श्लोक ६१ ते ६७
हिमाचलके किनारोके आस-पास विभिन्न सुन्दर वस्तुओ और दृश्योको देखते हुये तुम उस क्रौंच पर्वतके छिद्रसे, जो कि परशुरामजीके पराक्रमका प्रत्यक्ष प्रमाण है और बरसातमे हंस जिसके द्वारा मानससरोवरको जाते है, तिरछे और लम्बे होकर उत्तर दिशाकी ओर चलना । उस समय राजा बलिको बाँधनेके लिये तत्पर विष्णुके सावले पैरकी तरह तिरछे और लंबे तुम सुन्दर दिखोगे ॥६१॥
क्रौंच पर्वतके विवरसे निकलकर आकाशमे ऊपर उठते हुए तुम उस कैलासमे पहुँचना, जिसके जोड-जोड, रावण द्वारा हाथसे ऊपर उठाकर हिलानेसे ढीले पड गये है, जो इतना ऊँचा और स्वच्छ है कि देवांगनाएँ उसमे अपना प्रतिबिम्ब देखा करती है और जो अपनी ऊँची ऊँची सफ़ेद चोटियोसे आकाशको छूता हुआ ऐसा लगता है मानो शिवजीके प्रतिदिनके हँसीके ठहाके जमा होते जा रहे है ॥६२॥
चिकने पीसे हुए काजल जैसे तुम जब समीप पहुँचोगे तब तत्काल काटे हुए हाथीदात जैसे सफ़ेद उस कैलासपर्वतकी शोभा ऐसी हो जाएगी जैसे बलदेवजी अपने कन्धेपर सावला वस्त्र लटकाये हो, ऐसा मै समझता हूँ ॥६३॥
उस कैलासपर, कही डर न जाय इसलिये अपने सर्पमय आभूषण उतारकर शिवजीद्वारा हाथका सहारा दी गई पार्वतीजी यदि पैदल ही चल रही हो तो तुम उनके आगे-आगे चलना और जलके वेगको अन्दर ही रोककर अपने शरीरको टेढामेढा करके सीढी जैसे बन जाना, जिससे वे तुमपर आरुढ होकर आसानीसे मणिमय शिखरपर चढ जायँगी ॥६४॥
उस कैलासमे देवांगनाओके कंकणोको तीखी नोकोसे खरोच लगनेपर स्थान-स्थानसे जल गिराते हुये तुमको वे पानी का कल लगे स्नानागार सा बना डालेगी । हे मित्र ! गर्मीमे मिले हुए तुम्हारा यदि उनसे छुटकारा ना हो क्रिडोन्मत्त हुई उनको कठोर गर्जनाओसे डरा देना॥६५॥
हे मेघ ! सुनहरे कमलोको उगानेवाले मानससरोवरके जलको लेते हुये, ऐरावतकी क्षणभरके लिये मुखपट ( रुमाल ) का आनन्द देते हुये, सूक्षवस्त्रोको अपनी नम हवाओसे हिलाते हुये तुम विविध प्रकारकी चेष्टाओसे पूर्ण विलासोद्वारा उस पर्वतश्रेष्ठ कैलासका आनन्द लेना ॥६६॥
हे स्वेच्छाचारी मेघ ! जिस प्रकार कोई कामिनी, जिसका कि दुकुल ( साडी ) खिसक गया हो, अपने प्रियतमकी गोरमे बैठती है उसी प्रकार गंगारुप वस्त्र जिसका निकल गया है ऐसी कैलासके उत्संगमे स्थित उस अलकाको तुम नही पहचान सकोगे, यह बात नही है । जो कि ऊँचे-ऊँचे सात मञ्जिले भवनोसे भरी हुई वर्षाकालमे जलबूँदे टपकाते हुए मेघकी जालियोसे गुँथे बालोको धारण करती है ॥६७॥