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प्रसव

प्रसव का डर-

          अक्सर यह देखा गया है स्त्रियां प्रसव के दर्द को गम्भीरता से ले लेती है। प्रसव का दर्द केवल 5 मिनट में एक बार होता है और वह भी  केवल एक मिनट के लिए। इस प्रकार एक घंटे में दर्द केवल 12 मिनट के लिए होता है। प्रसव के पहले भाग में दर्द हर 15 मिनट बाद होता है जो केवल 30 सेकेण्ड का होता है। इसका मतलब यह हुआ कि एक घंटे में दर्द केवल 2 मिनट के लिए ही रहता है। इस तरह मां बनने के लिए यह दर्द शायद काफी कम और कम समय तक ही होता है। यह भी सत्य है कि प्रसव का दूसरा भाग जो मुख्यत: 2 घंटे का होता है उसमें दर्द का समय केवल 24 मिनट का ही होता है।

          किसी स्त्री के पहले और दूसरे प्रसव को देखा जाए तो यह मालूम चलता है कि पहले प्रसव की तुलना में दूसरे प्रसव में दर्द काफी कम होता है। 2 स्त्रियों में प्रसव न तो एक प्रकार का होता है और न ही हो सकता है। इतना ही नहीं एक ही स्त्री के 2 प्रसव भी अलग-अलग हो सकते हैं। जब तक स्त्रियों के दिमाग से प्रसव का दर्द व पीड़ा का भय रहता है तब तक प्रसव उनके लिए एक कष्ट बना रहता है। इससे प्रसव की क्रिया भी लम्बी हो जाती है जिसके कारण रक्तस्राव अधिक मात्रा में हो जाता है और मांसपेशियों में अधिक चोट आती है। इससे पैदा होने वाले बच्चे को हानि भी हो सकती है। प्रसव के समय स्त्रियों को मानसिक रूप से तैयार होना,  प्रसव का बारे में जानकारी होना तथा कुछ लम्बी सांस और जोर लगाने का ज्ञान होना आवश्यक होता है।

स्त्रियों के मस्तिष्क का कार्य-

          प्रसव के समय होने वाला प्रत्येक दर्द बच्चे को जल्दी पैदा करता है। यह तभी सम्भव होता है जब स्त्रियां बच्चेदानी की मांसपेशियों को ढीला छोड़ दें। दर्द के समय बच्चेदानी की मांसपेशियों को दबाकर रखने से प्रसव में रुकावट आती है।

            गर्भाशय से नसें शुरू होती है जो मस्तिष्क तक जाती है। गर्भाशय में दर्द की संवेदना को नसों द्वारा मस्तिष्क में छोड़ा जाता है। इस दशा में गर्भाशय की मांसपेशियां भी सही तरह से कार्य नहीं कर पाती हैं। इसी कारणवश प्रसव के समय अधिक दर्द तथा रक्तस्राव होता है। इसके ठीक विपरीत यदि स्त्री को प्रसव दर्द की जानकारी पहले से हो तो वह हर दर्द के साथ बच्चे को बाहर निकालने की कोशिश करती है। इसके कारण बच्चे का जन्म शीघ्र व आसानी से हो जाता है।

          प्रसव के डर के कारण शरीर की सिमपेथेटिक नस भी कार्य करने लगती हैं जिससे गर्भाशय अधिक देर तक संकुचित रहता है। इसके कारण स्त्री के शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो सकती है। शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने के कारण होने वाले बच्चे पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए बच्चे के जन्म के लिए ऑपरेशन करना पड़ता है।

मुख्यत: 3 बातों से यह पता चल जाता है कि स्त्री अब पूरी तरह से प्रसव के लिए तैयार है-

1. योनि से लेसदार पदार्थ का निकलना-

          प्रसव का समय नजदीक होने पर लेसदार गाढ़ा चिकना पीले या हल्के भूरे रंग का पदार्थ योनि से निकलने लगता है। यह पदार्थ स्वयं कीटाणुनाशक होने के कारण किसी भी बाहरी कीटाणु को अन्दर जाने से रोकता है। जैसे-जैसे प्रसव का समय निकट आता जाता है, प्रसव से सम्बन्धित अंगों में परिवर्तन होने लगता है। प्रसव से लगभग दो सप्ताह पूर्व योनि में मुख्य बदलाव आता है। यह चिकना, मुलायम और पतला होना शुरू हो जाता है परन्तु इसके आधार पर यह कह देना कि प्रसव कब होगा, गलत होगा।

2. बच्चेदानी का संकुचित होना-

          लगातार और बार-बार बच्चेदानी का संकुचित होना इस बात को दर्शाता है कि स्त्री प्रसव के लिए पूरी तरह से तैयार है। प्रारम्भ में संकुचन हल्का तथा बहुत कम समय के लिए होता है परन्तु धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। प्रारम्भ में स्त्रियों को लगता है कि यह दर्द पेट में गैस बनने के कारण या अधिक भोजन करने के कारण हो रहा है। यह दर्द ऐसे महसूस होता है कि जैसे कि मासिक-धर्म का दर्द हो। कुछ स्त्रियों को बार-बार दस्त होने लगतें है, तो कुछ समझने लगती हैं कि अधिक भोजन के कारण शायद उनका पेट खराब हो गया है। इस वजह से कुछ स्त्रियां अपना नाड़ा भी ढीला करती है। वह यह सोचती है कि यह दर्द कपड़ों की कसावट के कारण हो रहा है।

          परन्तु स्त्रियां अधिक समय तक धोखे में नहीं रह पाती है क्योंकि प्रारम्भ में यह 30-35 मिनट में आता है परन्तु जल्द ही यह 15-15 मिनट के बाद होने लगता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि दर्द (संकुचित होना) रुक जाता है तथा एक-दो दिनों तक संकुचन नहीं होता है। दो दिनों के बाद संकुचन पुन: शुरू हो जाता है। इस वजह से दर्द रुक-रुककर आता है जो वास्तविक संकुचन कहलाता है। नये स्थान,  नये वातावरण के कारण भी यह कुछ समय के लिए बन्द हो जाता है परन्तु शीघ्र ही यह दोबारा शुरू हो जाता है। दूसरी गर्भावस्था में संकुचन शीघ्र बार-बार भी आ सकता है।

3. एमनीओटिक द्रव का बहना-

          गर्भ में बच्चा एक गुब्बारे के आकार की थैली में बढ़ता है जिसमें पानी होता है। इसे एमनीओटिक सैक कहा जाता है। इसी में एमनीओटिक द्रव होता है। बच्चेदानी के संकुचित होने के कारण एमनीओटिक सैक फट जाता है तथा एमनीओटिक द्रव बह जाता है। इस द्रव के बहने के साथ-साथ पीला और भूरा चिकना पदार्थ भी बह जाता है जो कि बाहर के कीटाणुओं को अन्दर जाने से रोकता है। ऐसी अवस्था में यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि यदि 24 घंटे के अन्दर बच्चे का जन्म नहीं होता है तो बच्चे को कोई रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।

          इस कारण आपको 4-5 घंटों तक इन्तजार करना चाहिए कि संकुचन स्वयं ही शुरू हो जाए। यदि किसी कारणवश संकुचन नहीं होता है तो ग्लूकोज के द्वारा स्त्री को ऐसी दवा दी जा सकती है जिससे संकुचन फिर शुरू हो जाता है। इस दवा को ऑक्सीटोसिन कहते हैं।

          कभी-कभी ऐसा भी होता है कि यह द्रव काफी कम मात्रा में निकलता है और फिर बन्द हो जाता है। ऐसी स्थिति में ग्लूकोज की सहायता से ऑक्सिटोसिन लगाने से दर्द बढ़ जाता है। सैनीटरीपैड का उपयोग करने से 3 प्रकार के लाभ हो सकते हैं। इसके द्वारा बाहरी कीटाणुओं को शरीर के अन्दर प्रवेश करने से रोक सकते हैं तथा हमें यह भी पता चल सकता है कि पैड कितना गीला हो चुका है तथा एमनीओटिक द्रव किस रंग का है। एमनीओटिक सैक के फटने से ही संकुचन शुरू हो जाता है।

          यदि एमनीओटिक द्रव का रंग साफ नहीं है या उसमें कुछ मात्रा में रक्त है या उसका रंग भूरा पीला है या उसमें कुछ बदबू भी है तो शीघ्र ही अपने डॉक्टर को दिखाना चाहिए।

आपाकालीन स्थिति-

          यदि एमनीओटिक द्रव भूरे या हरे रंग का होता है तो इससे पता चलता है कि बच्चे ने बच्चेदानी में मल कर दिया है जो कि एमनीओटिक द्रव के साथ आ रहा है। बच्चा हमेशा जन्म लेने के बाद ही मल करता है। बच्चे के द्वारा बच्चेदानी के अन्दर किया हुआ मल बच्चे के लिए हानिकारक हो सकता है। इस कारण शीघ्र ऑपरेशन करके बच्चे को पैदा किया जाता है। यदि बच्चे ने बच्चेदानी के अन्दर मल नहीं किया है तो बच्चे के जन्म होने का इन्तजार भी किया जा सकता है। ऐसी दशा में बच्चे का जन्म ठीक तरीके और बिना ऑपरेशन के किया जा सकता है।

          यदि योनि से गाढे़ लाल रंग का रक्त निकल रहा हो तो तुरन्त अपने डॉक्टर से परामर्श लेना चाहिए। इसका प्रमुख कारण ओवल का बच्चेदानी के मुंह के द्वार पर होना होता है। जिस कारण प्रसव साधारण तरीके से नहीं हो सकता है तथा प्रसव के लिए ऑपेरशन करना भी पड़ सकता है। इस स्थिति की जानकारी अल्ट्रासाउन्ड की सहायता से पहले ही ली जा सकती है।

          कभी-कभी ऐसी अवस्था भी आ जाती है 5-जिसमें ओवल का एक भाग बच्चेदानी से छूट जाता है जिसके कारण गर्भ में बच्चे को पूरी तरह से ऑक्सीजन युक्त रक्त नहीं मिल पाता है। इसकी वजह से बच्चे के दिल की धड़कन बढ़ जाती है। ऐसी अवस्था में बच्चे के जन्म के लिए शीघ्र ही ऑपरेशन करना पड़ सकता है।

          सामान्यत: बच्चे का दिल एक मिनट में 120 से 160 बार धड़कता है परन्तु कभी-कभी बच्चे की धड़कन कम या फिर बढ़ जाती है। ओवल के छूटना या नीचे आना,  इन दोनों स्थितियों में अल्ट्रासाउन्ड के द्वारा प्रारम्भ में ही जांच करवा लेनी चाहिए जिससे यह जानकारी मिलती है कि ओवल नीचे यानी कि गर्भाशय के मुंह पर है। इस दशा में डॉक्टर और स्त्री दोनों को यह मालूम होता है कि बच्चे का जन्म ऑपरेशन के द्वारा ही होगा।

प्रसव में स्त्री के शरीर की अवस्था-

          अधिकतर प्रसव के समय संकुचन होने पर स्त्रियों को लेटने के लिए कहा जाता है परन्तु लेटना, टहलना या बैठना यह बच्चे और मां की स्थिति पर निर्भर होता है।

1. मां के खडे़ होने या टहलने से मुख्य लाभ यह होता है कि बच्चा स्वयं अपने भार से नीचे आता है। इससे प्रसव होने में सहायता मिलती है। मां के लेटने से यह लाभ नहीं मिल पाता है।

2. प्रसव के समय मां के लेटने से, बच्चे के सिर और पीठ के दबाव के कारण मुख्य रक्त की नसें दबने लगती हैं जिसके कारण बच्चे को काफी कम मात्रा में रक्त मिल पाता है। बच्चे को कम रक्त मिलने के कारण उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती है जो प्रसव के समय ऑपरेशन का कारण बन सकता है।

3. प्रसव के समय स्त्री के लेटने पर योनि का द्वार ऊपर की ओर होता है। इस कारण बच्चे के जन्म में अधिक समय लगता है।

4. यदि स्त्रियां प्रसव के समय खड़ी रहती हैं तो बच्चे के सिर के दबाव के कारण रीढ़ की कॉक्सीजियल हडि्डयां पीछे हट जाती है। इस प्रकार बच्चे को पैदा होने के लिए अधिक स्थान मिल जाता है।

5. प्रसव के समय स्त्री के खड़े होकर घूमने से बहुत ही कम दर्द के साथ तथा शीघ्र ही बच्चे का जन्म होता है।

6. जन्म होने के बाद बच्चा तेज आवाज के साथ रोता है जिसके कारण बच्चे के शरीर में ऑक्सीजन अच्छी तरह से प्रवेश करती है जोकि बच्चे के शरीर के लिए बहुत ही लाभकारी होती है।

7. प्रसव के समय खड़े होने और टहलते रहने से बच्चेदानी में संकुचन अधिक समय तक होने के कारण बच्चे का जन्म जल्द होता है।

प्रसव के समय सावधानियां-

          गर्भ में बच्चे का सिर 36 सप्ताह के बाद नीचे जाकर मां के कूल्हे की हडि्डयों पर रुकता है। परन्तु कभी-कभी बच्चा नीचे की ओर सरक नहीं पाता है। ऐसी स्थिति को फ्लौटिंग हैड कहते हैं। इस स्थिति में एमनीओटिक सैक के फट जाने पर हो सकता है कि बच्चे की नाल बाहर निकल जाए। इसे कोर्ड प्रौलेप्स कहते हैं। ऐसी अवस्था में मां के खड़े होने से नाल पर दबाव पड़ने से बच्चे को हानि हो सकती है। ऐसी दशा में तुरन्त लेट जाना ही लाभकारी होता है, नहीं तो गर्भ के अन्दर बच्चा रक्त न मिल पाने के कारण मर भी सकता है।

          प्रसव से पूर्व मां का टहलना बहुत ही लाभकारी होता है। मां को छोटे-छोटे कदमों से धीरे-धीरे चलना चाहिए। जब प्रसव का दर्द शुरू हो, तो मां को रुककर पेट के नीचे के भाग को हाथों द्वारा पकड़कर दबाना चाहिए।

          प्रसव के समय स्त्री दीवार का सहारे खड़ी हो सकती हैं। जब दर्द शुरू हो तो हाथ सीधे करने चाहिए। जब दर्द समाप्त हो जाए तब हाथों को कोहनियों पर मोड़ लेना चाहिए। बीच-बीच में स्त्रियों को अपने पेट पर हाथों को गोल-गोल घुमाना चाहिए।

          प्रसव के दर्द के समय घूमते-घूमते दर्दों के समय स्त्री को दीवार के सहारे इस तरह खडे़ होना चाहिए कि उसके अपने हाथ दीवार पर ऊपर की तरफ रहे। फिर दोनों कोहनियों को अन्दर मोड़कर हाथों की दोनों कलाइयों को मोड़ना चाहिए तथा सिर और माथे को उस पर टिका देना चाहिए।

          छोटी कुर्सी या स्टूल पर स्त्री को घुटनों को मोड़कर बैठें। टांगों को चौड़ा करके बैंठे तथा नीचे के शरीर को ढीला छोड़ दें। ऐसा करने से कूल्हे की हडि्डयां दूर-दूर होती हैं। इससे स्त्री को काफी लाभ होता है।

          अधिक टहलने के बाद जब स्त्री को थकावट महसूस हो उसे बिना हत्थे वाली कुर्सी पर उल्टी तरफ बैठना चाहिए। स्त्री का मुंह कुर्सी में उल्टा पीठ की ओर तथा पैर कुर्सी के दोनों ओर होने चाहिए। दोनों हाथों को कुर्सी के पीछे रखें व हाथ को मोड़ दें तथा सिर को हाथों की कलाई पर टेक देना चाहिए। इस अवस्था में स्त्री प्रसव के समय काफी लाभ होता है।

          टहलने के बाद जब स्त्री को आराम करने की आवश्यकता महसूस हो तो उसे पलंग या सोफे पर घुटनों को मोड़कर इस प्रकार बैठना चाहिए कि उसके पैर पीछे की तरफ हों। वह अपने नीचे मुड़े पैरों के बीच कोई मुलायम तकिया या गद्दी लगा सकती है। जब दर्द हो तो उसे घुटनों के बल ऊपर उठाना चाहिए। कुर्सी से उठने के लिए किसी भी वस्तु का सहारा लेकर उठाना चाहिए। दर्द के बन्द हो जाने स्त्री उसी अवस्था में दुबारा बैठ सकती हैं।

          गर्भ में सामान्यत: बच्चे का चेहरा मां की पीठ की ओर होता है लेकिन कभी-कभी बच्चे का चेहरा मां के पेट की ओर होता है। ऐसा होने पर प्रसव से पहले के समय मां को कमर तथा नीचे कूल्हे की तरफ बच्चे के सिर के अधिक दबाव के कारण बहुत अधिक दर्द और पीड़ा होती है। ऐसी स्थिति में मां को कूल्हों और कमर को किसी दीवार के साथ टिकाकर दबाव डालना चाहिए। इसके साथ ही कंधों को आगे की ओर झुकाना चाहिए और हथेली को घुटनों पर टिकाना चाहिए। ऐसा करने से दर्द से शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है।

यदि स्त्री हॉस्पिटल में हो तथा वहां पर उसे ग्लूकोज के साथ दर्द की दवा दी जा रही हो तो उसे एक मेज अपने पास रखनी चाहिए। जब उसे तेज दर्द हो तो मेज पर तकिये को रखकर सिर को टिकाना चाहिए। उसे अपना एक हाथ तकिये पर रखना चाहिए जिस पर ग्लूकोज न लगा हुआ हो। जिस हाथ में ग्लूकोज की सुई लगी हो उस पर अधिक दबाव नहीं डालना चाहिए। स्त्री को इस प्रकार बैठना चाहिए कि उसकी दोनों टांगे खुली और फैली हो जिससे उसे लम्बी सांस लेने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। दर्द के समाप्त होने के बाद पीठ को पीछे तकिये पर टिका देना चाहिए तथा लम्बी सांस लेकर शरीर को ढीला छोड़ देना चाहिए और अपनी आंखों को बन्द कर लेना चाहिए। इससे स्त्री को बहुत अधिक लाभ मिलता है।

          दर्द के समय कभी-कभी स्त्री प्रसव की टेबल या चारपाई से उतरकर स्वयं खड़ी हो सकती हैं तथा आगे झुककर अपने साथी के कंधों पर हाथ रखकर सिर को झुका सकती है। इससे स्त्री को दर्द से छुटकारा मिलता है।

          स्त्री को हमेशा अपने नीचे का भाग ढीला रखना चाहिए, तथा मांसपेशियों में किसी भी प्रकार का तनाव होने देना चाहिए। ताकि बच्चे का जन्म आसानी से शीघ्रता से हो सके। प्रसव के समय लम्बी सांस लेनी चाहिए और सांस को कुछ देर रोककर छोड़ना चाहिए। ऐसा करने से प्रसव सरलतापूर्वक हो जाता है।

          दर्द के समय स्त्रियां अक्सर अपनी शक्ति को किसी चीज को जोर से पकड़कर नष्ट करती हैं परन्तु सच्चाई तो यह है कि प्रसव के समय यदि स्त्री को कोई सहारा देता है तो इससे स्त्री को अच्छा लगता है और दर्द को सहने की शक्ति मिलती है। इस प्रकार वह अपनी शारीरिक शक्ति को बनाकर रखती है।

          प्रसव के समय स्त्री के हाथ में कोई वस्तु नहीं होनी चाहिए। हाथों को कोहनियां पर मोड़ें तथा दूसरी स्त्री उसकी हथेली और कलाई को थामें रहे। इस प्रकार अपनी हथेली में दूसरे की हथेली होने से स्त्री की दर्द को सहने की शक्ति बढ़ जाती है।

          स्त्री को एक हल्का सा दबाव निचले पेट से देना शुरु करके, अपनी अंगुलियों को पेट पर इस तरह दबाएं कि एक गोले का आकार देते हुए कूल्हों तक ले जाएं और फिर नाभि पर लाकर उसे समाप्त कर दें। यदि स्त्री के एक हाथ में ग्लूकोज लगा हो तो फिर एक हाथ से ही इस क्रिया को करना चाहिए।

          प्रसव के समय बीच-बीच में पैरों और टांगों की भी मालिश करनी चाहिए। मालिश के समय सबसे पहले टखनों से घुटनों तक की मालिश करनी चाहिए। यदि जांघों में दर्द हो तो ऊपर भी मालिश करनी चाहिए।

          बच्चे के जन्म से पहले स्त्री की कमर में अधिक दर्द होता है। ऐसी स्थिति में स्त्री के सिर और दोनों पैरों के नीचे तकिया रखना चाहिए तथा उसकी कमर की मालिश करनी चाहिए। मालिश करते समय कमर को दबाना चाहिए। कमर पर दबाव डालने से कमर के दर्द से राहत मिलती है।

गर्भावस्था गाईड

Vātsyāyana
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