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भाग 44

 


कुमारी के पास आते हुए चपला को नीचे से कुंअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह सबों ने देखा। ऊपर से चपला पुकारकर कहने लगी, “जिस खोह में हम लोगों को शिवदत्त ने कैद किया था उसके लगभग सात कोस दक्षिण एक पुराने खण्डहर में एक बड़ा भारी पत्थर का करामाती बगुला है, वही कुमारी को निगल गया था। वह तिलिस्म किसी तरह टूटे तो हम लोगों की जान बचे, दूसरी कोई तरकीब हम लोगों के छूटने की नहीं हो सकती। मैं बहुत सम्हलकर उस तिलिस्म में गई थी पर तो भी फंस गई। तुम लोग जाना तो बहुत होशियारी के साथ उसको देखना। मैं यह नहीं जानती कि वह खोह चुनार से किस तरफ है, हम लोगों को दुष्ट शिवदत्त ने कैद किया था।”
चपला की बात बखूबी सबों ने सुनी, कुमार को महाराज शिवदत्त पर बड़ा ही गुस्सा आया। सामने मौजूद ही थे कहीं ढूंढने जाना तो था ही नहीं, तलवार खींच मारने के लिए झपटे। महाराज शिवदत्त की रानी जो उन्हीं के पास बैठी सब तमाशा देखती और बातें सुनती थीं, कुंअर वीरेन्द्रसिंह को तलवार खींच के महाराज शिवद्त्त की तरफ झपटते देख दौड़कर कुमार के पैरों पर गिर पड़ीं और बोलीं, “पहले मुझको मार डालिए, क्योंकि मैं विधावा होकर मुर्दों से बुरी हालत में नहीं रह सकती!” तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और बहुत कुछ समझा-बुझाकर ठण्डा किया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, “अगर मुनासिब समझो और हर्ज न हो तो कुमारी के मां-बाप को भी यहां लाकर कुमारी का मुंह दिखला दो, भला कुछ उन्हें भी तो ढाढ़स हो।” तेजसिंह ने कहा, “यह कभी नहीं हो सकता, इस तहखाने को आप मामूली न समझिए, जो कुछ कहना होगा मुंहजबानी सब हाल उनको समझा दिया जायगा। अब यह फिक्र करनी चाहिए जिससे कुमारी की जान छूटे। चलिए सब कोई महाराज जयसिंह को यह हाल कहते हुए उस खण्डहर तक चलें जिसका पता चपला ने दिया है।”
यह कहकर तेजसिंह ने चपला को पुकारकर कहा, “देखो हम लोग उस खण्डहर की तरफ जाते हैं। क्या जाने कितने दिन उस तिलिस्म को तोड़ने में लगें। तुम राजकुमारी को ढाढ़स देती रहना, किसी तरह की तकलीफ न होने पाये। क्या करें कोई ऐसी तरकीब भी नजर नहीं आती कि कपड़े या खाने-पीने की चीजें तुम तक पहुंचाई जायं।”
चपला ने ऊपर से जवाब दिया, “कोई हर्ज नहीं, खाने-पीने की कुछ तकलीफ न होगी क्योंकि इस जगह बहुत से मेवों के पेड़ हैं, और पत्थरों में से छोटे-छोटे कई झरने पानी के जारी हैं। आप लोग बहुत होशियारी से काम कीजिएगा। इतना मुझे मालूम हो गया कि बिना कुमार के यह तिलिस्म नहीं टूटने का,मगर तुम लोग भी इनका साथ मत छोड़ना, बड़ी हिफाजत रखना।”
महाराज शिवद्त्त और उनकी रानी को उसी तहखाने में छोड़ कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी चारों आदमी वहां से बाहर निकले। दोहरा ताला लगा दिया। इसके बाद सब हाल कहने के लिए कुमार ने देवीसिंह को नौगढ़ अपने मां-बाप के पास भेज दिया और यह भी कह दिया कि ”नौगढ़ से होकर कल ही तुम लौट के विजयगढ़ आ जाना, हम लोग वहां चलते हैं, तुम आओगे तब कहीं जायेंगे।” यह सुन देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।
सबेरे ही से कुंअर वीरेन्द्रसिंह विजयगढ़ से गायब थे, बिना किसी से कुछ कहे ही चले गये थे इसलिए महाराज जयसिंह बहुत ही उदास हो कई जासूसों को चारों तरफ खोजने के लिए भेज चुके थे। शाम होते-होते ये लोग विजयगढ़ पहुंचे और महाराज से मिले। महाराज ने कहा, “कुमार तुम इस तरह बिना कहे-सुने जहां जी में आता है चले जाते हो, हम लोगों को इससे तकलीफ होती है, ऐसा न किया करो!”
इसका जवाब कुमार ने कुछ न दिया मगर तेजसिंह ने कहा, “महाराज, जरूरत ही ऐसी थी कि कुमार को बड़े सबेरे यहां से जाना पड़ा, उस वक्त आप आराम में थे, इसलिए कुछ कह न सके।” बाद इसके तेजसिंह ने कुल हाल, लड़ाई से चुनार जाना, महाराज शिवद्त्त की रानी को चुराना, खोह में कुमारी का पता लगाना, ज्योतिषीजी की मुलाकात, बर्देफरोशों की कैफियत, उस तहखाने में कुमारी और चपला को देख उनकी जुबानी तिलिस्म का हाल आदि सब-कुछ हाल पूरा-पूरा ब्यौरेवार कह सुनाया, आखिर में यह भी कहा कि अब हम लोग तिलिस्म तोड़ने जाते हैं।
इतना लंबा-चौड़ा हाल सुनकर महाराज हैरान हो गये। बोले, “तुम लोगों ने बड़ा ही काम किया इसमें कोई शक नहीं, हद के बाहर काम किया, अब तिलिस्म तोड़ने की तैयारी है, मगर वह तिलिस्म दूसरे के राज्य में है। चाहे वहां का राजा तुम्हारे यहां कैद हो तो भी पूरे सामान के साथ तुम लोगों को जाना चाहिए, मैं भी तुम लोगों के साथ चलूं तो ठीक है।”
तेजसिंह ने कहा, “आपको तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं है, थोड़ी फौज साथ जायेगी वही बहुत है।”
महाराज ने कहा, “ठीक है, मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं मगर इतना होगा कि चलकर उस तिलिस्म को मैं भी देख आऊंगा।” तेजसिंह ने कहा, “जैसी मर्जी।” महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ”हमारी आधी फौज और कुमार की कुल फौज रात भर में तैयार हो रहे, कल यहां से चुनार की तरफ कूच होगा।”
बमूजिब हुक्म के सब इंतजाम दीवान साहब ने कर दिया। दूसरे दिन नौगढ़ से लौटकर देवीसिंह भी आ गए। बड़ी तैयारी के साथ चुनार की तरफ तिलिस्म तोड़ने के लिए कूच हुआ। दीवान हरदयालसिंह विजयगढ़ में छोड़ दिए गए।