परिच्छेद 5
प्रात:काल नक्षत्रराय ने आकर रघुपति को प्रणाम करके पूछा, "ठाकुर, क्या आदेश है?"
रघुपति ने कहा, "तुम्हारे लिए माँ का आदेश है। चलो, माँ को प्रणाम करो।"
दोनों मंदिर में गए। जयसिंह भी साथ-साथ गया। नक्षत्रराय ने भुवनेश्वरी की प्रतिमा के सम्मुख साष्टांग प्रणति निवेदन किया।
रघुपति ने नक्षत्रराय से कहा, "कुमार, तुम राजा बनोगे।"
नक्षत्रराय ने कहा, "मैं राजा बनूँगा? पुरोहित जी क्या बोल रहे हैं, उसका कोई मतलब नहीं है।"
कह कर नक्षत्रराय ठठा कर हँसने लगा।
रघुपति ने कहा, "मैं कह रहा हूँ, तुम राजा बनोगे।"
नक्षत्रराय ने कहा, "आप कह रहे हैं, मैं राजा बनूँगा?"
कह कर रघुपति के चेहरे की ओर ताकता रहा।
रघुपति ने कहा, "मैं क्या झूठ बोल रहा हूँ?"
नक्षत्रराय ने कहा, "क्या आप झूठ बोल रहे हैं? वह कैसे होगा? देखिए पुरोहित जी, मैंने कल मेढक का सपना देखा है। अच्छा, जरा बताइए तो, मेढक का सपना देखने से क्या होता है?"
रघुपति ने हँसी दबाते हुए कहा, "बताओ तो, कैसा मेढक था! उसके सिर पर चिह्न तो था?"
नक्षत्रराय ने गर्व के साथ कहा, "उसके सिर पर चिह्न तो था ही। चिह्न न होने से कैसे चलेगा!"
रघुपति ने कहा, "ठीक है। तब तो तुम्हें राज तिलक की प्राप्ति होगी।"
नक्षत्रराय ने कहा, "तब मुझे राज तिलक की प्राप्ति होगी। आप कह रहे हैं, मुझे राज तिलक की प्राप्ति होगी? और अगर न हो?"
रघुपति ने कहा, "मेरा कहा व्यर्थ जाएगा? क्या कह रहे हो?"
नक्षत्रराय ने कहा, "नहीं, नहीं, यह बात नहीं हो रही है। आप कह रहे हैं ना कि मुझे राज तिलक की प्राप्ति होगी, सोचिए अगर न हुई! दैवात ऐसा हो नहीं कि - "
रघुपति ने कहा, "नहीं नहीं, इससे अन्यथा नहीं हो सकता।"
नक्षत्रराय ने कहा - "इससे अन्यथा नहीं हो सकता। आप कह रहे हैं, इससे अन्यथा नहीं हो सकता। देखिए पुरोहित जी, राजा हो जाने पर मैं आपको मंत्री बना दूँगा।"
रघुपति - "मंत्री-पद को मैं ठोकर मारता हूँ।"
नक्षत्रराय ने बड़े उदार भाव से कहा, "अच्छा, जयसिंह को मंत्री बना दूँगा।"
रघुपति ने कहा, "वह बात बाद में होगी। राजा बनने के पूर्व क्या करना होगा, पहले वह सुनो। माँ राज-रक्त देखना चाहती हैं, सपने में मुझे यही आदेश हुआ है।"
नक्षत्रराय ने कहा, "माँ राज-रक्त देखना चाहती हैं, सपने में आपको यही आदेश हुआ है। यह तो सही बात है।"
रघुपति ने कहा, "तुम्हें गोविन्द माणिक्य का रक्त लाना होगा।"
नक्षत्रराय थोड़ी देर तक मुँह फाड़े रहा। यह बात उतनी सही नहीं लगी।
रघुपति ने तीव्र स्वर में कहा, "सहसा भ्रातृ-स्नेह जाग उठा है क्या?"
नक्षत्रराय ने कृत्रिम हँसी हँसते हुए कहा, "हा हा, भ्रातृ-स्नेह! जो हो, पुरोहित जी ने ठीक ही कहा, भ्रातृ-स्नेह!"
ऐसी आनंद की बात, ऐसी हास्यकर बात मानो और नहीं हो सकती। भ्रातृ-स्नेह! कैसा लज्जा का विषय है! किन्तु अंतर्यामी जानते हैं, नक्षत्रराय के मन के भीतर भ्रातृ-स्नेह जाग रहा है, उसे हँसी में उड़ा देना आसान नहीं है।
रघुपति ने कहा, "तो क्या करोगे, बोलो।"
नक्षत्रराय ने कहा, "बोलिए, क्या करूँ?"
रघुपति - "ध्यानपूर्वक बात सुनो। तुम्हें माँ के दर्शन के लिए गोविन्द माणिक्य का रक्त लाना होगा।"
नक्षत्रराय ने मन्त्र के समान दोहराया, "माँ के दर्शन के लिए गोविन्द माणिक्य का रक्त लाना होगा।"
रघुपति नितांत घृणा के साथ बोल उठा, "ना, तुमसे कुछ नहीं होगा।"
नक्षत्रराय ने कहा, "क्यों नहीं होगा? जो बोला है, वही होगा। आप तो आदेश दे रहे हैं?"
रघुपति - "हाँ, मैं आदेश दे रहा हूँ।"
नक्षत्रराय - "क्या आदेश दे रहे हैं?"
रघुपति ने झुँझलाते हुए कहा, " माँ की इच्छा है, वे राज रक्त का दर्शन करेंगी। तुम गोविन्द माणिक्य का रक्त दिखा कर उनकी इच्छा पूर्ण करोगे, यही मेरा आदेश है।"
नक्षत्रराय - "मैं आज ही जाकर फतह खाँ को इस काम में लगा दूँगा।
रघुपति - "नहीं नहीं, और किसी आदमी को इस बारे में कुछ भी नहीं बताना। केवल जयसिंह को तुम्हारी सहायता के लिए नियुक्त करूँगा। कल प्रात:काल आओ, किस उपाय से इस काम को अंजाम देना है, कल बताऊँगा।"
नक्षत्रराय ने रघुपति से पीछा छुडा कर राहत की साँस ली। जितना शीघ्र हो सका, बाहर निकल आया।