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भाग 77

 


विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकान्ता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती - जागती है और उसी की खोज में वीरेन्द्रसिंह फिर खोह के अंदर गए हैं। इन सब बातों को सुन - सुनकर महाराज जयसिंह बराबर उदास रहा करते थे। महल में महारानी की भी बुरी दशा थी। चंद्रकान्ता की जुदाई में खाना - पीना बिल्कुल छूटा हुआ था, सूख के कांटा हो रही थीं और जितनी औरतें महल में थीं सभी उदास और दु:खी रहा करती थीं।
एक दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे थे। दीवान हरदयालसिंह जरूरी अर्जियां पढ़कर सुनाते और हुक्म लेते जाते थे। इतने में एक जासूस हाथ में एक छोटा - सा लिखा हुआ कागज लेकर हाजिर हुआ।
इशारा पाकर चोबदार ने उसे पेश किया। दीवान हरदयालसिंह ने उससे पूछा, “यह कैसा कागज लाया है और क्या कहता है?”
जासूस ने अर्ज किया, “इस तरह के लिखे हुए कागज शहर में बहुत जगह चिपके हुए दिखाई दे रहे हैं। तिरमुहानियों पर, बाजार में, बड़ी - बड़ी सड़कों पर इसी तरह के कागज नजर पड़ते हैं। मैंने एक आदमी से पढ़वाया था जिसके सुनने से जी में डर पैदा हुआ और एक कागज उखाड़कर दरबार में ले आया हूं। बाजार में इन कागजों को पढ़ - पढ़कर लोग बहुत घबड़ा रहे हैं।”
जासूस के हाथ से कागज लेकर दीवान हरदयालसिंह ने पढ़ा और महाराज को सुनाया। यह लिखा हुआ था -
“नौगढ़ और विजयगढ़ के राजा आजकल बड़े जोर में आये होंगे। दोनों को इस बात की बड़ी शेखी होगी कि हम चुनार फतह करके निश्चित हो गए, अब हमारा कोई दुश्मन नहीं रहा। इसी तरह वीरेन्द्रसिंह भी फूले न समाते होंगे। आजकल मजे में खोह की हवा खा रहे हैं। मगर यह किसी को मालूम नहीं कि उन लोगों का बड़ा भारी दुश्मन मैं अभी तक जीता हूं। आज से मैं अपना काम शुरू करूंगा। नौगढ़ और विजयगढ़ के राजों, सरदारों और बड़े - बड़े सेठ - साहूकारों को चुन - चुनकर मारूंगा। दोनों राज्य मिट्टी में मिला दूंगा और फिर भी गिरफ्तार न होऊंगा। यह न समझना कि हमारे यहां बड़े - बड़े ऐयार हैं, मैं ऐसे - ऐसे ऐयारों को कुछ भी नहीं समझता। मैं भी एक बड़ा भारी ऐयार हूं लेकिन मैं किसी को गिरफ्तार न करूंगा, बस जान से मार डालना मेरा काम होगा। अब अपनी - अपनी जान की हिफाजत चाहो तो यहां से भागते जाओ। खबरदार! खबरदार!! खबरदार!!
-ऐयारों का गुरुघंटाल - जालिमखां”
इस कागज को सुन महाराज जयसिंह घबरा उठे। हरदयालसिंह के भी होश जाते रहे और दरबार में जितने आदमी थे सभी कांप उठे। मगर सबों को ढाढ़स देने के लिए महाराज ने गंभीर भाव से कहा, “हम ऐसे - ऐसे लुच्चों के डराने से नहीं डरते! कोई घबराने की जरूरत नहीं। अभी शहर में मुनादी करा दी जाय कि जालिमखां को गिरफ्तार करने की फिक्र सरकार कर रही है। यह किसी का कुछ न बिगाड़ सकेगा। कोई आदमी घबराकर या डरकर अपना मकान न छोड़े! मुनादी के बाद शहर में पहरे का इंतजाम पूरा - पूरा किया जाय और बहुत से जासूस उस शैतान की टोह में रवाना किए जाएं।”
थोड़ी देर बाद महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। दीवान हरदयालसिंह भी सलाम करके घर जाना चाहते थे, मगर महाराज का इशारा पाकर रुक गए।
दीवान को साथ ले महाराज जयसिंह दीवानखाने में गए और एकांत में बैठकर उसी जालिमखां के बारे में सोचने लगे। कुछ देर तक सोच - विचारकर हरदयालसिंह ने कहा, “हमारे यहां कोई ऐयार नहीं है जिसका होना बहुत जरूरी है।” महाराज जयसिंह ने कहा, “तुम इसी वक्त एक खत यहां के हालचाल की राजा सुरेन्द्रसिंह को लिखो और वह विज्ञापन (इश्तिहार) भी उसी के साथ भेज दो, जो जासूस लाया था।”
महाराज के हुक्म के मुताबिक हरदयालसिंह ने खत लिखकर तैयार की और एक जासूस को देकर उसे पोशीदा तौर पर नौगढ़ की तरफ रवाना किया,इसके बाद महाराज ने महल के चारों तरफ पहरा बढ़ाने के लिए हुक्म देकर दीवान को बिदा किया।
इन सब कामों से छुट्टी पा महाराज महल में गए। रानी से भी यह हाल कहा। वह भी सुनकर बहुत घबराई। औरतों में इस बात की खलबली पड़ गई। आज का दिन और रात इस तरद्दुद में गुजर गई।
दूसरे दिन दरबार में फिर एक जासूस ने कल की तरह एक और कागज लाकर पेश किया और कहा, “आज तमाम शहर में इसी तरह के कागज चिपके दिखाई देते हैं।” दीवान हरदयालसिंह ने जासूस के हाथ से वह कागज ले लिया और पढ़कर महाराज को सुनाया, यह लिखा था:
“वाह वाह वाह! आपके किये कुछ न बन पड़ा तो नौगढ़ से मदद मांगने लगे! यह नहीं जानते कि नौगढ़ में भी मैंने उपद्रव मचा रखा है। क्या आपका जासूस मुझसे छिपकर कहीं जा सकता था? मैंने उसे खतम कर दिया। किसी को भेजिए उसकी लाश उठा लावे। शहर के बाहर कोस भर पर उसकी लाश मिलेगी।
- वही - जालिमखां”
इस इश्तिहार के सुनने से महाराज का कलेजा कांप उठा। दरबार में जितने आदमी बैठे थे सबों के छक्के छूट गये। अपनी - अपनी फिक्र पड़ गई। महाराज के हुक्म से कई आदमी शहर के बाहर उस जासूस की लाश उठा लाने के लिए भेजे गए, जब तक उसकी लाश दरबार के बाहर लाई जाय एक धाूम - सी मच गई। हजारों आदमियों की भीड़ लग गई। सबों की जुबान पर जालिमखां सवार था। नाम से लोगों के रोंए खड़े होते थे। जासूस के सिर का पता न था और जो खत वह ले गया था वह उसके बाजू से बंधी हुई थी।
जाहिर में महाराज ने सबों को ढाढ़स दिया मगर तबीयत में अपनी जान का भी खौफ मालूम हुआ। दीवान से कहा, “शहर में मुनादी करा दी जाय कि जो कोई इस जालिमखां को गिरफ्तार करेगा उसे सरकार से दस हजार रुपया मिलेगा और यहां के कुल हालचाल की खत पांच सवारों के साथ नौगढ़ रवाना की जाए।”
यह हुक्म देकर महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। पांचों सवार जो खत लेकर नौगढ़ रवाना हुए, डर के मारे कांप रहे थे। अपनी जान का डर था। आपस में इरादा कर लिया कि शहर के बाहर होते ही बेतहाशा घोड़े फेंके निकल जायेंगे, मगर न हो सका।
दूसरे दिन सबेरे ही फिर इश्तिहार लिए हुए एक पहरे वाला दरबार में हाजिर हुआ। हरदयालसिंह ने इश्तिहार लेकर देखा, यह लिखा था :
“इन पांच सवारों की क्या मजाल थी जो मेरे हाथ से बचकर निकल जाते। आज तो इन्हीं पर गुजरी, कल से तुम्हारे महल में खेल मचाऊंगा। ले अब खूब सम्हलकर रहना। तुमने यह मुनादी कराई है कि जालिमखां को गिरफ्तार करने वाला दस हजार इनाम पावेगा। मैं भी कहे देता हूं कि जो कोई मुझे गिरफ्तार करेगा उसे बीस हजार इनाम दूंगा!!

                                 - वही जालिमखां!!”

आज का इश्तिहार पढ़ने से लोगों की क्या स्थिति हुई वे ही जानते होंगे। महाराज के तो होश उड़ गये। उनको अब उम्मीद न रही कि हमारी खबर नौगढ़ पहुंचेगी। एक खत के साथ पूरी पल्टन को भेजना यह भी जवांमर्दी से दूर था। सिवाय इसके दरबार में जासूसों ने यह खबर सुनाई कि जालिमखां के खौफ से शहर कांप रहा है, ताज्जुब नहीं कि दो या तीन दिन में तमाम रियाया शहर खाली कर दे। यह सुनकर और भी तबीयत घबरा उठी।
महाराज ने कई आदमी उन सवारों की लाशों को लाने के लिए रवाना किये। वहां जाते उन लोगों की जान कांपती थी मगर हाकिम का हुक्म था, क्या करते लाचार जाना पड़ता था।
पांचों आदमियों की लाशें लाई गईं। उन सबों के सिर कटे हुए न थे, मालूम होता था फांसी लगाकर जान ली गई है, क्योंकि गर्दन में रस्से के दाग थे।
इस कैफियत को देखकर महाराज हैरान हो चुपचाप बैठे थे। कुछ अक्ल काम नहीं करती थी। इतने में सामने से पंडित बद्रीनाथ आते दिखाई दिये।
आज पंडित बद्रीनाथ का ठाठ देखने लायक था। पोर - पोर से फुर्तीलापन झलक रहा था। ऐयारी के पूरे ठाठ से सजे थे, बल्कि उससे फाजिल तीर - कमान लगाए, चुस्त जांघिया कसे, बटुआ और खंजर कमर से, कमंद पीठ पर लगाये पत्थरों की झोली गले में लटकती हुई, छोटा - सा डंडा हाथ में लिए कचहरी में आ मौजूद हुए।
महाराज को यह खबर पहले ही लग चुकी थी कि राजा शिवदत्त अपनी रानी को लेकर तपस्या करने के लिए जंगल की तरफ चले गये और पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह सब ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के साथ हो गये हैं।
ऐसे वक्त में पंडित बद्रीनाथ का पहुंचना महाराज के वास्ते ऐसा हुआ जैसे मरे हुए पर अमृत बरसना। देखते ही खुश हो गए, प्रणाम करके बैठने का इशारा किया। बद्रीनाथ आशीर्वाद देकर बैठ गये।
जय - आज आप बड़े मौके पर पहुंचे।
बद्री - जी हां, अब आप कोई चिंता न करें। दो - एक दिन में ही जालिमखां को गिरफ्तार कर लूंगा।
जय - आपको जालिमखां की खबर कैसे लगी।
बद्री - इसकी खबर तो नौगढ़ ही में लग गई थी, जिसका खुलासा हाल दूसरे वक्त कहूंगा। यहां पहुंचने पर शहर वालों को मैंने बहुत उदास और डर के मारे कांपते देखा। रास्ते में जो भी मुझको मिलता था उसे बराबर ढाढ़स देता था कि 'घबराओ मत अब मैं आ पहुंचा हूं।' बाकी हाल एकांत में कहूंगा और जो कुछ काम करना होगा उसकी राय भी दूसरे वक्त एकांत में ही आपके और दीवान हरदयालसिंह के सामने पक्की होगी, क्योंकि अभी तक मैंने स्नान - पूजा कुछ भी नहीं किया है। इससे छु्रट्टी पाकर तब कोई काम करूंगा।
अब महाराज जयसिंह के चेहरे पर कुछ खुशी दिखाई देने लगी। दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ”पंडित बद्रीनाथ को आप अपने मकान में उतारिए और इनके आराम की कुल चीजों का बंदोबस्त कर दीजिए जिससे किसी बात की तकलीफ न हो, मैं भी अब उठता हूं।”
बद्री - शाम को महाराज के दर्शन कहां होंगे? क्योंकि उसी वक्त मेरी बातचीत होगी?
जय - जिस वक्त चाहो मुझसे मुलाकात होगी।
महाराज जयसिंह ने दरबार बर्खास्त किया, पंडित बद्रीनाथ को साथ ले दीवान हरदयालसिंह अपने मकान पर आये और उनकी जरूरत की चीजों का पूरा - पूरा इंतजाम कर दिया।
जो कुछ दिन बाकी था पंडित बद्रीनाथ ने जालिमखां के गिरफ्तार करने की तरकीब सोचने में गुजारा। शाम के वक्त दीवान हरदयालसिंह को साथ ले महाराज जयसिंह से मिलने गये, मालूम हुआ कि महाराज बाग की सैर कर रहे हैं, वे दोनों बाग में गये।
उस वक्त वहां महाराज के पास बहुत से आदमी थे, पंडित बद्रीनाथ के आते ही वे लोग बिदा कर दिए गए, सिर्फ बद्रीनाथ और हरदयाल महाराज के पास रह गये।
पहले कुछ देर तक चुनार के राजा शिवदत्तसिंह के बारे में बातचीत होती रही, इसके बाद महाराज ने पूछा कि ”नौगढ़ में जालिमखां की खबर कैसे पहुंची?”
बद्री - नौगढ़ में भी इसी तरह के इश्तिहार चिपकाए हैं, जिनके पढ़ने से मालूम हुआ कि विजयगढ़ में वह उपद्रव मचावेगा, इसीलिए हमारे महाराज ने मुझे यहां भेजाहै।
महाराज - इस दुष्ट जालिमखां ने वहां तो किसी की जान न ली?
बद्री - नहीं, वहां अभी उसका दाव नहीं लगा, ऐयार लोग भी बड़ी मुस्तैदी से उसकी गिरफ्तारी की फिक्र में लगे हुए हैं।
महाराज - यहां तो उसने कई खून किए।
बद्री - शहर में आते ही मुझे खबर लग चुकी है, खैर देखा जायगा।
महाराज - अगर ज्योतिषीजी को भी साथ लाते तो उनके रमल की मदद से बहुत जल्द गिरफ्तार हो जाता।
बद्री - महाराज, जरा इसकी बहादुरी की तरफ ख्याल कीजिए कि इश्तिहार देकर डंके की चोट काम कर रहा है! ऐसे शख्स की गिरफ्तारी भी उसी तरह होनी चाहिए। ज्योतिषीजी की मदद की इसमें क्या जरूरत है।
महा - देखें वह कैसे गिरफ्तार होता है, शहर भर उसके खौफ से कांप रहाहै।
बद्री - घबराइए नहीं, सुबह - शाम में किसी न किसी को गिरफ्तार करता हूं।
महाराज - क्या वे लोग कई आदमी हैं?
बद्री - जरूर कई आदमी होंगे। यह अकेले का काम नहीं है कि यहां से नौगढ़ तक की खबर रखे और दोनों तरफ नुकसान पहुंचाने की नीयत करे।
महाराज - अच्छा जो चाहो करो, तुम्हारे आ जाने से बहुत कुछ ढाढ़स हो गई नहीं तो बड़ी ही फिक्र लगी हुई थी।
बद्री - अब मैं रुखसत होऊंगा बहुत कुछ काम करना है।
हरदयाल - क्या आप डेरे की तरफ नहीं जाएंगे?
बद्री - कोई जरूरत नहीं, मैं पूरे बंदोबस्त से आया हूं और जिधर जी चाहेगा चल दूंगा।
कुछ रात जा चुकी थी जब महाराज से बिदा हो बद्रीनाथ जालिमखां की टोह में रवाना हुए।