निगाहों का मर्कज़ बना जा रहा हूँ
निगाहों का मर्कज़ [1]बना जा रहा हूँ
महब्बत के हाथों लुटा जा रहा हूँ
मैं क़तरा हूँ लेकिन ब-आग़ोशे-दरिया[2]
अज़ल[3] से अबद[4] तक बहा जा रहा हूँ
वही हुस्न जिसके हैं ये सब मज़ाहिर[5]
उसी हुस्न से हल हुआ जा रहा हूँ
न जाने कहाँ से न जाने किधर को
बस इक अपनी धुन में उड़ा जा रहा हूँ
न इदराके-हस्ती [6]न एहसासे-मस्ती[7]
जिधर चल पड़ा हूँ चला जा रहा हूँ
न सूरत[8] न मआनी [9]न पैदा[10], न पिन्हाँ[11]
ये किस हुस्न[12] में गुम हुआ जा रहा हूँ