श्लोक ५६ ते ६०
कस्तुरीमृगो के बैठनेसे जिसकी शिलाएँ सुगन्धित हो गई है, ऐसे, और वह गंगा जहाँसे निकलती है ऐसे सफ़ेद हिमालयपर पहुँचकर मार्गकी थकावट दूर करनेके लिये किसी चोटीपर जब तुम बैठोगे तब शिवजीके सफ़ेद वृषभ द्वारा उपर उछाले गये कीचड जैसे लगोगे ॥५६॥
हवा चलनेपर जब चीडके पेडोके टकरानेसे वनाग्नि उत्पन्न होगी और उसकी चिनगारियोसे चँवरगायोकी पूँछे झुलसने लगेगी, तब मूसलधार पानी बरसाकर उसे पूरी तरह बुझा देना । क्योकि पीडितोकी पीडाका निवारण ही बडॆ लोगोकी सम्पत्तिका फ़ल है । अर्थात श्रेष्ठ लोग संपत्तिका संचय इसीलिये करते है कि विपन्नोकी सहायता कर सके ॥५७॥
तुम्हारी गर्जना सुनकर अपने विनाशके लिये शरभोके द्लके दल तुम्हे लाँधकर आगे बढनेकी चेष्टा करे तो तुम जोरसे ओले बरसाकर उन्हे नष्ट भ्रष्ट कर देना । व्यर्थके कामोको प्रारम्भ करनेवाले कौन ऐसे है ? जो तिरस्कारके पात्र नही होते ॥५८॥
उस हिमालयपर किसी एक शिलामे भगवान शंकरका चरणचिन्ह स्पष्ट दिखाई देता है जिसकी सिद्ध लोग निरन्तर पूजा करते है और जिसका दर्शन होनेपर श्रद्धालु भक्तजन मरनेके बाद पाप रहित होकर स्थायी रुपसे शिवजीके पार्षद होनेके लिये समर्थ हो जाते है । उसकी तुम भी भक्तीपूर्वक प्रदक्षिणा करना ॥५९॥
जिस हिमालयमे छिद्रोमे हवाये भरनेसे बाँसोका मधुर शब्द हो रहा है, किन्नरियाँ समवेत स्वरसे त्रिपुरविजयके गीत गा रही है, वही यदि गुफ़ाओमे प्रतिध्वनित तुम्हारी गर्जना मृदंगकी ध्वनिका काम कर दे तो भगवान पशुपतिके ताण्डवके लिये सचमुच ही सारा साज इकट्ठा हो जायगा ॥६०॥