परिच्छेद 11
नक्षत्रराय जब राजा का हाथ पकड़े जंगल से घर लौट रहा था, तब आकाश से थोड़ा-थोड़ा उजाला आ रहा था - किन्तु नीचे जंगल में घना अंधेरा छा रहा है। मानो अंधकार की बाढ़ आ रही है, केवल पेड़ों की चोटियाँ ऊपर से बची हैं। धीरे-धीरे वे भी डूब जाएँगी; तब अंधकार से ढक कर आकाश पृथिवी एक हो जाएँगे।
राजा महल के रास्ते पर न जाकर मंदिर की ओर गए। मंदिर में संध्या-आरती समाप्त करके रघुपति और जयसिंह एक दीपक जलाए कुटिया में बैठे हैं। दोनों ही चुपचाप अपनी-अपनी चिन्ता में डूबे हैं। दीपक के क्षीण प्रकाश में केवल दोनों के चेहरे का अंधकार दिखाई दे रहा है। नक्षत्रराय रघुपति को देख कर चेहरा नहीं उठा पाया; राजा की परछाईं में खड़ा जमीन की ओर देखता रहा - राजा उसे अपने निकट खींच कर, मजबूती से उसका हाथ पकड़ कर खड़े हो गए और एक बार स्थिर दृष्टि से रघुपति के चेहरे पर देखा। रघुपति ने तीक्ष्ण दृष्टि से नक्षत्रराय पर कटाक्षपात किया। अंत में राजा ने रघुपति को प्रणाम किया, नक्षत्रराय ने भी उनका अनुसरण किया। रघुपति ने प्रणाम ग्रहण करके गंभीर वाणी में कहा, "जयोस्तु - राज्य का कुशल?"
राजा थोड़ा रुक कर बोले, "ठाकुर, आशीर्वाद दीजिए, राज्य का अमंगल न हो। इस राज्य में माँ की सभी संतानें सद्भाव में प्रेम में मिल कर रहें, इस राज्य में कोई भाई को भाई से न छीने, जहाँ प्रेम है, वहाँ कोई हिंसा की प्रतिष्ठा न करे। राज्य के अमंगल की आशंका से ही आया हूँ। पाप-संकल्प के घर्षण से दावानल जल सकता है - रोकिए, शान्ति की वर्षा कीजिए, संसार को शीतलता प्रदान कीजिए।"
रघुपति ने कहा, "देवता का रोषानल जल उठने पर कौन उसे बुझा सकता है? एक अपराधी के कारण उस अग्नि में सहस्रों निरपराधी भस्म हो जाते हैं।"
राजा बोले, "वही तो डर है, उसी कारण तो थरथराहट हो रही है। कोई उस बात को समझाने पर भी क्यों नहीं समझता। क्या आप नहीं जानते, इस राज्य में देवता के नाम पर देवता के विधान का उल्लंघन किया जा रहा है? उसी के चलते अमंगल की आशंका में आज शाम को यहाँ आया हूँ - यहाँ पाप का वृक्ष रोप कर मेरे इस धन-धान्य से भरे सुखमय राज्य में देवता के वज्र का आह्वान मत कीजिए। आपसे यह बात कहे जाता हूँ, यह बात कहने ही मैं आज आया था।"
कहते हुए महाराज ने रघुपति के चेहरे पर अपनी मर्मभेदी दृष्टि स्थापित कर दी। राजा की सुगम्भीर दृढ आवाज रुद्ध तूफान के समान कुटी में कम्पायमान होने लगी। रघुपति ने कोई उत्तर नहीं दिया, जनेऊ पकड़ कर इधर-उधर करने लगा। राजा प्रणाम करके नक्षत्रराय का हाथ पकड़ कर बाहर निकल आए, साथ-साथ जयसिंह भी बाहर आ गया। कुटी में केवल एक दीपक, रघुपति और रघुपति की विशाल परछाईं रह गई।
अब तक आकाश का उजाला छिप चुका है। तारे बादलों में छिप गए हैं। आकाश के कोने-कोने में अंधकार है। पुरवा हवा में उस घने अंधकार में कहीं से कदम्ब के फूलों की गंध आ रही है और जंगल में मर्मर ध्वनि सुनाई पड़ रही है। राजा इस परिचित मार्ग पर चिन्ता में डूबे जा रहे हैं, सहसा पीछे से सुनाई पड़ा, किसी ने पुकारा - "महाराज!"
राजा ने पीछे मुड कर पूछा, "तुम कौन हो?"
परिचित स्वर ने कहा, "मैं आपका अधम सेवक, मैं जयसिंह। महाराज, आप मेरे गुरु हैं, मेरे स्वामी हैं। आपके अलावा मेरा और कोई नहीं है। जिस प्रकार आप अपने छोटे भाई का हाथ पकड़ कर अंधकार में से लिए जा रहे हैं, उसी प्रकार मेरा हाथ भी पकड़ लीजिए, मुझे भी साथ ले चलिए; मैं गहरे अँधेरे में गिर गया हूँ। किसमें मेरा भला होगा, किसमें बुरा, कुछ भी नहीं जानता। मैं एक बार बाएँ जा रहा हूँ, एक बार दाएँ, मेरा कोई कर्णधार नहीं है।"
उसी अंधकार में आँसू गिरने लगे, कोई नहीं देख पाया, केवल आवेग भरा जयसिंह का आर्द्र स्वर काँपते हुए राजा के कानों में पडता रहा। स्तब्ध स्थिर अंधकार वायु-चंचल समुद्र के समान आंदोलित होने लगा। राजा जयसिंह का हाथ पकड़ कर बोले, "चलो, मेरे संग महल में चलो।"