परिच्छेद 28
अंतत: राजधानी पहुँच गए। पराजय और पलायन के बाद शुजा नवीन सैन्य-संगठन की कोशिश में लगा है। किन्तु राज-कोष में अधिक धन नहीं है। प्रजा-जन कर के भार से पीड़ित हैं। इसी बीच दारा को पराजित और निहत करके औरंगजेब दिल्ली के सिंहासन पर बैठ गया है। शुजा यह समाचार पाकर बहुत विचलित हो गया। किन्तु सेना और सामंत किसी भी तरह तैयार नहीं थे, इसी कारण कुछ समय मिल जाने की आशा में उसने बहाना बना कर एक दूत औरंगजेब के पास भेज दिया। कह कर भेजा, नयनों की ज्योति, हृदय के आनंद, परम स्नेहास्पद प्रियतम भ्राता औरंगजेब, सिंहासन पाने में सफल हुए, इससे शुजा की मृत देह को प्राण मिल गए - अब शुजा के लिए बंगाल के शासन की जिम्मेदारी नए सम्राट द्वारा स्वीकार कर लेने पर आनंद में और कुछ कमी नहीं रहेगी। औरंगजेब ने अत्यंत आदर के साथ दूत की अगवानी की। शुजा के शरीर, मन, स्वास्थ्य और शुजा के परिवार के कुशल-समाचार जानने के लिए विशेष उत्सुकता प्रकट की तथा कहा, "जब स्वयं सम्राट शाहजहाँ ने शुजा को बंगाल के शासन-कार्य हेतु नियुक्त किया है, तो और दूसरे स्वीकृति-पत्र की कोई आवश्यकता नहीं है।" ऐसे ही समय रघुपति शुजा के दरबार में जाकर उपस्थित हो गया।
शुजा ने कृतज्ञता और सम्मान के साथ अपने उद्धारकर्ता की अगवानी की। बोला, "क्या समाचार है?"
रघुपति ने कहा, "बादशाह से कुछ निवेदन है।"
शुजा ने मन-ही-मन सोचा, "निवेदन फिर किसके लिए? कुछ धन न माँग बैठे, तो बचूँ।"
रघुपति ने कहा, "मेरी प्रार्थना यही है कि…"
शुजा ने कहा, "ब्राह्मण, तुम्हारी प्रार्थना मैं निश्चय ही पूर्ण करूँगा। किन्तु कुछ दिन सबर करो। अभी राज-कोष में अधिक धन नहीं है।"
रघुपति ने कहा, "शहंशाह, चाँदी, सोना या और कोई धातु नहीं चाहिए, मुझे इस समय शोणित-इस्पात चाहिए। मेरी नालिश सुन लीजिए, मैं न्याय की प्रार्थना करता हूँ।"
शुजा ने कहा, "भारी मुश्किल है। अभी मेरे पास न्याय करने का समय नहीं है। ब्राह्मण, तुम बड़े असमय आए हो।"
रघुपति ने कहा, "शहजादे, समय असमय सभी का होता है। आप बादशाह हैं, आपका भी समय है; और मैं दरिद्र ब्राह्मण हूँ, मेरा भी है। आप अपने समय के अनुसार न्याय करने बैठेंगे, तो मेरा समय रहेगा कहाँ?"
शुजा निरुपाय होकर बोला, "भारी मुसीबत है। इतनी बातें सुनने की अपेक्षा तुम्हारी नालिश सुनना अच्छा है। बोलो।"
रघुपति ने कहा, "त्रिपुरा के राजा, गोविन्दमाणिक्य ने अपने छोटे भाई, नक्षत्रराय को बिना अपराध के निर्वासित कर दिया है…"
शुजा ने खीझ कर कहा, "ब्राह्मण, तुम दूसरे की नालिश लेकर मेरा समय क्यों नष्ट कर रहे हो? अभी इस सब का न्याय करने का समय नहीं है।"
रघुपति ने कहा, "फरियादी राजधानी में हाजिर है।"
शुजा ने कहा, "जब वह स्वयं उपस्थित होकर अपने मुँह से नालिश पेश करेगा, तब विवेचना की जाएगी।"
रघुपति ने कहा, "उसे यहाँ कब हाजिर करूँ?"
शुजा ने कहा, "ब्राह्मण किसी भी तरह छोड़ेगा नहीं। अच्छा, एक सप्ताह बाद ले आना।"
रघुपति ने कहा, "अगर बादशाह हुकुम करें, तो मैं उसे कल ले आऊँ!"
शुजा ने खीझते हुए कहा, "अच्छा, कल ही ले आना।"
आज के लिए छुटकारा मिल गया। रघुपति ने विदा ली।
नक्षत्रराय ने कहा, "नवाब के सामने जाना है, लेकिन नजराना क्या लूँ?"
रघुपति ने कहा, "उसके लिए तुम्हें नहीं सोचना है।"
उसने नजराने के लिए डेढ़ लाख मुद्राएँ उपस्थित कर दीं।
रघुपति अगले दिन सुबह काँपते हृदय से नक्षत्रराय को लेकर शुजा के दरबार में आ पहुँचा। जब डेढ़ लाख रुपए नवाब के पैरों में रख दिए गए, तो उसकी मुखश्री वैसी अप्रसन्न प्रतीत नहीं हुई। नक्षत्रराय की नालिश अति सहजता से उसकी समझ में आ गई। वह बोला, "अब तुम लोग क्या चाहते हो, मुझे बताओ।"
रघुपति ने कहा, "गोविन्दमाणिक्य को निर्वासित करके उसके स्थान पर नक्षत्रराय को राजा बनाने की आज्ञा दी जाए।"
यद्यपि शुजा ने अपने भाई के सिंहासन में हस्तक्षेप करने में तनिक भी संकोच नहीं किया, तब भी इस मामले में उसके मन में कैसी एक आपत्ति उपस्थित हो गई। किन्तु इस समय उसे रघुपति की प्रार्थना पूर्ण करना ही सबसे सहज अनुभव हुआ - अन्यथा उसे डर है, रघुपति बहुत अधिक बकझक करेगा। विशेष रूप से उसे लगा कि डेढ़ लाख रुपया नजराना लेने के बाद भी आपत्ति करना अच्छा दिखाई नहीं देगा। वह बोला, "अच्छा, गोविन्दमाणिक्य के निर्वासन और नक्षत्रराय के राज्याभिषेक का आदेशपत्र तुम लोगों को देता हूँ, ले जाओ।"
रघुपति ने कहा, "बादशाह के कुछ सैनिक भी साथ भेजने होंगे।"
शुजा ने दृढ़ स्वर में कहा, "नहीं, नहीं, नहीं - वह नहीं होगा, युद्ध नहीं कर पाऊँगा।"
रघुपति ने कहा, "मैं और छत्तीस हजार रुपया युद्ध के व्ययस्वरूप रखे जा रहा हूँ। और नक्षत्रराय के त्रिपुरा का राजा बनते ही एक बरस का खजाना सेनापति के हाथ भिजवा दूँगा।"
शुजा को यह प्रस्ताव अत्यधिक युक्तिसंगत प्रतीत हुआ तथा मंत्री भी उसके साथ एकमत हो गए। रघुपति और नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का एक दल लेकर त्रिपुरा की ओर चल पड़े।