श्लोक ५१ ते ५५
चर्मण्वतीको पार करके तुम दशपुरके मार्गसे जाना जहाँ कि मौहे मटकानेकी कलामे अभ्यस्त, पलक ऊपर उठानेसे काली, लाल और श्वेत मिश्रित विचित्र शोभा युक्त, कुन्दके सफ़ेद फ़ूलके साथ हिलते हुए काले भौरेके समान, दशपूर युवतीयोकी कौतुहलभरी दृष्टि पडेगी ॥५१॥
दशपूरसे आगे जाकर तुम ब्रह्मावर्त प्रदेशको अपनी अवगाहित करते हुए क्षत्रियोके निधन-सूचक उस कुरुक्षेत्रमे पहुँचना, जहाँ गाण्डीवधारी अर्जुनने अपने सैकडो तीक्ष्ण बाणोको बरसाकर क्षत्रियोके मस्तकोको इस प्रकार काट गिराया था जैसे तुम मूसलधार बरसकर कमलोको नष्ट कर देतो हो ॥५२॥
"कौरव पाण्डव दोनो हमारे बन्धु है, अत: युद्ध मे किसीकी हत्या न करुंगा" यह प्रण करके युद्धसे विमुख हुए हलधर बलदेवजीने अत्यन्त प्रिय लगनेवाली और रेवतीके नयनो जैसे लक्षणवाली ( उन्माद्क ) मदिराको छोडकर जिन जलोका पान किया था हे सौम्य ! उन सरस्वती नदीके जलोका अभिगमन करके तुम्हारा भी अन्तकरण शुद्ध हो जायगा तुम केवल देखने भरके काले रह जाओगे ॥५३॥
कुरुक्षेत्रसे आगे बढकर कनखलके पास हिमाचलसे उतरती हुई उस जान्हवीको जाना, जिसने राजा सगरके ६०००० पुत्रोको सीढियोमे चढाकर जैसे स्वर्ग पहुँचा दिया और जो पार्वतीजीकी चढी हुई त्योरियोकी परवाह न करके उन्हे अपने झागसे हँसती हुई सी तरंगरुप हाथोसे चन्द्रमाको छूती हुई शिवजीके मस्तकपर जा विराजी ॥५४॥
ऐरावत हाथीकी तरह पिछले भागको आकाशमे रख अगले भागको नीचे लटकाते हुये यदि तुम उस गंगाके स्वच्छ स्फ़टिक जैसे जलको पीना चाहोगे तो एकाएक सफ़ेद पानीमे फ़ैलती हुई तुम्हारी श्यामलछायासे वहीपर गंगा यमुनासे मिलती हुई सी मनोहर प्रतीत होगी, जबकि प्रयागके सिवा अन्यत्र उन दोनोका संगम नही होता ॥५५॥