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भाग 89

 


बहुत सबेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आये। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जाकर तो इन लोगों की और ही कैफियत हो गयी, ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखते और तारीफ करते थे।
घुमाते - फिराते कई ताज्जुब की चीजों को दिखाते और कुछ हाल समझाते, सबों को साथ लिए हुए तेजसिंह उस बाग के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे। इन लोगों के पहुंचने के पहले ही से सिद्धनाथ इस्तकबाल (अगुवानी) के लिए द्वार पर मौजूद थे।
तेजसिंह ने महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह को उंगली के इशारे से बताकर कहा, “देखिये सिद्धनाथ बाबा दरवाजे पर खड़े हैं।”
दोनों राजा चाहते थे कि जल्दी से पास पहुंचकर बाबाजी को दण्डवत करें मगर इसके पहले ही बाबाजी ने पुकारकर कहा, “खबरदार, मुझे कोई दण्डवत न करना नहीं तो पछताओगे और मुलाकात भी न होगी।”
इरादा करते रह गये, किसी की मजाल न हुई कि दण्डवत करता। महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह हैरान थे कि बाबाजी ने दण्डवत करने से क्यों रोका। पास पहुंचकर हाथ मिलाना चाहा, मगर बाबाजी ने इसे भी मंजूर न करके कहा, “महाराज, मैं इस लायक नहीं, आपका दर्जा मुझसे बहुत बड़ा है।”
सुरेन्द्र - साधुओं से बढ़कर किसी का दर्जा नहीं हो सकता।
बाबाजी - आपका कहना बहुत ठीक है, मगर आपको मालूम नहीं कि मैं किस तरह का साधु हूं।
सुरेन्द्र - साधु चाहे किसी तरह का हो पूजने ही योग्य है।
बाबाजी - किसी तरह का हो, मगर साधु हो तब तो!
सुरेन्द्र - तो आप कौन हैं?
बाबाजी - कोई भी नहीं।
जय - आपकी बातें ऐसी हैं कि कुछ समझ ही में नहीं आतीं और हर बात ताज्जुब, तरद्दुद, सोच और घबराहट बढ़ाती है।
बाबाजी - (हंसकर) अच्छा आइये इस बाग में चलिए।
सबों को अपने साथ लिए सिद्धनाथ बाग के अंदर गये।
पाठक, घड़ी - घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल - बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूं। सिवाय इसके इस खोह के बाग कौन बड़े लंबे - चौड़े हैं जिनके लिए कई पन्ने कागज के बरबाद किए जाएं, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि इस खोह में जितने बाग हैं चाहे छोटे भी हो मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी - चढ़ी है।
महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह, कुमार वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों को साथ लिए घूमते हुए बाबाजी उसी दीवानखाने में पहुंचे जिसमें कुमारी का दरबार कुमार ने देखा था बल्कि ऐसा क्यों नहीं कहते कि अभी कल ही जिस कमरे में कुमार खास कुमारी चंद्रकान्ता से मिले थे।
जिस तरह की सजावट आज इस दीवानखाने की है, इसके पहले कुमार ने नहीं देखी थी। बीच में एक कीमती गद्दी बिछी हुई थी, बाबाजी ने उसी पर राजा सुरेन्द्रसिंह, महाराज जयसिंह और कुंअर वीरेन्द्रसिंह को बिठाकर उनके दोनों तरफ दर्जे - ब - दर्जे ऐयारों को बैठाया और आप भी उन्हीं लोगों के सामने एक मृगछाला पर बैठ गये जो पहले ही बिछा हुआ था, इसके बाद बातचीत होने लगी।
बाबाजी - (महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर) आप लोग कुशल से तो हैं।
दोनों राजा - आपकी कृपा से बहुत आनंद है, और आज तो आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।
बाबाजी - आप लोगों को यहां तक आने में तकलीफ हुई, उसे माफ कीजियेगा।
जयसिंह - यहां आने के ख्याल ही से हम लोगों की तकलीफ जाती रही। आपकी कृपा न होती और यहां तक आने की नौबत न पहुंचती तो न मालूम कब तक कुमारी चंद्रकान्ता के वियोग का दु:ख हम लोगों को सहना पड़ता।
बाबा - (मुस्कराकर) अब कुमारी की तलाश में आप लोग तकलीफ न उठावेंगे।
जयसिंह - आशा है कि आज आपकी कृपा से कुमारी को जरूर देखेंगे।
बाबा - शायद किसी वजह से अगर आज कुमारी को देख न सकें तो कल जरूर आप लोग उससे मिलेंगे। इस वक्त आप लोग स्नान - पूजा से छुट्टी पाकर कुछ भोजन कर लें, तब हमारे आपके बीच बातचीत होगी।
बाबाजी ने एक लौंडी को बुलाकर कहा कि ”हमारे मेहमान लोगों के नहाने का सामान उस बाग में दुरुस्त करो जिसमें बावली है।”
बाबाजी सबों को लिए उस बाग में गये जिसमें बावली थी। उसी में सबों ने स्नान किया और उत्तार तरफ वाले दलान में भोजन करने के बाद उस कमरे में बैठे जिसमें कुंअर वीरेन्द्रसिंह की आंख खुली थी। आज भी वह कमरा वैसा ही सजा हुआ है जैसा पहले दिन कुमार ने देखा था, हां इतना फर्क है कि आज कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर उसमें नहीं है।
जब सब लोग निश्चित होकर बैठे तब राजा सुरेन्द्रसिंह ने सिद्धनाथ योगी से पूछा:
“यह खूबसूरत पहाड़ी जिसमें छोटे - छोटे कई बाग हैं हमारे ही इलाके में है, मगर आज तक कभी इसे देखने की नौबत नहीं पहुंची। क्या इस बाग से ऊपर - ही - ऊपर कोई और रास्ता भी बाहर जाने का है?”
बाबा - इसकी राह गुप्त होने के सबब से यहां कोई आ नहीं सकता था, हां जिसे इस छोटे से तिलिस्म की कुछ खबर है वह शायद आ सके। एक रास्ता तो इसका वही है जिससे आप आये हैं, दूसरी राह बाहर आने - जाने की इस बाग में से है, लेकिन वह उससे भी ज्यादे छिपी हुई है।
सुरेन्द्र - आप कब से इस पहाड़ी में रह रहे हैं।
बाबाजी - मैं बहुत थोड़े दिनों से इस खोह में आया हूं सो भी अपनी खुशी से नहीं आया, मालिक के काम से आया हूं।
सुरेन्द्र - (ताज्जुब से) आप किसके नौकर हैं?
बाबाजी - यह भी आपको बहुत जल्दी मालूम हो जायगा।
जयसिंह - (सुरेन्द्रसिंह की तरफ इशारा करके) महाराज की जुबानी मालूम होता है कि यह दिलचस्प पहाड़ी चाहे इनके राज्य में हो मगर इन्हें इसकी खबर नहीं और यह जगह भी ऐसी नहीं मालूम होती जिसका कोई मालिक न हो, आप यहां के रहने वाले नहीं हैं तो इस दिलचस्प पहाड़ी और सुंदर - सुंदर मकानों और बागीचों का मालिक कौन है?
महाराज जयसिंह की बात का जवाब अभी सिद्धनाथ बाबा ने नहीं दिया था कि सामने से वनकन्या आती दिखाई पड़ी। दोनों बगल उसके दो सखियां और पीछे - पीछे दस - पंद्रह लौंडियों की भीड़ थी।
बाबा - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) इस जगह की मालिक यही है।
सिद्धनाथ बाबा की बात सुनकर दोनों महाराज और ऐयार लोग ताज्जुब से वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह भी हैरान हो वनकन्या की तरफ देख रहे थे। सिद्धनाथ की जुबानी यह सुनकर कि इस जगह की मालिक यही है, कुमार और तेजसिंह को पिछली बातें याद आ गईं। कुंअर वीरेन्द्रसिंह सिर नीचा कर सोचने लगे कि बेशक कुमारी चंद्रकान्ता इसी वनकन्या की कैद में है। वह बेचारी तिलिस्म की राह से आकर जब इस खोह में फंसी तब इन्होंने कैद कर लिया, तभी तो इस जोर की खत लिखी थी कि बिना हमारी मदद के तुम कुमारी चंद्रकान्ता को नहीं देख सकते, और उस दिन सिद्धनाथ बाबा ने भी यही कहा था कि जब यह चाहेगी तब चंद्रकान्ता से तुमसे मुलाकात होगी। बेशक कुमारी को इसी ने कैद किया है, हम इसे अपना दोस्त कभी नहीं कह सकते, बल्कि यह हमारी दुश्मन है क्योंकि इसने बेफायदे कुमारी चंद्रकान्ता को कैद करके तकलीफ में डाला और हम लोगों को भी परेशान किया।
नीचे मुंह किये इसी किस्म की बातें सोचते - सोचते कुमार को गुस्सा चढ़ आया और उन्होंने सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा।
कुमार के दिल में चंद्रकान्ता की मुहब्बत चाहे कितनी ही ज्यादा हो मगर वनकन्या की मुहब्बत भी कम न थी। हां इतना फर्क जरूर था कि जिस वक्त कुमारी चंद्रकान्ता की याद में मग्न होते थे उस वक्त वनकन्या का ख्याल भी जी में नहीं आता था, मगर सूरत देखने से मुहब्बत की मजबूत फांसें गले में पड़ जाती थीं। इस वक्त भी उनकी यही दशा हुई। यह सोचकर कि कुमारी को इसने कैद किया है एकदम गुस्सा चढ़ आया मगर कब तक? जब तक कि जमीन की तरफ देखकर सोचते रहे, जहां सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा, गुस्सा बिल्कुल जाता रहा, ख्याल ही दूर हो गये, पहले कुछ सोचा था अब कुछ और ही सोचने लगे :
“नहीं - नहीं, यह बेचारी हमारी दुश्मन नहीं है। राम - राम, न मालूम क्यों ऐसा ख्याल मेरे दिल में आ गया! इससे बढ़कर तो कोई दोस्त दिखाई ही नहीं देता। अगर यह हमारी मदद न करती तो तिलिस्म का टूटना मुश्किल हो जाता, कुमारी के मिलने की उम्मीद जाती रहती, बल्कि मैं खुद दुश्मनों के हाथ पड़ जाता।”
कुमार क्या सबो के ही दिल में एकदम यह बात पैदा हुई कि इस बाग और पहाड़ी की मालिक अगर यह है तो इसी ने कुमारी को भी कैद कर रखा होगा। आखिर महाराज जयसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखकर पूछा :
“बेचारी चंद्रकान्ता इस खोह में फंसकर इन्हीं की कैद में पड़ गई होगी?”
बाबा - नहीं, जिस वक्त कुमारी चंद्रकान्ता इस खोह में फंसी थी उस वक्त यहां का मालिक कोई न था, उसके बाद यह पहाड़ी बाग और मकान इनको मिला है।
सिद्धनाथ बाबा की इस दूसरी बात ने और भ्रम में डाल दिया, यहां तक कि कुमार का जी घबराने लगा। अगर महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह यहां न होते तो जरूर कुमार चिल्ला उठते, मगर नहीं - शर्म ने मुंह बंद कर दिया और गंभीरता ने दोनों मोढ़ों पर हाथ धारकर नीचे की तरफ दबाया!
महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखा और गिड़गिड़ाकर बोले, “आप कृपा कर के पेचीली और बहुत से मानी पैदा करने वाली बातों को छोड़ दीजिए और साफ कहिए कि यह लड़की जो सामने खड़ी है कौन है, यह पहाड़ी इसे किसने दी और चंद्रकान्ता कहां है?”
महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह की बात सुनकर बाबाजी मुस्कुराने लगे और वनकन्या की तरफ देख इशारे से उसे अपने पास बुलाया। वनकन्या अपनी अगल - बगल वाली दोनों सखियों को जिनमें से एक की पोशाक सुर्ख और दूसरी की सब्ज थी, साथ लिए हुए सिद्धनाथ के पास आई। बाबाजी ने उसके चेहरे पर से एक झिल्ली जैसी कोई चीज जो तमाम चेहरे के साथ चिपकी हुई थी खींच ली और हाथ पकड़कर महाराज जयसिंह के पैर पर डाल दिया और कहा, “लीजिए यही आपकी चंद्रकान्ता है!”
चेहरे पर की झिल्ली उतर जाने से सबो ने कुमारी चंद्रकान्ता को पहचान लिया, महाराज जयसिंह पैर से उसका सिर उठाकर देर तक अपनी छाती से लगाये रहे और खुशी से गद्गद् हो गए।
सिद्धनाथ योगी ने उसकी दोनों सखियों के मुंह पर से भी झिल्ली उतार दी! लाल पोशाक वाली चपला और सब्ज पोशाक वाली चंपा साफ पहचानी गईं।
मारे खुशी के सबो का चेहरा चमक उठा, आज की - सी खुशी कभी किसी ने नहीं पाई थी। महाराज जयसिंह के इशारे से कुमारी चंद्रकान्ता ने राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर सिर रखा, उन्होंने उसका सिर उठाकर सूंघा।
घंटों तक मारे खुशी के सबों की अजब हालत रही। कुंअर वीरेन्द्रसिंह की दशा तो लिखनी ही मुश्किल है। अगर सिद्धनाथ योगी इनको पहले ही कुमारी से न मिलाये रहते तो इस समय इनको शर्म और हया कभी न दबा सकती, जरूर कोई बेअदबी हो जाती।
महाराज जयसिंह की तरफ देखकर सिद्धनाथ बाबा बोले, “आप कुमारी को हुक्म दीजिए कि अपनी सखियों के साथ घूमे - फिरे या दूसरे कमरे में चली जाय और आप लोग इस पहाड़ी और कुमारी का विचित्र हाल मुझसे सुनें।”
जयसिंह - बहुत दिनों के बाद इसकी सूरत देखी है, अब कैसे अपने से अलग करूं, कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई आफत आए और इसको देखना मुश्किल हो जाय।
बाबा - (हंसकर) नहीं, नहीं, अब यह आपसे अलग नहीं हो सकती।
जयसिंह - खैर जो हो, इसे मुझसे अलग मत कीजिए और कृपा करके इसका हाल शुरू से कहिए।
बाबा - अच्छा, जैसी आपकी मर्जी।