परिच्छेद 38
नक्षत्रराय ने छत्रमाणिक्य नाम धारण करके विशाल समारोह में राजपद ग्रहण किया। राजकोष में अधिक धन नहीं था। प्रजा-जनों का सर्वस्व छीन कर वायदे के अनुसार धन देकर मुगल सैनिकों को विदा करना पड़ा। छत्रमाणिक्य घोरतर दुर्भिक्ष और दारिद्र्य के साथ शासन करने लगा। चारों ओर से अभिशाप और क्रंदन की वर्षा होने लगी।
जिस सिंहासन पर गोविन्दमाणिक्य बैठते थे, जिस शैया पर गोविन्दमाणिक्य शयन करते थे, जो सब लोग गोविन्दमाणिक्य के प्रिय सहचर थे, वे जैसे रात-दिन चुपचाप छत्रमाणिक्य की भर्त्सना करने लगे। यह धीरे-धीरे छत्रमाणिक्य को असहनीय लगने लगा। उसने गोविन्दमाणिक्य से जुड़े समस्त चिह्नों को अपनी आँखों के सामने से हटाना शुरू कर दिया। गोविन्दमाणिक्य द्वारा व्यवहार की जाने वाली सामग्री नष्ट करके फेंक दी और उनके प्रिय अनुचरों को भगा दिया। वह गोविन्दमाणिक्य की नाम-गंध जरा भी सहन नहीं कर पाता था। गोविन्दमाणिक्य का कोई उल्लेख होते ही उसे लगता था, सभी उसे ही लक्ष्य करके यह उल्लेख कर रहे हैं। हमेशा लगता रहता, सभी राजा के रूप में उसे पर्याप्त सम्मान नहीं दे रहे हैं; इसी कारण अचानक अकारण गुस्सा हो उठता था, सभासदों को बहुत परेशान रहना पड़ता था।
वह राज-कार्य जरा भी नहीं समझता था; किन्तु कोई सत्परामर्श देने आता, तो चिढ़ कर कहता, "मैं इसे समझता नहीं! क्या मैं तुम्हें मूर्ख लगता हूँ!"
उसे लगता, सिंहासन का अनधिकारी और राज्य का अपहरणकर्ता समझ कर मन-ही-मन सभी उसकी अवहेलना कर रहे हैं। इसी कारण वह बलपूर्वक अत्यधिक राजा हो उठा; असंगत आचरण करते हुए सभी जगह अपने एकाधिपत्य का प्रदर्शन करने लगा। वह जिसे रखना चाहे, रख सकता है, जिसे मारना चाहे, मार सकता है, इसे विशेष रूप से प्रमाणित करने के लिए, जिसे रखना उचित नहीं था, उसे रख लिया - जिसे मारना उचित नहीं था, उसे मार डाला। प्रजा अन्न के अभाव में मर रही है, किन्तु उसके दिन-रात के समारोहों का अंत नहीं - अहर्निश नृत्य-गीत-वाद्य-भोज। इसके पहले किसी राजा ने सिंहासन पर बैठ कर राज्य-शासन के सम्पूर्ण पंखों को फैला कर ऐसा अपूर्व नृत्य नहीं किया था।
प्रजा-जन चारों ओर असंतोष प्रकट करने लगे - इससे छत्रमाणिक्य अत्यधिक जल-भुन गया; उसने सोचा, यह केवल राजा के प्रति असम्मान का प्रदर्शन है। उसने असंतोष के दुगुने कारण उत्पन्न करते हुए बलपूर्वक उत्पीड़न करके भय दिखा कर सभी के मुँह बंद कर दिए, सम्पूर्ण राज्य में निद्रित निशा के समान सन्नाटा छा गया। वही शांत नक्षत्रराय छत्रमाणिक्य बन कर सहसा इस प्रकार का आचरण करेगा, इसमें आश्चर्य वाली कोई बात नहीं थी। बहुत बार दुर्बल हृदय वाले प्रभुत्व पाने पर इसी तरह प्रचण्ड और स्वेच्छाचारी हो उठते हैं।
रघुपति का काम पूरा हो गया। उसके हृदय में प्रतिहिंसा वृत्ति अंत तक समान रूप से जगी हुई थी, ऐसा नहीं है। धीरे-धीरे प्रतिहिंसा का भाव मिटा कर, हाथ में लिए काम को संपन्न कर डालना ही उसका एकमात्र व्रत हो उठा था। नाना कौशलों से समस्त बाधा-विपत्तियों को पार करके अहर्निश एक उद्देश्य की पूर्ति में लगे रह कर वह एक प्रकार का मादक सुख अनुभव कर रहा था। अंतत: वह उद्देश्य सिद्ध हो गया। अब संसार में और कहीं भी सुख नहीं।
रघुपति ने अपने मंदिर में जाकर देखा, वहाँ कोई जन-प्राणी नहीं है। यद्यपि रघुपति अच्छी तरह जानता था कि जयसिंह नहीं है, तब भी मंदिर में प्रवेश करके मानो दूसरी बार नए सिरे से जाना कि जयसिंह नहीं है। एक-एक बार लगने लगा कि जैसे है, उसके बाद याद आने लगा कि नहीं है। सहसा हवा से किवाड़ खुल गए, उसने चौंकते हुए घूम कर देखा, जयसिंह नहीं आया। जयसिंह जिस कमरे में रहता था, लगा कि उस कमरे में जयसिंह हो भी सकता है - लेकिन बहुत देर तक उस कमरे में प्रवेश नहीं कर पाया, मन में डर लगने लगा कि अगर जाकर देखने पर जयसिंह वहाँ न हुआ!
अंत में जब गोधूलि के धुँधलके में जंगल की छाया गाढ़ी छाया में मिल गई, तब रघुपति ने धीरे-धीरे जयसिंह के कमरे में प्रवेश किया - शून्य निर्जन कमरा समाधि-भवन के समान निस्तब्ध है। कमरे में एक किनारे लकड़ी का एक संदूक और संदूक के बगल में जयसिंह के एक जोड़ा खड़ाऊँ धूल में मैले पड़े हैं। दीवार पर जयसिंह के अपने हाथ से आँका गया काली का चित्र है। कमरे के पूरब के कोने में धातु का एक दीपक धातु के आधार-स्तंभ पर रखा है, पिछले बरस से इस दीपक को किसी ने नहीं जलाया - वह मकड़ी के जाले से ढक गया है। पास की दीवार पर दीपा-शिखा का काला दाग पड़ा हुआ है। कमरे में पूर्वोक्त कुछ चीजों के अलावा और कुछ नहीं है। रघुपति ने गहरा दीर्घ निश्वास छोड़ा। वह निश्वास शून्य कक्ष में ध्वनित हो उठा। धीरे-धीरे अंधकार में और कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया। केवल एक छिपकली बीच-बीच में टिक् टिक् करने लगी। जाड़े की हवा खुले दरवाजे से कमरे में आने लगी। रघुपति संदूक पर बैठ कर काँपने लगा।
इसी प्रकार इस निर्जन मंदिर में एक माह व्यतीत किया, किन्तु ऐसे अधिक दिन नहीं कटते। पौरोहित्य छोडना पड़ा। राज-सभा में पहुँचा। राजकाज में हस्तक्षेप किया। देखा, अन्याय, उत्पीड़न और अव्यवस्था छत्रमाणिक्य के नाम पर शासन कर रहे हैं। उसने राज्य में व्यवस्था स्थापित करने की चेष्टा की। छत्रमाणिक्य को परामर्श देने लगा।
छत्रमाणिक्य चिढ़ कर बोला, "ठाकुर, तुम राज-शासन-कार्य के बारे में क्या जानो? ये सब विषय तुम जरा भी नहीं समझते।"
रघुपति राजा का प्रताप देख कर अवाक् रह गया। देखा, वह नक्षत्रराय और नहीं रहा। धीरे-धीरे राजा के साथ रघुपति की खटपट होने लगी। छत्रमाणिक्य ने सोचा, रघुपति केवल यही समझ रहा है कि उसी ने उसे राजा बनाया है। इसीलिए रघुपति को देखने पर उसे असह्य प्रतीत होने लगता।
अंत में एक दिन साफ-साफ बोला, "ठाकुर, तुम अपने मंदिर का काम देखो। राजसभा में तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है।"
रघुपति ने छत्रमाणिक्य पर जलती हुई तीव्र दृष्टि डाली। छत्रमाणिक्य थोड़ा लज्जित होकर मुँह फेर कर चला गया।