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भाग 91

 


सिद्धनाथ योगी ने कहा, “पहले इस खोह का दरवाजा खोल मैं इसके अंदर पहुंचा और पहाड़ी के ऊपर एक दर्रे में बेचारी चंद्रकान्ता को बेबस पड़े हुए देखा। अपने गुरु से मैं सुन चुका था कि इस खोह में कई छोटे - छोटे बाग हैं जिनका रास्ता उस चश्मे में से है जो खोह में बह रहा है, खोह के अंदर आने पर आप लोगों ने उसे जरूर देखा होगा, क्योंकि खो हमें उस चश्मे की खूबसूरती भी देखने के काबिल है।”
सिद्धनाथ की इतनी बात सुनकर सभी ने 'हूं हूं' कह के सिर हिलाया। इसके बाद सिद्धनाथ योगी कहने लगे -
सिद्ध - मैं लंगोटी बांधाकर चश्मे में उतर गया और इधर से उधर और उधर से इधर घूमने लगा। यकायक पूरब तरफ जल के अंदर एक छोटा - सा दरवाजा मालूम हुआ, गोता लगाकर उसके अंदर घुसा। आठ - दस हाथ तक बराबर जल मिला इसके बाद धीरे - धीरे जल कम होने लगा, यहां तक कि कमर तक जल हुआ। तब मालूम पड़ा कि यह कोई सुरंग है जिसमें चढ़ाई के तौर पर ऊंचे की तरफ चला जा रहा हूं।
आधा घंटा चलने के बाद मैंने अपने को इस बाग में (जिसमें आप बैठे हैं) पश्चिम और उत्तार के कोण में पाया और घूमता - फिरता इस कमरे में पहुंचा, (हाथ से इशारा करके) यह देखिए दीवार में जो अलमारी है, असल में वह अलमारी नहीं दरवाजा है, लात मारने से खुल जाता है। मैंने लात मारकर यह दरवाजा खोला और इसके अंदर घुसा। भीतर बिल्कुल अंधकार था, लगभग दो सौ कदम जाने के बाद दीवार मिली। इसी तरह यहां भी लात मारकर दरवाजा खोला और ठीक उसी जगह पहुंचा जहां कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बेबस पड़ी रो रही थीं। मेरे बगल से ही एक दूसरा रास्ता उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को गया था, जिसके एक टुकड़े को कुमार ने तोड़ा है।
मुझे देखते ही ये दोनों घबरा गईं। मैंने कहा, “तुम लोग डरो मत, मैं तुम दोनों को छुड़ाने आया हूं।” यह कहकर जिस राह से मैं गया था, उसी राह से कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को साथ ले इस बाग में लौट आया। इतना हाल, इतनी कैफियत, इतना रास्ता तो मैं जानता था, इससे ज्यादे इस खोह का हाल मुझे कुछ भी मालूम न था। कुमारी और चपला को खोह के बाहर कर देना या घर पहुंचा देना मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर मुझको यह मंजूर था कि यह छोटा - सा तिलिस्म कुमारी के हाथ से टूटे और यहां का माल - असबाब इनके हाथ लगे।
मैं क्या सभी कोई इस बात को जानते होंगे और सबो को यकीन होगा कि कुमारी चंद्रकान्ता को इस कैद से छुड़ाने के लिए ही कुमार चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को तोड़ रहे थे, माल - खजाने की इनको लालच न थी। अगर मैं कुमारी को यहां से निकालकर आपके पास पहुंचा देता तो कुमार उस तिलिस्म को तोड़ना बंद कर देते और वहां का खजाना भी यों ही रह जाता। मैं आप लोगों की बढ़ती चाहने वाला हूं। मुझे यह कब मंजूर हो सकता था कि इतना माल - असबाब बरबाद जावे और कुमार या कुमारी चंद्रकान्ता को न मिले।
मैंने अपने जी का हाल कुमारी और चपला से कहा और यह भी कहा कि अगर मेरी बात न मानोगी तो तुम्हें इसी बाग में छोड़कर मैं चला जाऊंगा। आखिर लाचार होकर कुमारी ने मेरी बात मंजूर की और कसम खाई कि मेरे कहने के खिलाफ कोई काम न करेगी।
मुझे यह तो मालूम ही न था कि यहां का माल - असबाब क्यों कर हाथ लगेगा, और इस खजाने की ताली कहां है, मगर यह यकीन हो गया कि कुमारी जरूर इस तिलिस्म की मालिक होगी। इसी फिक्र में दो रोज तक परेशान रहा। इन बागीचों की हालत बिल्कुल खराब थी, मगर दो - चार फलों के पेड़ ऐसे थे कि हम तीनों ने तकलीफ न पाई।
तीसरे दिन पूर्णिमा थी। मैं उस बावली के किनारे बैठा कुछ सोच रहा था, कुमारी और चपला इधर - उधर टहल रही थीं, इतने में चपला दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली, “जल्दी चलिए, इस बाग में एक ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी है।”
मैं सुनते ही खड़ा हुआ और चपला के साथ वहां गया जहां कुमारी चंद्रकान्ता पूरब की दीवार तले खड़ी गौर से कुछ देख रही थी। मुझे देखते ही कुमारी ने कहा, “बाबाजी, देखिए इस दीवार की जड़ में एक सूराख है जिसमें से सफेद रंग की बड़ी - बड़ी चिउंटियां निकल रही हैं! यह क्या मामला है?”
मैंने अपने ओस्ताद से सुना था कि सफेद चिउंटियां जहां नजर पड़ें समझना कि वहां जरूर कोई खजाना या खजाने की ताली है। यह ख्याल करके मैंने अपनी कमर से खंजर निकाल कुमारी के हाथ में दे दिया और कहा कि तुम इस जमीन को खोदो। अस्तु मेरे कहे मुताबिक कुमारी ने उस जमीन को खोदा। हाथ ही भर के बाद कांच की छोटी - सी हांडी निकली जिसका मुंह बंद था। कुमारी के ही हाथ से वह हांडी मैंने तोड़वाई। उसके भीतर किसी किस्म का तेल भरा हुआ था जो हांडी टूटते ही बह गया और ताली का एक गुच्छा उसके अंदर से मिला जिसे पाकर मैं बहुत खुश हुआ।
दूसरे दिन कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ में ताली का गुच्छा देकर मैंने कहा, “चारों तरफ घूम - घूमकर देखो, जहां ताला नजर पड़े, इन तालियों में से किसी ताली को लगाकर खोलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं।”
मुख्तसर ही में बयान करके इस बात को खत्म करता हूं। उस गुच्छे में तीस तालियां थीं, कई दिनों में खोजकर हम लोगों ने तीसों ताले खोले। तीन दरवाजे तो ऐसे मिले, जिनसे हम लोग ऊपर - ऊपर इस तिलिस्म के बाहर हो जायं। चार बाग और तेईस कोठरियां असबाब और खजाने की निकलीं जिसमें हर एक किस्म का अमीरी का सामान और बेहद खजाना मौजूद था।
जब ऊपर ही ऊपर तिलिस्म से बाहर हो जाने का रास्ता मिला, तब मैं अपने घर गया और कई लौंडियां और जरूरी चीजें कुमारी के वास्ते लेकर फिर यहां आया।कई दिनों में यहां के सब ताले खोले गये, तब तक यहां रहते - रहते कुमारी की तबीयत घबड़ा गई, मुझसे कई दफे उन्होंने कहा कि ”मैं इस तिलिस्म के बाहर घूमा - फिरा चाहती हूं।”
बहुत जिद करने पर मैंने इस बात को मंजूर किया। अपनी कारीगरी से इन लोगों की सूरत बदली और दो - तीन घोड़े भी ला दिये जिन पर सवार होकर ये लोग कभी - कभी तिलिस्म के बाहर घूमने जाया करतीं। इस बात की ताकीद कर दी थी कि अपने को छिपाये रहें जिससे कोई पहचानने न पावे। इन्होंने भी मेरी बात पूरे तौर पर मानी और जहां तक हो सका अपने को छिपाया। इस बीच में धीरे –धीरे में इन बागों की भी दुरुस्ती की गई।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने उस तिलिस्म का खजाना हासिल किया और यहां का माल - असबाब जो कुछ छिपा था कुमारी को मिल गया। (जयसिंह की तरफ देखकर) आज तक यह कुमारी चंद्रकान्ता मेरी लड़की या मालिक थी, अब आपकी जमा आपके हवाले करता हूं।
महाराज शिवदत्त की रानी पर रहम खाकर कुमारी ने दोनों को छोड़ दिया था और इस बात की कसम खिला ली थी कि कुमार से किसी तरह की दुश्मनी न करेंगे। मगर उस दुष्ट ने न माना, पुराने साथियों से मुलाकात होने पर बदमाशी पर कमर बांधी और कुमार के पीछे लश्कर की तबाही करने लगा। आखिर लाचार होकर मैंने उसे गिरफ्तार किया और इस खोह में उसी ठिकाने फिर ला रखा जहां कुमार ने उसे कैद करके डाल दिया था। अब और जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं सब हाल कह आप लोगों की शंका मिटाऊं।
सुरेन्द्र - पूछने को तो बहुत - सी बातें थीं मगर इस वक्त इतनी खुशी हुई है कि वे तमाम बातें भूल गया हूं, क्या पूछूं? खैर फिर किसी वक्त पूछ लूंगा। कुमारी की मदद आपने क्यों की?
जयसिंह - हां यही सवाल मेरा भी है, क्योंकि आपका हाल जब तक नहीं मालूम होता तबीयत की घबड़ाहट नहीं मिटती, तिस पर आप कई दफे कह चुके हैं कि 'मैं योगी महात्मा नहीं हूं' यह सुनकर हम लोग और भी घबड़ा रहे हैं कि अगर आप वह नहीं हैं जो सूरत से जाहिर है तो फिर कौन हैं!
बाबा - खैर यह भी मालूम हो जायगा।
जयसिंह - (कुमारी चंद्रकान्ता की तरफ देखकर) बेटी, क्या तुम भी नहीं जानतीं कि यह योगी कौन हैं?
चंद्रकान्ता - (हाथ जोड़कर) मैं तो सब - कुछ जानती हूं मगर कहूं क्यों कर! इन्होंने तो मुझसे सख्त कसम खिला ली है, इसी से मैं कुछ भी नहीं कह सकती!
बाबा - आप जल्दी क्यों करते हैं! अभी थोड़ी देर में मेरा हाल भी आपको मालूम हो जायगा, पहले चलकर उन चीजों को तो देखिए जो कुमारी चंद्रकान्ता को इस तिलिस्म से मिली हैं।
जयसिंह - जैसी आपकी मर्जी।
बाबाजी उसी वक्त उठ खड़े हुए और सबो को साथ ले दूसरे बाग की तरफ चले।