाथ को अपना हाल बयान करने में बड़ा कष्ट हो रहा है, और वास्तव में बात भी ऐसी ही है। कोई भला आदमी अपनी उन बातों को जिन्हें वह ऐब समझता है अपनी जुबान से अच्छी तरह बयान नहीं कर सकता। अस्तु यदि आज्ञा हो तो मैं इसका हाल पूरा-पूरा बयान कर जाऊं क्योंकि मैं भी भूतनाथ का हाल उतना ही जानता हूं जितना स्वयं भूतनाथ। भूतनाथ जहां तक बयान कर चुके हैं उसे मैं बाहर खड़ा-खड़ा सुन भी चुका हूं। जब मैंने समझा कि अब भूतनाथ से अपना हाल नहीं कहा जाता तब मैं यह अर्ज करने के लिए हाजिर हुआ हूं। (भूतनाथ की तरफ देख के) मेरे इस कहने से आप यह न समझियेगा कि मैं आपके साथ दुश्मनी कर रहा हूं, नहीं, जो काम आपके सुपुर्द किया गया है उसे आपके बदले में मैं आसानी के साथ कर दिया चाहता हूं।”
इन दोनों आदमियों (दलीपशाह) को महाराज तथा और सभों ने भी ताज्जुब के साथ देखा मगर यह समझकर इंद्रदेव से किसी ने कुछ भी न पूछा कि जो कुछ है थोड़ी देर में मालूम हो ही जायगा, मगर जब दलीपशाह ऊपर लिखी बात बोलकर चुप हो गया तब महाराज ने भेद-भरी निगाहों से इंद्रजीतसिंह की तरफ देखा और कुमार ने झुककर धीरे-से कुछ कह दिया जिसे वीरेन्द्रसिंह तथा तेजसिंह ने भी सुना तथा इनके जरिए से हमारे और साथियों को भी मालूम हो गया कि कुमार ने क्या कहा।
दलीपशाह की बात सुनकर इंद्रदेव ने महाराज की तरफ देखा और हाथ जोड़कर कहा, “इन्होंने (दलीपशाह ने) जो कुछ कहा वास्तव में ठीक है, मेरी समझ में अगर भूतनाथ का किस्सा इन्हीं की जबानी सुन लिया जाय तो कोई हर्ज नहीं है!” इसके जवाब में महाराज ने मंजूरी के लिए सिर हिला दिया।
इंद्र - (भूतनाथ की तरफ देख के) क्यों भूतनाथ, इसमें तुम्हें किसी तरह का उज्र है?
भूत - (महाराज की तरफ देखकर और हाथ जोड़कर) जो महाराज की मर्जी, मुझमें 'नहीं' करने की सामर्थ्य नहीं है। मुझे क्या खबर थी कि कसूर माफ हो जाने पर भी यह दिन देखना नसीब होगा। यद्यपि यह मैं खूब जानता हूं कि मेरा भेद अब किसी से छिपा नहीं रहा परंतु फिर भी अपनी भूल बार-बार कहने या सुनने से लज्जा बढ़ती ही है कम नहीं होती। खैर कोई चिंता नहीं, जैसे होगा वैसे अपने कलेजे को मजबूत करूंगा और दलीपशाह की कही हुई बातें सुनूंगा तथा देखूंगा कि ये महाशय कुछ झूठ का भी प्रयोग करते हैं या नहीं।
दलीप - नहीं-नहीं, भूतनाथ, मैं झूठ कदापि न बोलूंगा इससे तुम बेफिक्र रहो! (इंद्रदेव की तरफ देख के) अच्छा तो अब मैं प्रारंभ करता हूं।
दलीपशाह ने इस प्रकार कहना शुरू किया –
“महाराज, इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐयारी के फन में भूतनाथ परले सिरे का ओस्ताद और तेज आदमी है। अगर यह ऐयाशी के दरिया में गोते लगाकर अपने को बरबाद न कर दिया होता तो इसके मुकाबिले का ऐयार आज दुनिया में दिखाई न देता। मेरी सूरत देख के ये चौंकते और डरते हैं और इनका डरना वाजिब ही है मगर अब मैं इनके साथ किसी तरह का बुरा बर्ताव नहीं कर सकता क्योंकि मैं ऐसा करने के लिए दोनों कुमारों से प्रतिज्ञा कर चुका हूं, और इनकी आज्ञा मैं किसी तरह टाल नहीं सकता क्योंकि इन्हीं की बदौलत आज मैं दुनिया की हवा खा रहा हूं। (भूतनाथ की तरफ देख के) भूतनाथ, मैं वास्तव में दलीपशाह हूं, उस दिन तुमने मुझे नहीं पहचाना तो इसमें तुम्हारी आंखों का कोई कसूर नहीं है, कैद की सख्तियों के साथ-साथ जमाने ने मेरी सूरत ही बदल दी है। तुम तो अपने हिसाब से मुझे मार ही चुके थे और तुम्हें मुझसे मिलने की अभी उम्मीद भी न थी मगर सुन लो और देख लो कि ईश्वर की कृपा से मैं अभी तक जीता-जागता तुम्हारे सामने खड़ा हूं। यह कुंअर साहब के चरणों का प्रताप है। अगर मैं कैद न हो जाता तो तुमसे बदला लिए बिना कभी न रहता मगर तुम्हारी किस्मत अच्छी थी जो मैं कैद हो रह गया और छूटा भी तो कुंअर साहब के हाथ से जो तुम्हारे पक्षपाती हैं। तुम्हें इंद्रदेव से बुरा न मानना चाहिए और यह न सोचना चाहिए कि तुम्हें दुःख देने के लिए इंद्रदेव तुम्हारा पुराना पचड़ा खुलवा रहे हैं। तुम्हारा किस्सा तो सबको मालूम हो चुका है, इस समय ज्यों-का-त्यों चुपचाप रह जाने पर तुम्हारे चित्त को शांति नहीं मिल सकती और तुम हम लोगों की सूरत देख-देखकर दिन-रात तरद्दुद में पड़े रहोगे अस्तु तुम्हारे पिछले ऐबों को खोलकर इंद्रदेव तुम्हारे चित्त को शांति दिया चाहते हैं और तुम्हारे दुश्मनों को, जिनके साथ तुम ही ने बुराई की है, तुम्हारा दोस्त बना रहे हैं। ये यह भी चाहते हैं कि तुम्हारे साथ ही साथ हम लोगों का भेद भी खुल जाय और तुम जान जाओ कि हम लोगों ने तुम्हारा कसूर माफ कर दिया है क्योंकि अगर ऐसा न होगा तो जरूर तुम हम लोगों को मार डालने की फिक्र में पड़े रहोगे और हम लोग इस धोखे में रह जायेंगे कि हमने इनका कसूर तो माफ ही कर दिया अब ये हमारे साथ बुराई न करेंगे। (जीतसिंह की तरफ देख के) अब मैं मतलब की तरफ झुकता हूं और भूतनाथ का किस्सा बयान करता हूं।
जिस जमाने का हाल भूतनाथ बयान कर रहा है अर्थात् जिन दिनों भूतनाथ के मकान से दयाराम गायब हो गये थे उन दिनों यही नागर काशी के बाजार में वेश्या बनकर बैठी हुई अमीरों के लड़कों को चौपट कर रही थी। उसकी बढ़ी-चढ़ी खूबसूरती लोगों के लिए जहर हो रही थी और माल के साथ ही विशेष प्राप्ति के लिए यह लोगों की जान पर भी वार करती थी। यही दशा मनोरमा की भी थी परंतु उसकी बनिस्बत यह बहुत ज्यादा रुपए वाली होने पर भी नागर की-सी खूबसूरत न थी हां, चालाक जरूर ज्यादे थी। और लोगों की तरह भूतनाथ और दयाराम भी नागर के प्रेमी हो रहे थे। भूतनाथ को अपनी ऐयारी का घमंड था और नागर को अपनी चालाकी का। भूतनाथ नागर के दिल पर कब्जा किया चाहता था और नागर इसकी तथा दयाराम की दौलत अपने खजाने में मिलाना चाहती थी।
दयाराम की खोज में घर से शागिर्दों को साथ लिए हुए बाहर निकलते ही भूतनाथ ने काशी का रास्ता लिया और तेजी के साथ सफर करता हुआ नागर के मकान पर पहुंचा। नागर ने भूतनाथ की खातिरदारी और इज्जत की तथा कुशल-मंगल पूछने के बाद यकायक यहां आने का सबब भी पूछा।
भूतनाथ ने अपने आने का ठीक-ठीक सबब तो नहीं बताया मगर नागर समझ गई कि कुछ दाल में काला जरूर है। इस तरह भूतनाथ को भी इस बात का शक पैदा हो गया कि दयाराम की चोरी में नागर का कुछ लगाव जरूर है अथवा यह उन आदमियों को जरूर जानती है जिन्होंने दयाराम के साथ ऐसी दुश्मनी की है।
भूतनाथ का शक काशी ही वालों पर था इसलिए काशी में ही अड्डा बनाकर इधर-उधर घूमना और दयाराम का पता लगाना आरंभ किया। जैसे-जैसे दिन बीतता था भूतनाथ का शक भी नागर के ऊपर बढ़ता जाता था। सुनते हैं कि उसी जमाने में भूतनाथ ने एक औरत के साथ काशीजी में ही शादी भी कर ली थी जिससे कि नानक पैदा हुआ है। क्योंकि इस झमेले में भूतनाथ को बहुत दिनों तक काशी में रहना पड़ा था।
सच यह है कि कम्बख्त रंडियां रुपये के सिवाय और किसी की नहीं होतीं। जो दयाराम नागर को चाहता, मानता और दिल खोलकर रुपया देता था नागर उसी के खून की प्यासी हो गई क्योंकि ऐसा करने से उसे विशेष प्राप्ति की आशा थी। भूतनाथ ने यद्यपि अपने दिल का हाल नागर से बयान नहीं किया मगर नागर को विश्वास हो गया कि भूतनाथ को उस पर शक है और यह दयाराम ही की खोज में काशी आया हुआ है, अस्तु नागर ने अपना उचित प्रबंध करके काशी छोड़ दी और गुप्त रीति से जमानिया में जा बसी। भूतनाथ भी मिट्टी सूंघता हुआ उसकी खोज में जमानिया जा पहुंचा और एक भाड़े का मकान लेकर रहने लगा।
इस खोज-ढूंढ़ में वर्षों बीत गये मगर दयाराम का पता न लगा। भूतनाथ ने अपने मित्र इंद्रदेव से भी मदद मांगी और इंद्रदेव ने मदद दी भी मगर नतीजा कुछ भी न निकला। इंद्रदेव ही के कहने से मैं उन दिनों भूतनाथ का मददगार बन गया था।
इस किस्से के संबंध में रणधीरसिंह के रिश्तेदारों की तथा जमानिया, गयाजी और राजगृही इत्यादि की भी बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं परंतु मैं उन सभों का बयान करना व्यर्थ समझता हूं और केवल भूतनाथ का ही किस्सा चुनकर बयान करता हूं जिससे कि खास मतलब है।
मैं कह चुका हूं कि दयाराम का पता लगाने के काम में उन दिनों मैं भी भूतनाथ का मददगार था, मगर अफसोस, भूतनाथ की किस्मत तो कुछ और ही कराया चाहती थी इसलिए हम लोगों की मेहनत का कोई अच्छा नतीजा न निकला बल्कि एक दिन जब मिलने के लिए मैं भूतनाथ के डेरे पर गया तो मुलाकात होने के साथ ही भूतनाथ ने आंखें बदलकर मुझसे कहा, 'दलीपशाह, मैं तो तुम्हें बहुत अच्छा और नेक समझता था मगर तुम बहुत ही बुरे और दगाबाज निकले। मुझे ठीक-ठीक पता चल चुका है कि दयाराम का भेद तुम्हारे दिल के अंदर है और तुम हमारे दुश्मनों के मददगार और भेदिए हो तथा खूब जानते हो कि इस समय दयाराम कहां है। तुम्हारे लिए यही अच्छा है कि सीधी तरह उनका (दयाराम का) पता बता दो नहीं तो मैं तुम्हारे साथ बुरी तरह पेश आऊंगा और तुम्हारी मिट्टी पलीद करके छोड़ूंगा।'
महाराज, मैं नहीं कह सकता कि उस समय भूतनाथ की इन बेतुकी बातों को सुनकर कितना क्रोध चढ़ आया। मैं इसके पास बैठा भी नहीं और न इसकी बात का कुछ जवाब ही दिया, बस चुपचाप पिछले पैर लौटा और मकान के बाहर निकल आया। मेरा घोड़ा बाहर खड़ा था, मैं उस पर सवार होकर सीधे इंद्रदेव की तरफ चला गया। (इंद्रदेव की तरफ हाथ का इशारा करके) दूसरे दिन इनके पास पहुंचा और जो कुछ भी बीती थी इनसे कह सुनाया। इन्हें भी भूतनाथ की बातें बहुत ही बुरी मालूम हुईं और एक लंबी सांस लेकर ये मुझसे बोले, 'मैं नहीं जानता कि इन दो-चार दिनों में भूतनाथ को कौन-सी नई बात मालूम हो गई और किस बुनियाद पर उसने तुम्हारे साथ ऐसा सलूक किया। खैर कोई चिंता नहीं, भूतनाथ अपनी इस बेवकूफी पर अफसोस करेगा और पछतावेगा, तुम इस बात का खयाल न करो और भूतनाथ से मिलना-जुलना छोड़कर दयाराम की खोज में लगे रहो, तुम्हारा एहसान रणधीरसिंह पर और मेरे ऊपर होगा।'
इंद्रदेव ने बहुत-कुछ कह-सुनकर मेरा क्रोध शांत किया और दो दिन तक मुझे अपने यहां मेहमान रखा। तीसरे दिन मैं इंद्रदेव से बिदा होने वाला ही था कि इनके एक शागिर्द ने आकर एक विचित्र खबर सुनाई। उसने कहा कि आज रात के बारह बजे के समय मिर्जापुर के एक जमींदार 'राजसिंह' के यहां दयाराम के होने का पता मुझे लगा है। खुद मेरे भाई ने यह खबर मुझे दी है। उसने यह भी कहा कि आजकल नागर भी उन्हीं के यहां है।
इंद्र - (शागिर्द से) वह खुद मेरे पास क्यों नहीं आया?
शागिर्द - वह आप ही के पास आ रहा था, मुझसे रास्ते में मुलाकात हुई और उसके पूछने पर मैंने कहा कि दयारामजी का पता लगाने के लिए मैं तैनात किया गया हूं। उसने जवाब दिया कि अब तुम्हारे जाने की कोई जरूरत न रही, मुझे उनका पता लग गया और यही खुशखबरी सुनाने के लिए मैं सरकार के पास जा रहा हूं, मगर अब तुम मिल गये हो तो मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं, जो कुछ मैं कहता हूं तुम जाकर उन्हें सुना दो और मदद लेकर बहुत जल्द मेरे पास आओ। मैं उसी जगह जाता हूं, कहीं ऐसा न हो कि दयारामजी वहां से निकालकर किसी दूसरी जगह न पहुंचा दिए जायं और हम लोगों को पता न लगे, मैं जाकर इस बात का ध्यान रखूंगा। इसके बाद उसने सब कैफियत बयान की और अपने मिलने का समय बताया।
इंद्र - ठीक है, उसने जो कुछ किया बहुत अच्छा किया, अब उसे मदद पहुंचाने का बंदोबस्त करना चाहिए।
शागिर्द - यदि आज्ञा हो तो भूतनाथ को भी इस बात की इत्तिला दे दी जाय?
इंद्र - कोई जरूरत नहीं, अब तुम जाकर कुछ आराम करो, तीन घंटे बाद फिर तुम्हें सफर करना होगा।
इसके बाद इंद्रदेव का शागिर्द जब अपने डेरे पर चला गया तब मुझसे और इंद्रदेव से बातचीत होने लगी। इंद्रदेव ने मुझसे मदद मांगी और मुझे मिर्जापुर जाने के लिए कहा, मगर मैंने इनकार किया और कहा कि अब मैं न तो भूतनाथ का मुंह देखूंगा और न उसके किसी काम में शरीक ही होऊंगा। इसके जवाब में इंद्रदेव ने मुझे पुनः समझाया और कहा कि यह काम भूतनाथ का नहीं है, मैं कह चुका हूं कि इसका एहसान मुझ पर और रणधीरसिंहजी पर होगा।
इसी तरह की बहुत-सी बातें हुईं, लाचार मुझे इंद्रदेव की बात माननी पड़ी और कई घंटे के बाद इंद्रदेव के उसी शागिर्द 'शंभू' को साथ लिए हुए मैं मिर्जापुर की तरफ रवाना हुआ। दूसरे दिन हम लोग मिर्जापुर जा पहुंचे और बताये हुए ठिकाने पर पहुंचकर शंभू के भाई से मुलाकात की। दरियाफ्त करने पर मालूम हुआ कि दयाराम अभी तक मिर्जापुर की सरहद के बाहर नहीं गये हैं, अस्तु जो कुछ हम लोगों को करना था आपस में तै करने के बाद, सूरत बदलकर बाहर निकले।
दयाराम को ढूंढ़ निकालने के लिए हमने कैसी-कैसी मेहनत की और हम लोगों को किस-किस तरह की तकलीफें उठानी पड़ीं इसका बयान करना किस्से को व्यर्थ तूल देना और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना है। महाराज के (आपके) नामी ऐयारों ने जैसे-जैसे अनूठे काम किए हैं उनके सामने हमारी ऐयारी कुछ भी नहीं है अतएव केवल इतना ही कहना काफी है कि हम लोगों ने अपनी हिम्मत से बढ़कर काम किया और हद दर्जे की तकलीफ उठाकर दयारामजी को ढूंढ़ निकाला। केवल दयाराम को नहीं बल्कि उनके साथ ही साथ 'राजसिंह' को भी गिरफ्तार करके हम लोग अपने ठिकाने पर ले आये, मगर अफसोस! हम लोगों की सब मेहनत पर भूतनाथ ने पानी ही नहीं फेर दिया बल्कि जन्म-भर के लिए अपने माथे पर कलंक का टीका भी लगाया।
कैद की सख्ती उठाने के कारण दयारामजी बहुत ही कमजोर और बीमार हो रहे थे, उनमें बात करने की भी ताकत न थी इसलिए हम लोगों ने उसी समय उन्हें उठाकर इंद्रदेव के पास ले जाना मुनासिब न समझा और दो-तीन दिन तक आराम देने की नीयत से अपने गुप्त स्थान पर जहां हम लोग टिके हुए थे ले गये। जहां तक हो सका नरम बिछावन का इंतजाम करके उस पर उन्हें लिटा दिया और उनके शरीर में ताकत लाने का बंदोबस्त करने लगे। इस बात का भी निश्चय कर लिया कि जब तक इनकी तबीयत ठीक न हो जायगी इनसे कैद किये जाने का सबब तक न पूछेंगे।
दयारामजी के आराम का इंतजाम करने के बाद हम लोगों ने अपने-अपने हरबे खोलकर उनकी चारपाई के नीचे रख दिये, कपड़े उतारे और बातचीत करने तथा दुश्मनी का सबब जानने के लिए राजसिंह को होश में लाये और उसकी मुश्कें खोलकर बातचीत करने लगे क्योंकि उस समय इस बात का डर हम लोगों को कुछ भी न था कि वह हम पर हमला करेगा या हम लोगों का कुछ बिगाड़ सकेगा।
जिस मकान में हम लोग टिके हुए थे वह बहुत ही एकांत और उजाड़ मुहल्ले में था। रात का समय था और मकान की तीसरी मंजिल पर हम लोग बैठे हुए थे, एक मद्धिम चिराग आले पर जल रहा था। दयारामजी का पलंग हम लोगों के पीछे की तरफ था। और राजसिंह पीछे की तरफ सामने बैठा हुआ ताज्जुब के साथ हम लोगों का मुंह देख रहा था। उसी समय यकायक कई-कई धमाके की आवाज आई और उसके कुछ ही देर बाद भूतनाथ तथा उसके दो साथियों को हम लोगों ने अपने सामने खड़ा देखा। सामना होने के साथ ही भूतनाथ ने मुझसे कहा, 'क्यों बे शैतान के बच्चे, आखिर मेरी बात ठीक निकली न! तूने ही राजसिंह के साथ मेल करके हमारे साथ दुश्मनी पैदा की! खैर ले अपने किए का फल चख!!'
इतना कहकर भूतनाथ ने मेरे ऊपर खंजर का वार किया जिसे बड़ी खूबी के साथ मेरे साथी ने रोका। मैं भी उठकर खड़ा हो गया और भूतनाथ के साथ लड़ाई होने लगी। भूतनाथ ने एक ही हाथ में राजसिंह का काम तमाम कर दिया और थोड़ी ही देर में मुझे भी खूब जख्मी किया, यहां तक कि मैं जमीन पर गिर पड़ा और मेरे दोनों साथी भी बेकार हो गये। उस समय दयारामजी को जो पड़े-पड़े सब तमाशा देख रहे थे जोश चढ़ आया और चारपाई पर से उठकर खाली हाथ भूतनाथ के सामने आ खड़े हुए, कुछ बोला ही चाहते थे कि भूतनाथ के हाथ का खंजर उनके कलेजे के पार हो गया और वे बेदम होकर जमीन पर गिर पड़े।