श्लोक ६ ते १०
हे मेघ ! तुम पुष्करावर्तक नामके जगत्प्रसिद्ध मेघो के वंशो मे उत्पन्न हुए हो, इच्छानुकूल रुप धारण कर सकते हो देवराज इन्द्रके प्रधान सेवक हो, यह सब मै जानता हूँ । इसी कारण भाग्यवशात अपनी प्रियासे ( या अपने बान्धवोसे ) दूर बिछुडा हुआ मै, तुमसे याचना कर रहा हूँ । गुणवान व्यक्तिसे की गयी याचना निष्फ़ल होनेपर भी अच्छी है और नीच व्यक्तिसे सफ़ल हुई भी याचना अच्छी नही ॥६॥
हे जलद ! तुम संतप्त ( ग्रीष्म अथवा विरहसे दु:खी ) प्राणीयोकी रक्षा करनेवाले हो, अत: धनेश्चर कुबेर के क्रोधके कारण अपनी प्रियासे वियुक्त हुए मेरे, सन्देशको मेरी प्रियाके पास पहुँचा दो । तुम्हे अलका नामकी उस संपन्न यक्षोकी नगरमे जाना है जहाँके महल, समीपमे रहनेवाले शिवजीके मस्तकपर स्थित चन्द्रमाकी किरणोसे सदा उज्ज्वल ( प्रकाशमान ) रहते है ॥७॥
हे मेघ ! जब तुम आकाशमे चढ जाओगे तो प्रवासियोकी पत्नीयोको अपने अपने पतीयोके घर लौट आनेका विश्वास हो जायेगा और वे आश्वस्त होकर अपने खुले हुए केशोको ऊपर उठा-उठाकर तुम्हे देखेगी । क्योकि तुम्हारे उमड आनेपर अपनी विरहिणी पत्नीकी उपेक्षा कौन करेगा ? जब कि मेरी तरह किसी की आजीविका दूसरोके अधीन न हो ॥८॥
वायु तुम्हारे अनुकूल होकर जिस प्रकार तुम्हे आगे बढा रहा है, और ( जल से भरा हुआ देखकर ) प्रसन्न हुआ चातक तुम्हारे बायी ओर मधुर-मधुर बोली बोल रहा है ( यह तुम्हारी यात्राकी सफ़लता का द्योतक है ) । गर्भाधानका समय जानकर आकाशमे पंक्ति बनाकर उडती हुई बलाकाएँ भी निश्चय ही तुम्हारे पास आयेगी ॥९॥
हे मेघ ! यदि तुम बिना कही रुके अलकामे पहुँचोगे तो शापकी अवधिके दिन गिनती हुई और ( पुनर्मिलन की आशासे ) जो मरी नही, ऐसी पतिपरायण अपनी भाभीको ( अर्थात मेरी पत्नीको ) अवश्य देखोगे । क्योकी स्त्रियो का ह्रदय फ़ुलो के समान कोमल, प्राय: शीघ्र गिरनेवाला और प्रेमसे भरा होता है । वियोगके समय आशारुपी बन्ध ( वृत्त ) ही उसे रोके रहता है ॥१०॥