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भाग 79

 


कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीसरे बाग की तरफ रवाना हुए, जिसमें राजकुमारी चंद्रकान्ता की दरबारी तस्वीर देखी थी और जहां कई औरतें कैदियों की तरह इनको गिरफ्तार करके ले गई थीं।
उसमें जाने का रास्ता इनको मालूम था। जब कुमार उस दरवाजे के पास पहुंचे जिसमें से होकर ये लोग उस बाग में पहुंचते तो वहां एक कमसिन औरत नजर पड़ी जो इन्हीं की तरफ आ रही थी। देखने में खूबसूरत और पोशाक भी उसकी बेशकीमती थी, हाथ में एक खत लिए कुमार के पास आकर खड़ी हो गई, खत कुमार के हाथ में दे दी। उन्होंने ताज्जुब में आकर खुद उसे पढ़ा, लिखा हुआ था -
“कई दिनों से आप हमारे इलाके में आए हुए हैं, इसलिए आपकी मेहमानी हमको लाजिम है। आज सब सामान दुरुस्त किया है। इसी लोंडी के साथ आइये और झोंपड़ी को पवित्र कीजिए। इसका अहसान जन्म - भर न भूलूंगा।
- सिद्धनाथ योगी।”
कुमार ने खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, उन्होंने पढ़कर कहा, “साधु हैं, योगी हैं इसी से इस खत में कुछ हुकूमत भी झलकती है।” देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी खत को पढ़ा।
शाम हो चुकी थी, कुमार ने अभी उस खत का कुछ जवाब नहीं दिया था कि तेजसिंह ने उस औरत से कहा, “हम लोगों को महात्माजी की खातिर मंजूर है, मगर अभी तुम्हारे साथ नहीं जा सकते, घड़ी भर के बाद चलेंगे, क्योंकि संध्या करने का समय हो चुका है।”
औरत - तब तक मैं ठहरती हूं आप लोग संध्या कर लीजिए, अगर हुक्म हो तो संध्या के समय के लिए जल और आसन ले आऊं?
देवी - नहीं कोई जरूरत नहीं।
औरत - तो फिर यहां संध्या कैसे कीजिएगा? इस बाग में कोई नहर नहीं, बावली नहीं।
तेज - उस दूसरे बाग में बावली है।
औरत - इतनी तकलीफ करने की क्या जरूरत है, मैं अभी सब सामान लिए आती हूं, या फिर मेरे साथ चलिए, उस बाग में संध्या कर लीजिएगा, अभी तो उसका समय भी नहीं बीत चला है।
तेज - नहीं, हम लोग इसी बाग में संध्या करेंगे, अच्छा जल ले आओ।
इतना सुनते ही वह औरत लपकती हुई तीसरे बाग में चली गई।
कुमार - इस खत के भेजने वाले अगर वे ही योगी हैं जिन्होंने मुझे कूदने से बचाया था तो बड़ी खुशी की बात है, जरूर वहां वनकन्या से भी मुलाकात होगी। मगर तुम रुक क्यों गए? उसी बाग में चलकर संध्या कर लेते! मैं तो उसी वक्त कहने को था मगर यह समझकर चुप हो रहा कि शायद इसमें भी तुम्हारा कोई मतलब हो।
तेज - जरूर ऐसा ही है।
देवी - क्यों ओस्ताद, इसमें क्या मतलब है?
तेज - देखो मालूम ही हुआ जाता है।
कुमार - तो कहते क्यों नहीं, आखिर कब बतलाओगे?
तेज - हमने यह सोचा कि कहीं योगीजी हम लोगों से धोखा न करें कि खाने - पीने में बेहोशी की दवा मिलाकर खिला दें, जब हम लोग बेहोश हो जायं तो उठवाकर खोह के बाहर रखवा दें और यहां आने का रास्ता बंद करवा दें, ऐसा होगा तो कुल मेहनत ही बरबाद हो जायगी। देखिए आप भी इसी बाग में बेहोश किए गए थे, जब कैदी बनाकर लाये थे और प्यास लगने पर एक कटोरा पानी पीया था, उसी वक्त बेहोश हो गए और खोह में ले जाकर रख दिये गये थे। अगर ऐसा न हुआ होता तो उसी समय कुछ न कुछ हाल यहां का मिल गया होता। फिर मैं यह भी सोचता हूं कि अगर हम लोग वहां जाकर भोजन से इनकार करेंगे तो ठीक न होगा क्योंकि ज्याफत कबूल करके मौका पर खाने से इनकार कर जाना उचित नहीं है।
देवी - तो फिर इसकी तरकीब क्या सोची है?
तेज - (हंसकर) तरकीब क्या, बस वही तिलिस्मी गुलाब का फूल घिसकर सबों को पिलाऊंगा और आप भी पीऊंगा, फिर सात दिन तक बेहोश करने वाला कौनहै?
कुमार - हां ठीक है, पर वह वैद्य भी कैसा चतुर होगा जिसने दवाइयों से ऐसे काम के नायाब फूल बनाए।
तेज - ठीक ही है।
इतने में वही औरत सामने से आती दिखाई पड़ी, उसके पीछे तीन लौंडियां आसन, पंचपात्र, जल इत्यादि हाथों में लिए आ रही थीं।
उस बाग में एक पेड़ के नीचे कई पत्थर बैठने लायक रखे हुए थे, औरतों ने उन पत्थरो पर सामान दुरुस्त कर दिया, इसके बाद तेजसिंह ने उन लोगों से कहा, “अब थोड़ी देर के वास्ते तुम लोग अपने बाग में चली जाओ क्योंकि औरतों के सामने हम लोग संध्या नहीं करते।”
“आप ही लोगों की खिदमत करते जनम बीत गया, ऐसी बातें क्यों करते हैं। सीधी तरह से क्यों नहीं कहते कि हट जाओ। लो मैं जाती हूं!” कहती हुई वह औरत लौंडियों को साथ ले चली गई। उसकी बात पर ये लोग हंस पड़े और बोले - ”जरूर ऐयारों के संग रहने वाली है!”
संध्या करने के बाद तेजसिंह ने तिलिस्मी गुलाब का फूल पानी में घिसकर सबों को पिलाया तथा आप भी पीया और तब राह देखने लगे कि फिर वह औरत आये तो उसके साथ हम लोग चलें।
थोड़ी देर के बाद वही औरत फिर आई, उसने इन लोगों को चलने के लिए कहा। ये लोग भी तैयार थे, उठ खड़े हुए और उसके पीछे रवाना होकर तीसरे बाग में पहुंचे। ऐयारों ने अभी तक इस बाग को नहीं देखा था मगर कुंअर वीरेन्द्रसिंह इसे खूब पहचानते थे। इसी बाग में कैदियों की तरह लाए गए थे और यहीं पर कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था मगर आज इस बाग को वैसा नहीं पाया, न तो वह रोशनी ही थी न उतने आदमी ही। हां पांच - सात औरतें इधर - उधर घूमती - फिरती दिखाई पड़ीं और दो - तीन पेड़ों के नीचे। कुछ रोशनी भी थी जहां उसका होना जरूरी था।
शाम हो गई थी बल्कि कुछ अंधेरा भी हो चुका था। वह औरत इन लोगों को लिए उस कमरे की तरफ चली जहां कुमार ने तस्वीर का दरबार देखा था। रास्ते में कुमार सोचते जाते थे, “चाहे जो हो आज सब भेद मालूम किए बिना योगी का पिण्ड न छोडूंगा। हाल मालूम हो जायगा कि वनकन्या कौन है,तिलिस्मी किताब उसने क्योकर पाई थी, हमारे साथ उसने इतनी भलाई क्यों की और चंद्रकान्ता कहां चली गई?”
दीवानखाने में पहुंचे। आज यहां तस्वीर का दरबार न था बल्कि उन्हीं योगीजी का दरबार था जिन्होंने पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को बचाया था। लंबा - चौड़ा फर्श बिछा हुआ था और उसके ऊपर एक मृगछाला बिछाये योगीजी बैठे हुए थे। बाईं तरफ कुछ पीछे हटकर वनकन्या बैठी थी और सामने की तरफ चार - पांच लौंडियां हाथ जोड़े खड़ी थीं।
कुमार को आते देख योगीजी उठ खड़े हुए, दरवाजे तक आकर उनका हाथ पकड़ अपनी गद्दी के पास ले गये और अपने बगल में दाहिने ओर मृगछाला पर बैठाया। वनकन्या उठकर कुछ दूर जा खड़ी हुई और प्रेम - भरी निगाहों से कुमार को देखने लगी।
सब तरफ से हटकर कुमार की निगाह भी वनकन्या की तरफ जा डटी। इस वक्त इन दोनों की निगाहों से मुहब्बत, हमदर्दी और शर्म टपक रही थी। चारों आंखें आपस में घुल रही थीं। अगर योगीजी का ख्याल न होता तो दोनों दिल खोलकर मिल लेते, मगर नहीं, दोनों ही को इस बात का ख्याल था कि इन प्रेम की निगाहों को योगीजी न जानने पावें। कुछ ठहरकर योगी और कुमार में बातचीत होने लगी।
योगी - आप और आपकी मंडली के लोग कुशल - मंगल से तो हैं?
कुमार - आपकी दया से हर तरह से प्रसन्न हैं, परंतु...
योगी - परंतु क्या?
कुमार - परंतु कई बातों का भेद न खुलने से तबीयत को चैन नहीं है, फिर भी आशा है कि आपकी कृपा से हम लोगों का यह दुख भी दूर हो जायगा।
योगी - परमेश्वर की दया से अब कोई चिंता न रहेगी और आपके सब संदेह छूट जायेंगे। इस समय आप लोग हमारे साग - सत्तू को कबूल करें, इसके बाद रात - भर हमारे आपके बीच बातचीत होती रहेगी, जो कुछ पूछना हो पूछिएगा। ईश्वर चाहेंगे तो अब किसी तरह का दु:ख उठाना न पड़ेगा और आज ही से आपकी खुशी का दिन शुरू होगा।
योगी की अमृत भरी बातों ने कुमार और उनके ऐयारों के सूखे दिलों को हरा कर दिया। तबीयत प्रसन्न हो गई, उम्मीद बंधा गई कि अब सब काम पूरा हो जायगा। थोड़ी देर के बाद भोजन का सामान दुरुस्त किया गया। खाने की जितनी चीजें थीं सभी ऐसी थीं कि सिवाय राजे - महाराजे के और किसी के यहां न पाई जायं। खाने - पीने से निश्चित होने पर बाग के बीचो बीच पत्थर के खूबसूरत चबूतरे पर फर्श बिछाया गया और उसके ऊपर मृगछाला बिछाकर योगीजी बैठ गये, अपने बगल में कुमार को बैठा लिया, कुछ दूर पर हटकर वनकन्या अपनी दो सखियों के साथ बैठी, और जितनी औरतें थीं हटा दी गईं।
रात पहर से ज्यादा जा चुकी थी, चंद्रमा अपनी पूर्ण किरणों से उदय हो रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी जिसमें सुगंधित फूलों की मीठी महक उड़ रही थी। योगी ने मुस्कराकर कुमार से कहा :
“अब जो कुछ पूछना हो पूछिये, मैं सब बातों का जवाब दूंगा और जो कुछ काम आपका अभी तक अटका है उसको भी कर दूंगा।”
कुंअर वीरेन्द्रसिंह के जी में बहुत - सी ताज्जुब की बातें भरी हुई थीं, हैरान थे कि पहले क्या पूछूं। आखिर खूब सम्हलकर बैठे और योगी से पूछने लगे।