इधर से अब्र उठकर जो गया है
इधर से अब्र उठकर जो गया है
हमारी ख़ाक पर भी रो गया है
मसाइब और थे पर दिल का जाना
अजब इक सानीहा सा हो गया है
मुकामिर-खाना-ऐ-आफाक वो है
के जो आया है याँ कुछ खो गया है
सरहाने 'मीर' के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है