परिच्छेद 32
जब त्रिपुरा में चूहों का उत्पात शुरू हुआ था, तब श्रावण माह था। उस समय खेतों में केवल भुट्टे फल रहे थे और पहाड़ी खेतों में धान में दाने आने प्रारम्भ हुए थे। किसी तरह तीन महीने कट गए - अगहन के महीने में जब निचले खेतों में धान काटने का समय आया, तो देश में आनंद मच गया। किसान (रवींद्रनाथ टैगोर की टिप्पणी : वास्तव में इन लोगों को किसान नहीं कहा जा सकता। कारण, ये विधान के अनुसार खेती नहीं करते। जंगल जला कर बरसात के प्रारम्भ में केवल बीज डाल देते हैं। इस प्रकार के खेत को जूम कहा जाता है, खेती करने वालों को जूमिया बोला जाता है।) स्त्रियाँ, बालक, युवक वृद्ध, सभी मिल कर हाथों में हँसिया लिए खेतों में जा पहुँचे। हैया हैया की ध्वनि के साथ एक-दूसरे को उत्साहित करने लगे। जूमिया रमणियों के गीतों से खेत-खलिहान गूँज उठे। राजा के प्रति असंतोष दूर हो गया - राज्य में शान्ति छा गई। ऐसे समय समाचार आया, नक्षत्रराय राज्य पर आक्रमण करने के उद्देश्य से भारी संख्या में सैनिक लेकर त्रिपुरा राज्य की सीमा पर आ पहुँचा है और बहुत लूटपाट तथा उत्पीड़न आरम्भ कर दिया है - इस समाचार से सम्पूर्ण राज्य भयभीत हो उठा।
इस समाचार ने राजा के हृदय को छुरी के समान बींध डाला। पूरे ही दिन बींधता रहा। उन्हें रह-रह कर हर बार नए रूप में अनुभव होने लगा, नक्षत्रराय उन पर आक्रमण करने आ रहा है। नक्षत्रराय का सरल सुन्दर चेहरा सैकड़ों-सैकड़ों बार उनकी स्नेहभरी आँखों के सम्मुख दिखाई पडने लगा और उसी के साथ महसूस होने लगा, वही नक्षत्रराय कितने सारे सैनिक इकट्ठे करके तलवार हाथ में लिए उन पर आक्रमण करने आ रहा है। एक-एक बार उनके मन में इच्छा होने लगी, एक भी सैनिक लिए बिना विशाल रण-क्षेत्र में नक्षत्रराय के सामने अकेले खड़े होकर पूरी छाती खोल कर नक्षत्रराय के हजारों सैनिकों की तलवारें एक ही साथ अपनी छाती में भुँकवा लें।
वे ध्रुव को निकट खींच कर बोले, "ध्रुव, क्या तू भी इस मुकुट के लिए मेरे साथ झगड़ा कर सकता है?" कहते हुए मुकुट जमीन पर फेंक दिया, एक बड़ा मोती टूट कर बिखर गया।
ध्रुव ने उत्सुकता के साथ हाथ बढ़ा कर कहा, "मैं लूँगा।"
राजा ने ध्रुव के सिर पर मुकुट रख कर उसे गोद में लेकर कहा, "यह ले - मैं किसी के साथ झगड़ा करना नहीं चाहता।" कहते हुए बहुत आवेग में ध्रुव को छाती में भींच लिया।
उसके बाद राजा पूरे दिन 'यह केवल मेरे ही पाप का दण्ड है' कह कर अपने साथ तर्क-वितर्क करते रहे। अन्यथा भाई कभी भाई पर आक्रमण नहीं करता। यह सोच कर उन्हें थोड़ी-सी सांत्वना प्राप्त हुई। उन्होंने सोचा, यही ईश्वर का विधान है। जगतपति के दरबार से आदेश आया है, नक्षत्रराय केवल अपने मानव-हृदय के उत्साह में उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। यह सोच कर उनके आहत स्नेह को किंचित शान्ति मिली। पाप वे अपने कन्धों पर लेने को तैयार हैं - मानो उससे नक्षत्रराय के पाप का भार कुछ कम हो जाएगा।
बिल्वन ने आकर कहा, "महाराज, यह क्या आकाश की ओर ताकते हुए सोचते रहने का है?"
राजा ने कहा, "ठाकुर, यह सब मेरे ही पाप का फल है।"
बिल्वन थोड़ा नाराज होकर बोला, "महाराज, यह सब बात सुन कर मेरा धैर्य चुक जाता है। किसने कहा, दुःख पाप का ही फल होता है, पुण्य का फल भी तो हो सकता है। कितने ही धर्मात्मा पूरा जीवन दुःख में बिता कर गए हैं।"
राजा निरुत्तर हो रहे।
बिल्वन ने पूछा, "महाराज ने कौन-सा पाप किया था, जिसके फलस्वरूप यह घटना घटी?"
राजा ने कहा, "अपने भाई को निर्वासित किया था।"
बिल्वन ने कहा, "आपने भाई को निर्वासित नहीं किया है। दोषी को निर्वासित किया है।"
राजा ने कहा, "दोषी होते हुए भी भाई के निर्वासन का पाप तो है ही। उसके परिणाम से तो बचा नहीं जा सकता। कौरव दुराचारी होते हुए भी पाण्डव उनका वध करके प्रसन्न चित्त राज-सुख भोग नहीं कर सके। यज्ञ करके प्रायश्चित किया। पाण्डवों ने कौरवों से राज्य ले लिया, कौरवों ने मर कर पाण्डवों का राज्य हरण कर लिया। मैंने नक्षत्र को निर्वासित किया, नक्षत्र मुझे निर्वासित करने आ रहा है।"
बिल्वन ने कहा, "पाण्डवों ने पाप का दण्ड देने के लिए कौरवों के साथ युद्ध नहीं किया, उन्होंने राज्य-प्राप्ति के लिए युद्ध किया था। किन्तु महाराज ने पाप का दण्ड देकर अपने सुख-दुःख की उपेक्षा करके धर्म का पालन किया था। मुझे तो इसमें कोई पाप दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसके बावजूद प्रायश्चित का विधान देने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं ब्राह्मण उपस्थित हूँ, मुझे संतुष्ट कर देने भर से प्रायश्चित हो जाएगा।"
राजा थोड़ा हँस कर चुप हो गए।
बिल्वन ने कहा, "जो हो, अब युद्ध की तैयारी कीजिए। और विलम्ब मत कीजिए।"
राजा ने कहा, "मैं युद्ध नहीं करूँगा।"
बिल्वन ने कहा, "वह हो ही नहीं सकता। आप बैठे-बैठे सोचिए। मैं तब तक सैनिक इकट्ठे करने की कोशिश करता हूँ। इस समय सभी जूम में गए हैं, पर्याप्त सैनिक मिलना कठिन है।"
इतना कह कर बिल्वन और किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना चला गया।
पता नहीं, अचानक ध्रुव के मन में क्या आया; उसने राजा के निकट आकर उनके मुँह की ओर ताकते हुए पूछा, "चाचा कहाँ है?"
ध्रुव नक्षत्र को चाचा कहता था।
राजा ने कहा, "चाचा आ रहा है, ध्रुव।"
उनकी पलकें थोड़ी गीली हो आईं।