साक़ी से ख़िताब(एक नज़्म)
कहाँ से बढ़के पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न[1] साक़ी
मगर आसूदा[2] इन्साँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू, तेरा मयख़ाना, तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ ख़िदमते-दारो-रसन[3] साक़ी
रग-ओ-पै[4] में कभी सेहबा[5] ही सेहबा रक़्स[6] करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न[7] साक़ी
न ला बस्वास[8] दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे-मक़तल[9] भी देखेंगे चमन-अन्दर-चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत[10]का तक़ाज़ा कुछ कभी लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्के-मनसब[11] दफ़अतन[12] साक़ी
अभी नाक़िस[13] है मेयारो-जुनूँ[14] तनज़ीम-ए-मयख़ाना[15]
अभी ना-मो'तबर[16] है तेरे मस्तों का चलन साक़ी
वही इन्साँ जिसे सरताजे-मख़लूक़ात[17] होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत[18] का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत[19] के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुर्ज़े
लिबास-ए-आदमीयत[20] है शिकन अन्दर-शिकन-साक़ी[21]
मुझे डर है कि इस नापाकतर[22] दौर-ए-सियासत[23] में
बिगड़ जाए न ख़ुद मेरा मज़ाक़े-शेर-ओ-फ़न[24] साक़ी