परिच्छेद 31
नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का स्वामी बना रास्ते में तेंतुले नाम के एक छोटे-से गाँव में विश्राम कर रहा था। प्रात:काल रघुपति ने आकर कहा, "महाराज, यात्रा पर निकलना है, तैयार हो जाइए।"
रघुपति के मुँह से सहसा महाराज शब्द अत्यंत मधुर सुनाई पड़ा। नक्षत्रराय उल्लसित हो उठा। वह कल्पना में संसार के सभी लोगों के मुँह से महाराज संबोधन सुनने लगा। मन-ही-मन त्रिपुरा के उच्च सिंहासन पर चढ़ कर सभा को शोभायमान करते हुए बैठ गया। मन के आनंद में बोला, "ठाकुर, आपको कभी भी छोड़ा नहीं जाएगा। आपको राजा-सभा में रहना होगा। आप क्या चाहते हैं, वही मुझसे कहिए।"
नक्षत्रराय ने उसी समय अनायास मन-ही-मन एक विशाल जागीर रघुपति को दान कर दी।
रघुपति ने कहा, "मुझे कुछ नहीं चाहिए।"
नक्षत्रराय ने कहा, "यह क्या बात हुई? ठाकुर, वह नहीं होगा। कुछ लेना ही पड़ेगा। कयलासर परगना मैंने आपको दिया - आप लिखा-पढ़ी करवा लीजिए।"
रघुपति ने कहा, "वह सब बाद में देखा जाएगा।"
रघुपति ने कहा, "बाद में क्यों, मैं अभी दूँगा। सम्पूर्ण कयलासर परगना आपका हुआ; मैं एक पैसा लगान नहीं लूँगा।"
कहते हुए नक्षत्रराय सिर उठा कर एकदम सीधा होकर बैठ गया।
रघुपति ने कहा, "मरने पर तीन हाथ जमीन मिल जाए, तो ही खुश हो जाऊँगा। मैं और कुछ नहीं चाहता।" कह कर रघुपति चला गया। उसे जयसिंह की याद आई। अगर जयसिंह रहता, तो पुरस्कार के रूप में कुछ लेता - जब जयसिंह ही नहीं रहा, तो सम्पूर्ण त्रिपुरा राज्य मिट्टी के ढेर के अतिरिक्त कुछ और प्रतीत नहीं हुआ।
रघुपति इन दिनों नक्षत्रराय को राज्याभिमान में मत्त बनाने की चेष्टा कर रहा है। सके मन में डर है कि कहीं इतनी तैयारी करके भी सब कुछ व्यर्थ न चला जाए, कहीं दुर्बल-स्वभाव नक्षत्रराय त्रिपुरा पहुँच कर युद्ध किए बिना ही राजा का बंदी न बन जाए! लेकिन दुर्बल हृदय में एक बार राज-मद उत्पन्न हो जाए, तो और सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ती। रघुपति नक्षत्रराय के प्रति और अवज्ञा नहीं दिखाता, उसके प्रति बात-बात में सम्मान प्रदर्शित करता रहता है। हर विषय में उसका मौखिक आदेश लेता है। उसे मुगल सैनिक महाराजा साहब संबोधित करते हैं, उसे देखते ही हड़बड़ा उठते हैं - जिस प्रकार हवा चलने पर सारी फसल झुक जाती है, उसी प्रकार नक्षत्रराय के आकर खड़ा होते ही कतारबद्ध मुगल सैनिक एक साथ सिर झुका कर सलाम करते हैं। सेनापति उसे शीघ्रतापूर्वक सम्मान के साथ अभिवादन करता है। वह सैकड़ों-सैकड़ों खुली तलवारों की चमक के बीच विशालकाय हाथी की पीठ पर रखे स्वर्ण मण्डित, राजचिह्न अंकित हौदे पर चढ़ कर यात्रा करता है, उल्लासजनक बाजा साथ-साथ बजता रहता है - पताकाधारी साथ-साथ राज-पताका लिए चलते हैं। वह जहाँ से होकर गुजरता है, वहाँ के ग्रामवासी सैनिकों के भय से घरबार छोड़ कर भाग जाते हैं। उनका भय देख कर नक्षत्रराय के मन में गर्व उत्पन्न होता है। उसे लगता है, 'मैं दिग्विजय करते हुए चल रहा हूँ।' छोटे-छोटे जमींदार तरह-तरह के उपहार भेंट करके उसे सलाम कर जाते हैं - वे परिजित राजाओं जैसे प्रतीत होते हैं; महाभारत के दिग्विजयी पाण्डवों की बात याद आती है।
एक दिन सैनिक आकर सलाम करके बोले, "महाराजा साहब!"
नक्षत्रराय सीधा होकर बैठ गया।
"हम लोग महाराज के लिए जान देने आए हैं - हम प्राणों की परवाह नहीं करते। हमारा हमेशा का दस्तूर है, युद्ध में जाने के मार्ग में हम गाँव लूटते हुए जाते हैं - इसे किसी शास्त्र में दोष नहीं बताया गया है।"
नक्षत्रराय ने गर्दन हिला कर कहा, "ठीक बात है, ठीक बात है।"
सैनिक बोले, "ब्राह्मण-ठाकुर ने हमें लूट करने से मना कर दिया है। हम जान देने जा रहे हैं, किन्तु जरा-सी लूट भी नहीं कर पाएँगे, यह बड़ा अन्याय है।"
नक्षत्रराय ने फिर से गर्दन हिला कर कहा, "ठीक बात है, ठीक बात है।"
"अगर महाराज का हुकुम मिले, तो हम लोग ब्राह्मण-ठाकुर की बात न मान कर लूट करने जाएँ!"
नक्षत्रराय ने बड़े दर्प के साथ कहा, "ब्राह्मण-ठाकुर कौन है! ब्राह्मण-ठाकुर क्या जानता है! मैं तुम लोगों को हुकुम देता हूँ, तुम लूटपाट करने जाओ।"
कह कर एक बार इधर-उधर ताक कर देखा, कहीं भी रघुपति को न देख कर निश्चिन्त हुआ।
लेकिन इस प्रकार निश्शंक भाव से रघुपति की उपेक्षा करके वह मन-ही-मन अत्यधिक आनंदित हुआ। उसकी शिरा-शिरा में शक्ति-मद मदिरा के समान बहने लगा। संसार को नवीन दृष्टि से देखने लगा। कल्पना के बैलून पर चढ़ कर जैसे पृथिवी बहुत नीचे उड़ने वाले मेघों के समान अदृश्य हो गई। यहाँ तक कि बीच-बीच में कभी-कभी उसे रघुपति भी नगण्य लगने लगा। सहसा ताकत के साथ गोविन्दमाणिक्य पर अत्यधिक क्रोधित हो उठा। बार-बार मन-ही-मन कहने लगा, 'मेरा निर्वासन! एक साधारण प्रजा-जन के समान मुझे न्याय-सभा में बुलाना! अब देखता हूँ, कौन किसे निर्वासित करता है! इस बार त्रिपुरावासी नक्षत्रराय का प्रताप देखेंगे।'
नक्षत्रराय खुशी और घमण्ड से फूल गया।
निरीह ग्रामवासियों के अनर्थक उत्पीड़न और लूटपाट से रघुपति अत्यंत असंतुष्ट था। उसने रोकने की बहुत कोशिशें कीं। किन्तु सैनिकों ने नक्षत्रराय की आज्ञा पाकर उसकी अवहेलना कर दी। वह नक्षत्रराय के पास आकर बोला, "असहाय ग्रामवासियों पर यह अत्याचार क्यों!"
नक्षत्रराय ने कहा, "ठाकुर, ये सब विषय आप अच्छी तरह नहीं समझते। युद्ध-काल में सैनिकों को लूटपाट का निषेध करके निरुत्साहित करना अच्छा नहीं है।"
रघुपति नक्षत्रराय की बात सुन कर थोड़ा अचंभित हुआ। सहसा नक्षत्रराय का श्रेष्ठताभिमान देख कर वह मन-ही-मन हँसा। बोला, "अभी लूटपाट करने देकर बाद में इन्हें सँभाल पाना कठिन होगा। समस्त त्रिपुरा लूट लेंगे।"
नक्षत्रराय ने कहा, "उसमें हानि क्या है? मैं तो वही चाहता हूँ। त्रिपुरा एक बार समझे, नक्षत्रराय को निर्वासित करने का क्या फल होता है! ठाकुर, ये सारी बातें आप बिल्कुल नहीं समझते - आपने तो कभी युद्ध किया नहीं।"
रघुपति ने मन-ही-मन बड़ा आनंद अनुभव किया। लेकिन उत्तर दिए बिना ही चला गया। नक्षत्रराय नितांत पुतली जैसा न होकर थोड़ा कठोर मनुष्य के समान बन जाए, यही उसकी इच्छा थी।