मयमतम् - अध्याय २६
शाला का विधान - देवों एवं ब्राह्मण आदि वर्णो के निवास के अनुकूल एक, दो, तीन, चार, सात एवं दस शाला वाले छः गृह होते है ॥१॥
ये भवन ब्रह्मा के भाग को छोड़कर निर्मित, सम्मुख अलिन्द से युक्त एवं भिन्न पिण्डवाले (आपस में अलग) होते है । इनकी चौड़ाई, लम्बाई एवं ऊँचाई सम अथवा विषम हस्त माप में होती है । इनका वर्णन तथा इनके अलंकरणो का वर्णन संक्षेप में अब किया जाता है ॥२॥
शालाविस्तारः
शाला की चौड़ाई - यदि भवन एक शाला से निर्मित हो तो उसके विस्तार के ग्यारह माप बनते है । ये माप तीन हाथ से प्रारम्भ होकर तेईस हाथ तक तथा चार हाथ से लेकर चौबीस हाथ तक दो-दो बढ़ाते हुये लिये जाते है ॥३-४॥
यदि भवन द्विशाल या त्रिशाल हो तो उसका सात प्रकार का विस्तार सम्भव है । यह माप सात या आठ हाथ से प्रारम्भ होकर उन्नीस (सात से उन्नीस) या बीस हाथ (आठ से बीस) तक क्रमशः दो-दो हाथ बढ़ाते हुये जाता है ॥५॥
शालायामः
शाला की लम्बाई - शाला की लम्बाई उसकी चौड़ाई से सवा भाग, डेढ भाग पौने दो या चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिए । इसमें चतुर्थांश, आधा, तीन चौथाई या चौड़ाई का तीन गुना माप अधिकतम बढ़ाया जा सकता है । इस प्रकार लम्बाई का माप आठ प्रकार से लिया जाता है ॥६-७॥
ये सभी लम्बाई के माप देवालय के लिये अनुकूल होते है । सामान्य जन के लिये दुगुनी लम्बाई अनुकूल होती है । सभी विहार एवं आश्रम-वासियों (साधु-संन्यासियों) के निवास के लिये दुगुनी या उससे अधिक लम्बाई उपयुक्त होती है । जिस आवास में सभी प्रकार के व्यक्ति एक साथ निवास करते हो, वहाँ भवन की लम्बाई (बराबर या) चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये ॥८॥
शालोत्सेधः
शाला की ऊँचाई - शाला की ऊँचाई पाँच प्रकार की होती है - विस्तार के बराबर ऊँचाई, सवा भाग अधिक ऊँचाई, डेढ़ भाग अधिक ऊँचाई, तीन चौथाई अधिक या चौड़ाई की दुगुनी ऊँचाई । इनके नाम क्रमशः शान्तिक, पौष्टिक, जयद, धन एवं अद्भुत होते है ॥९-१०॥
एकशालासामान्यलक्षणम्
एकशाला गृह के सामान्य लक्षण - एकशाल भवन देवों, ब्राह्मण आदि वर्णो, पाखण्डियों (नास्तिको), आश्रमवासियों, गज, अश्व एवं रथ के योद्धाओ, याग-होम आदि करने वालों तथा रूप के द्वारा आजीविका चलाने वाली स्त्रियों (नर्तकी, अभिनेत्री आदि) के लिये प्रशस्त होता है ॥११॥
दण्डक, मौलिक, स्वस्तिक एवं चतुर्मुख संज्ञक चार प्रकार के एकशाल भवन देवों एवं पूर्व-वर्णित जनों के लिये अनुकूल होते है । ये भवन एक तल से प्रारम्भ होकर अनेक तलपर्यन्त तथा खण्ड-हर्म्य आदि अवयवों से सुसज्जित होते है ॥१२-१३॥
ये अर्पित एवं अनर्पित दो प्रकार के होते है तथा इनकी सज्जा देवालय के समान होती है । इनके सामने दोनो पार्श्वो एवं पृष्ठभाग में चारो ओर अलिन्द्र (गलियारा, मार्ग) का निर्माण करना चाहिये । मनुष्यों, देवों, पाखण्डियों एवं आश्रमवासियों के भवन के सामने मण्डप तथा पीछे एवं दोनोंपार्श्वों में भद्र (पोर्च) का निर्माण करना चाहिये । मध्य भाग में देवों का तथा पार्श्व भाग में मनुष्यों का आवास होना चाहिये ॥१४-१५॥
प्रधान रूप से एकशाल भवन पूर्व, दक्षिण, पश्चिम या उत्तर में स्थित होता है । यह सभी जातियों के लिये अनुकूल होता है । विशेष रूप से मनुष्यों के लिये दक्षिण या पश्चिम में शाला निर्मित होनी चाहिए । यदि शाला लाङ्गल हो (दो कोणों को मिलाकर लाङ्गल या हल के आकार में निर्मित शाला) तो यह पूर्व और उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण या पश्चिम एवं उत्तर में निर्मित हो सकती है । इनका परिणाम गृहस्वामी की मृत्यु है । समृद्धि की कामना करने वाले को अपनी शाला दक्षिण -पश्चिम में निर्मित करनी चाहिये ॥१६-१८॥
दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर की शाला सम्पत्ति तथा पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम की शाला जय प्रदान करती है । दक्षिण एवं पश्चिम से रहित त्रिशाल-गृह सर्वदोषकारक होता है ॥१९॥
लाङ्गल शालगृह गणिका आदि के लिये एवं शूर्पशाल-गृह (शोल्क १९)उग्र कर्म द्वारा आजीविका चलाने वालों के लिये अनुकूल होता है । लाङ्गल एवं शूर्प गृहों में तथा सभी पृथक शाला-गृहों में शालाविहीन स्थानों पर द्वार से युक्त भित्ति निर्मित करनी चाहिये । द्विशाल गृह में एक सन्धि तथा त्रिशाल गृह में दो सन्धियाँ होती है । अब पूर्ववर्णित दण्डक आदि गृहों के विन्यास का वर्णन करता हूँ ॥२०-२१॥
प्रथमदण्डकम्
प्रथम दण्डक - प्रथम दण्डक में विस्तार के तीन भाग एवं लम्बाई के चार भाग करने चाहिये । इनमें गृह की चौड़ाई दो भाग से तथा एक भाग से सामने वार (मार्ग, बरामदा) निर्मित करना चाहिये । इसका मुखभाग खण्डित दण्ड के सामने होना चाहिये । यह आवास सभी लोगों के लिये अनुकूल होता है । शालभवन के सबसे छोटे रूप वाले इस भवन की संज्ञा दण्डक होती है ॥२२-२३॥
द्वितीयदण्डकम्
द्वितीय दण्डक - इस भवन में चौड़ाई के चार भाग तथा लम्बाई के छः भाग करने चाहिये । गृह का विस्तार दो भाग से एवं चंक्रमण (चलने का मार्ग, बरामदा) दो भाग से करना चाहिये । इसके अन्य भाग पूर्वोक्त रीति से निर्मित करने चाहिये । इस भवन को दण्डक कहते है ॥२४-२५॥
भवन की द्वार-व्यवस्था - गृह की लम्बाई के नौ भाग करने चाहिये । इसमें पाँच भाग दाहिने हाथ एवं तीन भाग बाँये हाथ में छोड़ देना चाहिये । इन दोनों छोड़े गये भाग के मध्य में (अर्थात एक भाग में) द्वार की स्थापना करनी चाहिये ॥२६॥
कुछ विद्वानों के मतानुसार मध्य सूत्र (अर्थात लम्बाई के मध्य बिन्दु) से वाम भाग में मनुष्यों के आवास में द्वार की स्थापना होनी चाहिये । सभी भवनों में शाला की लम्बाई के एक भाग में द्वार की स्थापना करनी चाहिये ॥२७॥
तृतीयदण्डकम्
तृतीय दण्डक - गृह की चौड़ाई के तीन भाग तथा लम्बाई के उसके दुगुने भाग (छः भाग) करने चाहिये । एक भाग से चंक्रमण तथा मध्य भाग को भित्ति से युक्त करना चाहिये । यह कुल्या के समान (मुड़ा हुआ) द्वार से युक्त होता है तथा शेष भाग पहले के समान निर्मित होता है । वंश (मध्य-काष्ठ) के नीचे गृह होना चाहिये एवं इसके अग्र भाग में रङ्गस्थल निर्मित होना चाहिये ॥२८-२९॥
इसके चारो ओर भित्ति होनी चाहिये एवं रङ्गस्थल स्तम्भों से युक्त होना चाहिये । एक भाग के सामने, दोनों पार्श्वों में या पिछले भाग मे अलिन्द्र निर्मित होना चाहिये । इसका अलंकरण मन्दिर के सदृश करना चाहिये तथा इसकी संज्ञा दण्डक होती है ।
चतुर्थदण्डकम्
चतुर्थ दण्डक - इस भवन के मध्य भाग में रङ्गस्थल होता है तथा वंश (मध्य में लगे वंशसंज्ञक काष्ठ) के नीचे एवं ऊपर कक्ष होता है । भीतरी भाग में स्तम्भों का संयोजन आवश्यकतानुसार होता है । वंश के सामने द्वार नही होना चाहिये । इस भवन के अन्य भाग पूर्ववर्णित रीति से निर्मित होते है । इस शाल गृह की संज्ञा दण्डक होती है ॥३१-३२॥
पञ्चमदण्डकम्
पाँचवाँ दण्डक - इस भवन के विस्तार के छः भाग एवं लम्बाई के बारह भाग होते है । एक भाग से चारो ओर अलिन्द्र निर्मित होता है तथा दो भाग से शाला निर्माण होता है । इसके सामने इसी के बराबर भाग से अलिन्द्र का निर्माण होता है । भीतरी स्तम्भों का संयोजन आवश्यकतानुसार करना चाहिये । शाला की लम्बाई के अनुसार दोनों पार्श्वों में दो कक्ष निर्मित होते है, जो दो भाग चौड़े एवं तीन भाग लम्बे होते है ॥३३-३४॥
मध्य भाग में दो भाग चौड़ा एवं चार भाग लम्बा रङ्गस्थल होता है । शेष अवयव पहले के अनुसार निर्मित होते है । इस भवन को दण्डक कहते है ॥३५॥
अलिन्द का प्रमाण - द्विशाल एवं त्रिशाल भवन में सामने के अलिन्द्र के विस्तार का माप भवन के तीन भाग में एक भाग, पाँच भाग में दो भाग, सात भाग में तीन भाग और नौ भाग में चार भाग होता है ॥३६॥
ये सभी दण्डकगृह जातिशैली के होते है । ये देवो, ब्राह्मणों, राजाओं, नास्तिकों, वैश्यों, शूद्रो, युद्ध करने वाली तथा रूप के माध्यम से आजीविका चलाने वाली स्त्रियों के लिये प्रशस्त कहे गये है ॥३७॥
मौलिकम्
मौलिक - मौलिक भवन का शीर्षभाग सभा के आकार का (बीच में उठा हुआ) होता है । अथवा यह कानन (विशिष्ट शीर्ष रचना) से युक्त होता है । इसे मौलिक भवन कहते है । यह पूर्व-वर्णित लोगों के लिये प्रशस्त होता है; किन्तु स्त्रियों (सम्भवतः रूप के द्वारा आजीविका वाली स्त्रियों) के लिये उपयुक्त नही होता है ॥३८॥
स्वस्तिकम्
स्वस्तिक - भवन के अग्र भाग में चार भाग से भद्र निर्मित करना चाहिये तथा निर्गम (आगे निकला भाग) दो भाग माप का होना चाहिये । आवास तीन नेत्रों (विशिष्ट निर्मिति) से युक्त होता है । इस भवन को स्वस्तिक कहते है एवं यह विकल्प जाति का भवन है । यह देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के लिये प्रशस्त है; किन्तु अन्त्यजों (शूद्रो) के लिये उपयुक्त नही होता है ॥३९-४०॥
चतुर्मुखम्
चतुर्मुख - भवन के सम्मुख जिस प्रकार का भद्र होता है, उसी प्रकार पीछे भी (भद्र) होता है । क्रकरी तथा वंश के मूल भाग एवं अग्र भाग में चार नेत्र होते है । यह अधिष्ठान आदि अंगो से युक्त होता है । यह देवालय के समान अलंकृत और नासिका, तोरण, वातायन आदि अंगो से युक्त होता है । यह भव चतुर्मुखसंज्ञक होता है तथा आभास शैली में निर्मित होता है । यह देवों, ब्राह्मणों और राजाओं के अनुकूल एवं सम्पत्ति प्रदान करने वाला होता है ॥४१-४३॥
दण्डकादिसामान्यलक्षणम्
दण्डक आदि भवनों के सामान्य लक्षण - दण्डक आदि चारो भवनों को एक तल से लेकर पाँच तल तक रक्खा जा सकता है । इसका स्थान एवं अंगो का विन्यास गृहस्वामी की इच्छा के अनुसार करना चाहिये ॥४४॥
गज, अश्व एवं वृषभ आदि प्रत्येक पशु का आवास पृथक् पंक्ति में होना चाहिये । यह दो या तीन चूलियों (सम्भवतः खिड़की) से युक्त, प्रग्रीव (मुखशाला) से युक्त एवं तल्प (द्वार) से युक्त होता है । इसकी ऊँचाई (विस्तार के) बराबर, सवा भाग या डेढ़ भाग अधिक होनी चाहिये । दण्डक एवं मौलिक भवन के वारण (द्वार) इच्छित दिशा में निर्मित होने चाहिये ॥४५-४६॥
द्विशालविधानम्
चतुर्मुखम्
चतुर्मुख द्विशाल भवन - चौकोर द्विशाल गृह के दस भाग कर एक भाग से बाहर का मार्ग एवं दो भाग से गृह का विस्तार रखना चाहिये । सामने एक भाग से वार (मार्ग) एवं नौ भाग से मण्डप होना चाहिये । उसको घेरते हुये एक भाग से अलिन्द एवं शेष भाग से चंक्रमण का निर्माण करना चाहिये ॥४७-४८॥
गृह का मुखभाग एवं बाहरी मार्ग लागल के आकार का होना चाहिये, किन्तु मुखभाग पर स्थित चंक्रमण (गलियारा) तथा भीतरी विन्यास चौकोर होना चाहिये ॥४९॥
दो कक्षों से निर्मित मुख्य भवन मध्य भाग में रङ्गस्थल से युक्त होना चाहिये । बाह्य चंक्रमण के बाहर दो भाग से मुखभद्र (सामने का पोर्च) निर्मित होना चाहिये । चार मुख (द्वार) से युक्त इस द्विशाल भवन की संज्ञा चतुर्मुख है ॥५०॥
स्वस्तिकम्
स्वस्तिक - इस द्विशाल भवन के एक शाला की लम्बाई के पाँच भाग करने चाहिये । द्वार का निर्माण पूर्ववर्णित नियमों के अनुसार होना चाहिये एवं यह भवन सभी अलंकरणों से युक्त होना चाहिये । मण्डप एवं बाहरी अलिन्द्र आयताकार होना चाहिये । इसमें तीन नेत्र होते है और लम्बाई में इसमें आयताकार भद्र होता है । इस भवनको स्वस्तिक कहते है । शेष अवयवों का निर्माण पहले के समान करना चाहिये । ॥५१-५३॥
दण्डवक्त्रम्
दण्डवक्त्र - दण्डवक्त्र भवन दो मुखों से युक्त कहा गया है । यदि मण्डप न निर्मित हो, तो वहाँ खुला आँगन होता है । जिस स्थान पर कक्ष न निर्मित हो वहाँ भित्ति एवं द्वार निर्मित होता है । रूप से आजीविका चलाने वाली स्त्रियों के भवन एक तल से लेकर अनेक तल से युक्त निर्मित करना चाहिये ॥५४-५५॥
त्रिशालाविधानम्
मेरुकान्तम्
तीन शाला वाले मेरुकान्त भवन - इस त्रिशाल भवन की चौड़ाई के आथ भाग एवं लम्बाई के १० भाग करने चाहिये । इसमें दो भाग से आँगन, तीन ओर एक भाग से अलिन्द्र तथा दो भाग से शाला का विस्तार रखना चाहिये ॥५६॥
इस भवन का मुखभद्र दो भाग से निर्मित होता है, जिसके मध्य भाग में स्तम्भ नही होता है । इसके मुख (द्वार) की संख्या छः होती है तथा मध्य भाग में निर्मित आँगन छत से ढँका होता है । एक या अनेक तल से युक्त यह भवन अलंकरणोम से सुसज्जित होता है । द्वार आदि की व्यवस्था पहले के समान होती है । मेरुकान्त संज्ञक यह भवन उग्रजीवियों (कठोर कार्य करने वालों) के लिये उपयुक्त होता है ॥५७-५८॥
मौलिभद्रम
मौलिभद्र - इस भवन की चौड़ाई के दस भाग एवं लम्बाई के बारह भाग करने चाहिये । दोनो पार्श्वों एवं पिछले भाग में एक भाग से वार (मार्ग) एवं दो भाग से गृह का विस्तार रखना चाहिये । मुखभाग पर एक भाग से (मार्ग, भद्र) होता है, जिसके मध्य भाग में दो भाग से आँगन होता है । चारो ओर एक भाग से वार निर्मित होता है, जो ढका हो सकता है । इसकी लम्बाई चौड़ाई से दो भाग अधिक होती है एवं इसके चार मुख होते है । मुखभाग पर (द्वार के सामने) द्वारभद्रक (द्वार पर बना पोर्च) होता है, जिसका माप चार भाग होता है एवं दो भाग बाहर निकला होता है । इस भवन के दोनों पार्श्वों में या पृष्ठभाग में दो ललाट (मुख, निकलने का मार्ग) निर्मित होते है । इसके शेष अंग पूर्ववर्णित विधि से निर्मित होते है । इस भवन की संज्ञा मौलिभद्र होती है ॥५९-६२॥
त्रिशालकप्रमाणम्
त्रिशाल भवन का प्रमाण - इस भवन के पाँच विस्तारमाप होते है । यह पन्द्रह हाथ से प्रारम्भ होकर (तेईस हाथ पर्यन्त) या सोलह हाथ से प्रारम्भ होकर चौबीस हाथ पर्यन्त जाता है । इनके मध्य क्रमशः दो-दो हाथ माप की वृद्धि की जाती है ॥६३॥
चतुःशालाविधानम्
चतुःशालाप्रमाणभेदानि
चार शालाओं वाले भवन की योजना - चतुःशाल भवन का विस्तार उन्तीस प्रकार के मान से युक्त होता है । इसका विस्तार नौ हाथ से प्रारम्भ होकर पौसठ हाथ तक तथा दस हाथ से छाछठ हाथ तक जाता है । इसके मध्य के मापों में क्रमशः दो-दो हाथ की वृद्धि की जाती है । प्रथम चौदह माप के भवनों में आँगन ढका होता है । शेष में आँगन को आवश्यकतानुसार खुला रक्खा जाता है ॥६४-६५॥
इनमे प्रथम भवन की संज्ञा सर्वतोभद्र, द्वितीय की वर्धमान, तृतीय की स्वस्तिक, चतुर्थ की नन्द्यावर्त एवं पाँचवे की रुचक होती है ॥६६-६७॥
चतुःशालादैर्घ्यगणनम्
चतुश्शाल भवन के लम्बाई की गणना - चौकोर चतुश्शाल भवन का माप चौड़ाई के लिये दिये गये माप के अनुसार होता है । चौड़ाई के माप से जब लम्बाई दो हाथ अधिक होती है तब वह भवन जाति शैली का होता है । चार हाथ अधिक होने पर छन्द शैली का एवं छः हाथ अधिक होने पर विकल्प शैली का होता है । चौड़ाई से आठ हाथ अधिक लम्बाई होने पर भवन आभास शैली का होता है ॥६८-६९॥
जब चौड़ाई के माप से लम्बाई का माप निश्चित करना हो तो लम्बई की गणना विशिष्ट रीति से करनी चाहिये । चौड़ाई के माप से दो भाग अधिक रखने पर जाति शैली होती है । यदि चौड़ाई के मानक माप से लम्बाई चार भाग अधिक हो तो वह छन्द जाति की होती है । चौड़ाई से छः भाग अधिक लम्बा होने पर विकल्प शैली होती है । चौड़ाई से लम्बाई जब आठ भाग अधिक होती है, तब वहाँ आभास शैली होती है । जब लम्बाई छः भाग अधिक हो तो वहाँ आभास शैली प्रशस्त नहीं होती है । ॥७०-७१-७२॥
प्रथमसर्वतोभद्रम्
प्रथम सर्वतोभद्र - अब सर्वतोभद्र भवन का विन्यास संक्षेप में वर्णित किया जा रहा है । भवन की चौड़ाई के आठ भाग करने पर मध्य भाग में दो भाग से आँगन होना चाहिये । इसके चारो ओर उसके आधे माप से मार्ग होना चाहिये तथा दो भाग से गृह का विस्तार रखना चाहिये । चारो कोणों पर सभास्थल (बाहरी कक्ष) एवं मध्य भाग में वार (मार्ग) होना चाहिये ॥७३-७४॥
गृहस्वामी का आवास भवन के पूर्व या पश्चिम में होना चाहिये । यह चारो ओर भित्ति से युक्त हो तथा कुल्या के सदृश (थोड़ा मुड़े हुये) द्वार से युक्त हो । भित्ति में बाहर की ओर जालक (झरोखा)निर्मित हो तथा भीतर की ओर स्तम्भ निर्मित होने चाहिये । प्रधान द्वार पक्ष (लम्बाई की ओर) के एक भाग से निर्मित होना चाहिये । मुखभाग पूर्व या पश्चिम में होना चाहिये ॥७५-७६॥
इस भवन में जालक एवं कपाट बाहर एवं भीतर होना चाहिये । इसमें क्रकरी वंश (आपस में क्रास बनाते हुये बीम) हो एवं आठ मुखभाग भद्र से युक्त हो । भवन के चार मुखों के मध्य भाग मे अर्ध सभा के आकार के कक्ष होने चाहिये । कोणों में भीतर की ओर अन्तभद्रसभा (कक्ष) हो, जिसके छत शंख के आकार की लुपा से युक्त हो ॥७७-७८॥
(शिखरभाग पर) मुखपट्टिका अर्धकोटि (लुपा) से युक्त होती है । चारो ओर दण्डिकावार (निर्माण-विशेष) होना चाहिये तथा शिखरभाग पर नीव्रपट्टिका (जिस पट्टी पर लुपाओं का निचला सिरा दृढ़ किया जाता है) होती है । प्रस्तर नासिकाओं से युक्त तथा अन्तर प्रस्तर से युक्त होते है । लुपायें, द्वार एवं वंश (बीम) (चारो भवनों के) समान होने चाहिये ॥७९-८०॥
इसके विपरीत अनर्थकारक ही होता है, इसमें सन्देह नही है । सभी खुले स्थल मण्डप के समान होते है । ये एक तल या अनेक तलों से युक्त होते है एवं देवालय के समान सुसज्जित होते है । ये भवन सदा देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के निवास के अनुकूल होते है ॥८१-८२॥
हस्त-माप की वृद्धि करते हुये या घटाते हुये जिस प्रकार माप पूर्ण हो, उस प्रकार माप करना चाहिये । यह नियम सभी भवनों पर समान रूप से सम्मत है ॥८३॥
चारो भवनों के अन्त में निर्मित मुख दक्षिण भाग में होने चाहिये । इन आथ मुखोम के ऊपरी तल पर ग्रीवा स्तूपिका एवं वंश से युक्त होनी चाहिये । वंश के ऊपर स्तूपिका समान होनी चाहिये । भद्र के ऊपर मुखभाग पर कूट होना चाहिये तथा भीतरी द्वार बाहर की ओर मुख किये हुये होना चाहिये । यह सर्वतोभद्र संज्ञक भवन राजाओं के निवास के योग्य होता है ॥८४-८५॥
द्वितीयसर्वतोभद्रम्
सर्वतोभद्र का दूसरा भेद - भवन की चौड़ाई के बारह भाग करने चाहिये । मध्य भाग में दो भाग में आँगन होना चाहिये । उसके चारो ओर एक भाग से मार्ग निर्मित होना चाहिये । एक भाग से भीतर का वार (बरामदा) निर्मित होता है । शाला का विस्तार दो भाग से एवं बाहरी मार्ग उसके आधे माप से निर्मित होना चाहिये । इस भवन की संज्ञा सर्वतोभद्र है तथा इसकी सजावट पूर्व-वर्णित रीति से करनी चाहिये । ॥८६-८७॥
तृतीयसर्वतोभद्रम्
सर्वतोभद्र का तीसरा भेद - भवन की चौड़ाई के चौदह भाग करने चाहिये । दो भाग से मध्य आँगन तथा उसके चारो ओर एक भाग से मार्ग निर्मित होना चाहिये । दो भाग से शाला का विस्तार तथा उसके आधे माप से बाहरी मार्ग निर्मित करना चाहिये । बड़ा मार्ग दो भाग से होना चाहिये । चारो शालाओं का शीर्ष भाग सभा के आकार का (बीच में उठा हुआ) होना चाहिये ॥८८-८९॥
मध्य भाग में नासिकायें होनी चाहिये । भद्र आदि का निर्माण पहले के समान होना चाहिये । सभी कक्षों के मध्य भाग में स्तम्भ नही स्थापित करना चाहिये । इस भवन में (कम से कम) तीन तल होते है एवं यह खण्दहर्म्य आदि भागों से सुसज्जित होता है । इस भवन को सर्वतोभद्र कहते है एवं यह देवों, ब्राह्मणों तथा राजाओं के लिये प्रशस्त होता है ॥९०-९१॥
चतुर्थसर्वतोभद्रम्
सर्वतोभद्र का चतुर्थ प्रकार - भवन की चौड़ाई के सोलह भाग करने चाहिये । मध्य आँगन चार भाग से होना चाहिये । शेष अंगों को पहले के समान रखना चाहिये । शिखर की आकृति (पूर्ववर्णित आकृतियों से) हीन होती है ॥९२॥
यह नासिका, तोरण आदि अंगों एवं जालकों (झरोखों) से युक्त होता है । तीन तल आदि तलों से युक्त तथा देवालय के सदृश सुसज्जित होता है । इसमें प्रत्येक तल पर सीढ़ी एवं बीच-बीच मेंमण्डप होताहै अथवा खुला आँगन होता है । जिनकी चर्चा नही की गई है, उनका भी आवश्यकतानुसार निर्माण करना चाहिये । इस भवन की संज्ञा सर्वतोभद्र है । यह राजाओं के निवास के लिये प्रशस्त होता है ॥९३-९४॥
पञ्चमसर्वतोभद्रम्
सर्वतोभद्र का पञ्चम प्रकार - भवन की चौड़ाई के अट्ठारह भाग करने चाहिये । दो भाग से मध्य-आँगन, चारो ओर एक भाग से मार्ग, एक भाग से भीतरी मार्ग, दो भाग से शाला का विस्तार, उसके आधे भाग से बाहर का मार्ग या गलियारा, दो भाग से विस्तृत मार्ग तथा उसके बाहर एक भाग से निर्मित होना चाहिये । भवन का शीर्ष शाला के आकार का (सीधा) या सभा के आकार का (उभरा हुआ) होना चाहिये ॥९५-९७॥
यह तीन तल आदि (अनेक तलों) से युक्त, खण्ड-हर्म्य आदि से सुशोभित होता है । शेष अवयवों का संयोजन आवश्यकतानुसार एवं इच्छानुसार करना चाहिये । भवन के स्थानों की निर्माण-योजना गृहस्वामी के मन के अनुसार करनी चाहिये । इसके अलङ्करण बुद्धिमान व्यक्ति को देवालय के समान करना चाहिये । यह सर्वतोभद्र भवन होता है एवं इसे राजभवन कहा गया है ॥९८-९९॥
विमानादिलक्षणम्
विमान आदि के लक्षण - जिस भवन का शीर्ष-भाग शाला के आकार का होता है, उसे विमान कहते है । जिस भवन का शीर्ष-भाग मुण्ड के आकार का होता है, उसे हर्म्य कहते है । विभिन्न आकार के अवयवों से युक्त, अनेक तल से युक्त तथा माला के समान एक-दूसरे से संयुक्त भवन की संज्ञा मालिका होती है ।
जब भवन की चौड़ाई के छः या आठ भाग किये जाते है तब लम्बाई आठ भाग, बारह भाग या चौदह भाग रक्खी जानी चाहिये । प्रधान भवन का मार्ग एक भाग या दो भाग विस्तृत होना चाहिये । लम्बाई यदि आठ भाग से हो तो वार (मार्ग, बरामदा) एक भाग या डेढ़ भाग से होना चाहिये ॥१००-१०१॥
प्रथमवर्धमानम्
वर्धमान भवन का प्रथम प्रकार - अब मैं संक्षेप में क्रमशः वर्धमान शालगृह के विन्यास के बारे में कहता हूँ । गृह की चौड़ाई के छः भाग करने चाहिये । उसमें दो भाग से भवन का विस्तार रखना चाहिये । दो भाग से आँगन रखना चाहिये । बाहर चारो ओर भित्ति होनी चाहिये ॥१०२-१०३॥
प्रधान आवास के मुखभाग (पूर्व में) पर एक भाग से मार्ग बनाना चाहिये । यह भवन मध्य भाग में भित्ति तथा कुल्या के सदृश (मोड़ वाले) द्वार से युक्त होता है ॥१०४॥
पश्चिम भाग में एक लम्बी शाला हो, जो दो नेत्रोम से युक्त हो एवं ऊँची हो । पूर्व दिशा की शाला (पश्चिम की शाला की अपेक्षा) कुछ नीची एवं लम्बी तथा सामने मुख (द्वार) से युक्त होती है । बगल के दो कक्ष मुखविहीन एवं नीचे (अन्य वंशो की अपेक्षा कम ऊँचे) वंश (लट्ट) से युक्त होते है । मध्य भाग में दो अंशो से वारण (पोर्च) होता है, जिसके एक-एक दिशा में निष्क्रान्त (निर्गम, बाहर निकला भाग) निर्मित होता है ॥१०५-१०६॥
इसमें छोटे स्तम्भ इस प्रकार निर्मित होते है, जिससे यह सुन्दर लगे । कोने पर दो भाग से शंखावर्त आकृति का सोपान निर्मित होता है ॥१०७॥
इस भवन को नासिका, तोरण, स्तम्भ तथा जालकों आदि से सुसज्जित करना चाहिये । इसकी सजावट मन्दिर के समान उन अवयवोम से भी करनी चाहिये, जिनका यहाँ वर्णन नहीं है; किन्तु पहले (देवालय के प्रसंग में) किया गया है । यह भवन एक, दो या तीन तल से युक्त होता है । यदि इसका निर्माण राजा के लिये किया जाय तो उत्तर दिशा में द्वार नहीं होना चाहिये ॥१०८॥
द्वितीयवर्धमानम्
वर्धमान शालगृह का दूसरा भेद - उसी प्रकार एक भाग से स्तम्भ एवं भित्ति से युक्त खुला मार्ग बनाना चाहिये । मुख्य भवन दक्षिण भाग मे होता है एवं इसका मूल वंश ऊँचा होता है । इसका भद्र (पोर्च) इच्छानुसार किसी भी दिशा में एवं गृह इच्छित दिशा में निर्मित करना चाहिये ॥१०९-११०॥
यह भवन दण्डिका-मार्ग से युक्त एवं देवालय के समान द्वार, तोरण, नासोयों, वेदिकाओं एवं जालकों से सुसज्जित होता है । बुद्धिमान (स्थपति को) इच्छानुसार, जिस प्रकार सुन्दर लगे, उस प्रकार भवन का निर्माण करना चाहिये । इस भवन को वर्धमान कहते है । यह शालगृह चारो वर्णों के लिये प्रशस्त होता है ॥१११-११२॥
तृतीयवर्धमानम्
वर्धमान भवन का तीसरा प्रकार- गृह के विस्तार के दस भाग करने चाहिये । उसमें दो भाग से आँगन होना चाहिये तथा उसके बाहर एक भाग से वार (मार्ग) एवं दो भाग से शाल-भवन की चौड़ाई रखनी चाहिये । उसके आधे माप से बाहरी मार्ग निर्मित करना चाहिये । द्वार को भद्र से युक्त निर्मित करना चाहिये । कूट एवं कोष्ठ आदि सभी अवयवों का निर्माण आवश्यकतानुसार एवं इच्छानुसार करना चाहिये । यह शाल-भवन वर्धमान संज्ञक होता है । यह चारो वर्णों के लिये उपयुक्त बताया गया है ॥११३-११४॥
चतुर्थवर्धमानम्
वर्धमान का चतुर्थ प्रकार - अथवा पूरे भवन की चौड़ाई के दस भाग करने पर दो भाग बाहरी वार (मार्ग, बरामदा) निर्मित करना चाहिये । प्रत्येक तल के खुले स्थान को मण्डप के समान बनाना चाहिये । ऊपरी तलों पर क्रमानुसार उचित सजावट करनी चाहिये ॥११५-११६॥
मुख-भाग पर भद्र को छोड़कर शेष अवयवों को जैसा पहले कहा गया है, वैसा ही निर्मित करना चाहिये । मुक-मण्डप को भवन के समान, तीन चौथाइ या भवन के आधे माप से रखना चाहिये ॥११७॥
शेष भागोम को पूर्ववर्णित रीति में निर्मित करना चाहिये । यह शालभवन ब्राह्मण आदि सभी वर्णो के लिये प्रशस्त होता है । सुन्दर वर्धमान भवन तीन, चार या पाँच तल का होता है ॥११८॥
पञ्चवर्धमानम्
वर्धमान भवन का पाँचवाँ प्रकर - भवन के विस्तार के बारह भाग करने पर दो भाग से मध्य आँगन दो भाग से शाला का विस्तार तथा उसके बाहर दो भाग से अलिन्द्र होता है । उसके बाहर एक भाग से वार तथा आवश्यकतानुसार स्तम्भ एवं भित्ति निर्मित करना चाहिये । दोनो पार्श्वों मे उसके बाहर दो भाग विस्तृत एक भाग से निर्गम (से युक्त भद्र) होना चाहिये ॥११९-१२०॥
उसके साथ वार (बरामदा), मुख-पट्टी आदि अवयव, नेत्रशाला निर्मित होते है । सामने एवं दोनों पार्श्वों में नेत्रशाला एवं अलिन्द्र पहले के समान होने चाहिये । इन दोनों के मध्य दूसरे तल पर आठ भाग लम्बा जल-स्थल होना चाहिये । तीसरे तल पर वार (मार्ग,बरामदा) निर्मित हो तथा चौथे तल में उन-उन स्थलों पर कक्ष होना चाहिये । ॥१२१-१२२॥
पाँचवे तल में दोनों कोनों पर कर्णकूट (कक्ष) निर्मित करना चाहिये । छठवें तल पर उन दोनों कर्ण-कूटों के मध्य में उसके आधे माप का सभा-मुख बनाना चाहिये । छठवे तल पर ही प्रधान भवन के दोनों पार्श्वो में दो नेत्रकूट होने चाहिये । उन दोनों के मध्य में सामने सोपान निर्मित करना चाहिये । चौथे तल पर सामने की ओर दो कर्णकूट निर्मित करना चाहिये । पाँचवे तल पर एक भाग से लम्बाई में शाला एवं वही पर दोनों पार्श्वों में पञ्जर निर्मित होना चाहिये, जिसकी लम्बाई एवं चौड़ाई दो भाग हो ॥१२३-१२५॥
(प्रथम तल में) आँगन एवं उसके ऊपर मण्डप तथा उसके ऊपर स्तम्भों से युक्त स्थान होना चाहिये । यह द्वार एवं नेत्र (सम्भवतः दूसरे द्वार) से युक्त होता है एव इसके वाम भाग में सोपान निर्मित होता है । प्रत्येक तल पर मुख-चङ्क्रमण (सामने का बरामदा) से छिपी सीढ़ियाँ होनी चाहिए ॥१२६-१२७॥
पिछले भाग में आठ भाग चौड़ा एवं दो भाग निर्गम युक्त भद्र होता है । उसके दोनों पार्श्व-मुखों पर एक भाग से तीन तलों से युक्त वार (बरामदा) निर्मित होता है । पाँचवे तल पर दो भाग विस्तृत एवं एक भाग बाहर की ओर निकला निर्गम निर्मित होता है । पृष्ठभाग की शाला वार, मुखपट्टी आदि अंगो से युक्त होती है । चौथे तल पर दोनों पार्श्वों में दो-दो भाग माप से दो कूट निर्मित होते है । उसके चारो ओर भवन की चौड़ाई के माप से मण्डप निर्मित होता है । दूसरे तल पर नेत्र से युक्त भद्राङ्गी साला (भद्र के समान शाला) निर्मित होती है ॥१२८-१३०॥
चार मुख वाले वास्तु (गृह) के मध्य चार सूत्र (रेखायें) खींचनी चाहिये । उन सूत्रों के वाम भाग में नियम के अनुसार द्वार बनाना चाहिये । मध्य भाग में स्तम्भ स्थापित कर पार्श्व भाग में द्वार बनाना चाहिये । इस प्रकार से निर्मित द्वार को विद्वान कम्पद्वार कहते है । प्रतेक तल पर स्तम्भ आदि अवयवों द्वारा देवालय की भाँति अलंकरण करना चाहिये । सात तल वाला यह राजभवन वर्धमान कहलाता है । ॥१३१-१३२-१३३॥
षष्ठवर्धमानम्
वर्धमान भवन का छठवाँ प्रकार - भवन के विस्तार के चौदह भाग करने पर दो भाग से मध्य भाग मे आँगन, उसके चारो ओर एक भाग से वार (मार्ग) तथा दो भाग से शाला का विस्तार रखना चाहिये । दो भाग से पृथुवार (बड़ा गलियारा) एवं बाहरी वार उसके आधे माप से होना चाहिये । चारो ओर दण्डिकावार मुष्टिबन्ध (विशिष्ट आकृति) से सुसज्जित होनी चाहिये ॥१३४-१३५॥
भवन के चूलहर्म्य आदि अवयवों, भित्ति एवं ऊपर महावार (बड़ा गलियारा) निर्मित करना चाहिये । कूट, कोष्ठ आदि सभी अंगो को उचित रीति से आवश्यकतानुसार निर्मित करना चाहिये । यह भवन वर्धमान संज्ञक होता है; किन्तु यदि यह राजा के लिये निर्मित हो तो इसका द्वार उत्तर दिशा में नही होना चाहिये ॥१३६॥
सप्तवर्धमानम्
वर्धमान का सातवाँ प्रकार - गृह के विस्तार के सोलह भाग करना चाहिये । इसमें दो भाग से मध्य आँगन एवं इतने ही माप का शाला का विस्तार होना चाहिये । चारो ओर भित्ति निर्मित होनी चाहिये । दो भाग से बड़ा मार्ग तथा स्तम्भो का निर्माण आवश्यकतानुसार होना चाहिये । इसके बाहर एक भाग से वार एवं दो भाग से पृथुवार (बड़ा गलियारा) होना चाहिये । स्तम्भ एवं भित्ति का निर्माण आवश्यकतानुसार एवं जिस प्रकार सुन्दर लगे, उस प्रकार करना चाहिये ॥१३७-१३९॥
भवन के दोनों पार्श्वों मे दण्डिकावार तथा पिछले भाग में भद्र होना चाहिये । दोनों पार्श्वों में दो-दो महावारों से युक्त दो नेत्रशालायें होनी चाहिये । उन महावारों (बरामदों) के आगे दो-दो भाग आगे निकली हुई मुखपट्टिकायें होनी चाहिये । भवन के पृष्ठवास (पिछले भाग) को इस प्रकार निर्मित करना चाहिये, जिससे वह सुन्दर लगे । कूट एव कोष्ठ के प्रत्येक तल अप्र इच्छानुसार एवं शोभा के अनुसार निर्मित करना चाहिये । दूसरे या तीसरे तल पर गोपान के ऊपर मञ्चक निर्मित करना चाहिये ॥१४०-१४२॥
सामने कर्ण एवं कूट पर शंखावर्त सोपान (सोपान का विशेष प्रकार) निर्मित होना चाहिये । प्रत्येक तल पर सोपान एवं मुखभाग पर चङ्क्रमण (चलने का मार्ग) होना चाहिये ॥१४३॥
स्तम्भ को स्तम्भ पर आश्रित होना चाहिये । स्तम्भ को इस प्रकार निर्मित करना चाहिये, जिससे वह दृढ़ हो एवं सुन्दर लगे । यदि यह आश्रय थोड़ा हो (अर्थात पूर्ण रूप से आश्रित न हो, टिका न हो) या बिल्कुल आश्रय न हो तो वह स्तम्भ विपत्तिकारक होता है ॥१४४॥
वर्श-स्थल (जलस्थान) एवं चूलहर्म्य प्रत्येक तल पर निर्मित होना चाहिये । बुद्धिमान व्यक्ति को गोपान (कार्निस), लुपा, वक्त्र-स्तम्भ, नाटक (विभिन्न प्रकार के चित्र), मुष्टिबन्ध, निर्यूह, वलभी एवं कचग्रह (आदि विविध अलंकरण) जहाँ जहाँ आवश्यकता हो, वहाँ-वहाँ इनका संयोजन करना चाहिये ॥१४५-१४६॥
बुद्धिमान व्यक्ति को इन भवनों का आँगन (हॉल) सभागृह के आकार का, मण्डप के आकार का या मालिका के आकार का निर्मित करना चाहिये । मण्डप के मध्य में स्तम्भ का प्रयोग नही करना चाहिये ॥१४७॥
भवन के सामने मण्डप भवन की चौड़ाई के बराबर, उसका तीन चौथाई या आधे माप का होना चाहिये । आवश्यकतानुसार इसे भीतरी स्तम्भ से युक्त करना चाहिये । यह एक, दो या तीन से युक्त होता है एवं मालिका के समान होता है । यह विवृत स्तम्भों से युक्त या अलिन्द्र से युक्त होता है । इसे भीतरि सोपान से युक्त होना चाहिये । यहाँ जिन अंगो का वर्णन किया गया है, उनका तथा जिनका वर्णन नही किया गया है, उनका निर्माण पहले वर्णित विधि के अनुसार करना चाहिये ॥१४८-१५०॥
तीसरे तल से प्रारम्भ कर नवें तल या ग्यारह तल तक वर्धमान शाल-भवन हो सकता है । यह भवन विशेष रूप से राजाओं के अनुरूप होता है ॥१५१॥
प्रथमनन्द्यावर्तम्
नन्द्यावर्त का प्रथम प्रकार - नन्द्यावर्त शाल-भवन के विन्यास एवं सज्जा का वर्णन अब किया जा रहा है । भवन के विस्तार के छः भाग करना चाहिये । उनमें दो भाग से मध्य आँगन तथा दो भाग शाला का विस्तार रखना चाहिये । इसका प्रमाण चारो (शालाओं) के लिये होता है । बाहरी मार्ग एवं भित्ति नन्द्यावर्त की आकृति में होनी चाहिये ॥१५३-१५३॥
(प्रधान) शाला में एक द्वार नही होता है या चार द्वार होते है । द्वार बाहर एवं भीतर जालक एवं कपाट से युक्त होते है ॥१५४॥
मुख्य गृह चारो ओर भित्ति से युक्त होता है । इसका भितरी भाग भित्ति से बँटा होता है, जिसमें कुल्याभ (थोड़ा मुडा हुआ) द्वार होता है । मुख भाग पर चंक्रमण (मार्ग) होता है । भीतरी भाग में स्तम्भ होते है एवं खुला (भित्ति के विना) होता है । बाहरी भाग भित्ति से ढँका होता है । चारो दिशाओ मे निर्गम होते है एवं अर्धकूट की आकृति निर्मित होती है । यह दण्डिकावार से युक्त तथा देवालय के सदृश अलंकृत होता है ॥१५५-१५६॥
यह भवन चारो वर्णो के अनुकूल होता है । वैश्य एवं शूद्र वर्ण के लिये भवन का मुख पूर्व दिशा में होना चाहिये । यह एक भाग अलिन्द्र से घिरा हो तथा बाहरी द्वार अलंकृत होना चाहिये । अधिष्ठान एवं स्तम्भ आदि का संयोजन पूर्ववर्णित रीति से होना चाहिये । एक, दो या तीन तल से युक्त तथा सीधे शीर्ष भाग वाली यह शाला प्रासाद-डल्प होती है । बुद्धिमान (स्थपति) को चारो वर्णो के अनुरूप इस शाल-भवन की योजना करनी चाहिये ॥१५७-१५८॥
द्वितीयनन्द्यावर्तम्
नन्द्यावर्त का दूसरा प्रकार - भवन के विस्तार के दस भाग में दो भाग से मध्य-आँगन निर्मित करना चाहिये । चारो ओर एक भाग से मार्ग तथा दो भाग से भवन का विस्तार रखना चाहिये । बाहर एक भाग से अलिन्द्र तथा भद्र आदि का निर्माण पूर्ववर्णित विधि से करना चाहिये । इसमें हर्म्य आदि अंगो से अलंकरण आवश्यकतानुसार एवं शोभा के अनुसार करना चाहिये ॥१५९-१६०॥
तृतीयनन्द्यावर्तम्
नन्द्यावर्त का तीसरा प्रकार - भवन के विस्तार के बारह भाग करने चाहिये । दो भाग से मध्य-आँगन एव दो भाग से गृह का विस्तार रखना चाहिये । मुख्य गृह के भीतरी भाग में एक भित्ति (विभाजक दीवार) होती है । बाहरी भाग में चारो ओर दो भाग से विस्तृत मार्ग होना चाहिये । उसके चारो ओर के भाग अलिन्द्र (बरामदा) होना चाहिये, जिसमें इच्छानुसार स्तम्भ या भित्ति का निर्माण करना चाहिये । अलिन्द्र को चूल एवं हर्म्य आदि से आवश्यकतानुसार या इच्छानुसार युक्त करना चाहिये । द्वार, मुखभद्र और अधिष्ठान आदि का निर्माण पहले के समान करना चाहिये । ॥१६१-१६३॥
चारो शालगृहों में शीर्ष भाग मध्य वंश के ऊपर होता है । सामने वाले भाग में कूट एवं पार्श्व-शालायें आनन (मुख) से युक्त होती है । नन्द्यावर्त की आकृति वाला यह भवन चार मुखों (प्रवेश भाग) से युक्त होता है ॥१६४-१६५॥
आँगन के ऊपर आँगन एवं पक्षशाला (बाहरी कक्ष) के ऊपर पक्षशाला निर्मित करना चाहिये । मध्य-आँगन का निर्माण सभागार, मण्डप या मालिका के समान करना चाहिये । यह भवन तीन तल से प्रारम्भ कर (उससे अधिक तलों से युक्त) ऊह एवं प्रत्यूह आदि अंगो से युक्त होना चाहिये । यह प्रासाद-भवन ब्राह्मणों एवं राजाओं के लिये अनुकूल होता है ॥१६६-१६७॥
चतुर्थनन्द्यावर्तम्
नन्द्यावर्त का चौथा प्रकार - भवन के विस्तार के चौदह भाग करने चाहिये । दो भाग से मध्य-आँगन , एक भाग से चारो ओर मार्ग एवं दो भाग से गृह का विस्तार रखना चाहिये । दो भाग से पृथुवार (विस्तृत मार्ग) होना चाहिये, जिसके भीतरी भाग में आवश्यकतानुसार स्तम्भ निर्मित करना चाहिये । उसके बाहर एक भाग से भित्ति एवं स्तम्भ आदि से युक्त मार्ग निर्मित करना चाहिये ॥१६८-१६९॥
नन्द्यावर्त की आकृति वाला यह भवन चारो दिशाओं में मुख से युक्त होता है । ऊर्ध्वशालायें आठ मुखों से युक्त होती है एवं ये चार मुख वाली शालाओं पर व्यवस्थित की जाती है । इस प्रकार निचले तल एवं ऊपरी तल की शालाओं को मिलाकर भवन के बारह मुख होते है । चारो दिशाओं में भद्र एवं द्वारशालायें सुशोभित होती है । जिन अंगो का वर्णन यहाँ नही किया गया है, उन सभी का निर्माण भी पहले की भाँति करना चाहिये ॥१७०-१७१॥
पञ्चमनन्द्यावर्तम्
नन्द्यावर्त का पाँचवा प्रकार - भवन की चौड़ाई के सोलह भाग करने पर दो भाग से मध्य आँगन एवं दो भाग से शाला का विस्तार रखना चाहिये । चौड़ा मार्ग उसी के सामने होना चाहिये । इसके बाहर एक भाग से बाहरी मार्ग एवं उसके बाहर एक भाग चौड़ा मार्ग होना चाहिये ॥१७२-१७३॥
इस भवन में आवश्यकतानुसार एवं इच्छानुसार अलिन्द्र (बरामदा) तथा चूल-हर्म्याङ्ग का निर्माण करना चाहिये । इसके ऊपर निर्मित शाला का शीर्ष भाग चौकोर होना चाहिये ॥१७४॥
यह भवन तीन तल से प्रारम्भ होकर नौ तल तक होता है एवं यह राजा तथा ब्राह्मण के योग्य होता है । द्वार एवं भित्तियाँ आदि पूर्व-वर्णित निर्णय के अनुसार निर्मित होनी चाहिये । इसका अलंकरण प्रासाद के समान होना चाहिये एवं इसके जालक (झरोखे) नन्द्यावर्त के सदृश होने चाहिये । इस भवन में ऊह, प्रत्यूह आदि सभ गृह के अलंकरणों की आवश्यकता होती है ॥१७५-१७६॥
स्वस्तिकम्
स्वस्तिक भवन - इस स्वस्तिक भवन की चौड़ाई के छः भाग करने चाहिये । इसमें दो भाग से आँगन एवं उसी के समान शाला का विस्तार रखना चाहिये । इसका द्वार कुल्या के समान (मुड़ा हुआ) होना चाहिये । इसके पिचले भाग में दीर्घ कोष्ठ एवं सामने भी उसी प्रकार कोष्ठ होना चाहिये ॥१७७-१७८॥
इसके दोनों पार्श्वो में मुखपट्टिका से युक्त कर्करी शाला (चौकोर निर्माण) निर्मित होना चाहिये । पिछले भाग में पृष्ठ से युक्त, विना पट्टिका के कोष्ठक का निर्माण होना चाहिये ॥१७९॥
अथवा यह भवन दण्डिकामार्ग से युक्त, छः नेत्रो (झरोखों, खिड़कियो) से युक्त एव भद्र से युक्त होना चाहिये । बुद्धिमान व्यक्ति को सभी अलंकरण प्रासाद के सदृश करना चाहिये । पूर्व-मुख यह स्वस्तिक भवन वैश्यों एवं शुद्रो के लिये अनुकूल कहा गया है ॥१८०॥
स्वस्तिकान्तरम्
अन्य प्रकार का स्वस्तिक - वही भवन एक भाग माप के अलिन्द्र से घिरा होता है तथा खण्ड-हर्म्य आदि से अलंकृत होता है । यह पूर्व-वर्णित भद्र से युक्त होता है एवं इसकी सज्जा पहले के समान ही करनी चाहिये । भवन के सम्पूर्ण विस्तार को बारह, चौदह या सोलह भागों में इच्छानुसार बाँटना चाहिये ॥१८१-१८२॥
आँगन, बाहरी मार्ग, विस्तृत मार्ग एवं अलिन्द्र का निर्माण होना चाहिये । शाला का विस्तार दो भाग से रखना चाहिये ॥१८३॥
द्वार, स्तम्भ, भित्ति एवं भद्र को आवश्यकतानुसार निर्मित करना चाहिये । भवन में हर्म्याङ्ग आदि का निर्माण आवश्यकतानुसार एवं शोभा के अनुसार करना चाहिये । इस भवन का शीर्ष भाग शाला के आकार का, सभा के आकार का (उठा हुआ) या हर्म्याङ्ग के समान होता है । इस भवन को स्वस्तिक कहते है । जिनका वर्णन यहाँ नही किया गया है, उन अंगो का वर्णन पहले किया जा चुका है ॥१८४-१८५॥
रुचकम्
रुचक - रुचक संज्ञक भवन में निर्विष्ट (क्रास-बीम) नहीं होता है । यह कोटि-लुपाओं से संयुक्त होता है तथा कोने पर सोपान निर्मित होता है । यह विचित्र अंगो से युक्त होता है; किन्तु उत्तर दिशा में कोई द्वार नही होता । यह भवन नास्तिकों, ब्राह्मणों, अन्य वर्णों एवं देवो के निवास के योग्य होता है । बुद्धिमानो के अनुसार यह भवन चारो वर्णों- राजाओं, ब्राह्मणों, वैश्यों एवं शूद्रों के अनुकूल होता है ॥१८६-१८७॥
चतुःशालसामान्यविधिः
चतुश्शाल भवनों के सामान्य नियम - विद्वानों के मतानुसार चतुश्शाल भवन पूर्ववर्णित व्यास से युक्त होते है; किन्तु लम्बे नही होते है । ये चौकोर भवन देवो, ब्राह्मणो, दान आदि के लिये एवं सभी नास्तिकों के लिये प्रशस्त होते है । ॥१८८॥
(इस विषय में) मुनि-जन इस प्रकार कहते है - यदि गृह के विस्तार के नौ, आठ, सात, या छः भाग किये जायँ तो प्रधान भवन की चौड़ाई दो भाग के बराबर होगी । यदि विस्तार के पाँच भाग किये जायँ तो प्रधान भवन की चौड़ाई एक भाग से रखनी चाहिये ॥१८९॥
सप्तशालादि
सात शाला आदि से निर्मित गृह - सात कक्षों के राजगृह का विस्तार चौसठ हाथ एवं लम्बाई उसकी दुगुनी होती है । इसमें दो द्वार, दस नेत्र, दो आँगन एवं प्रधान भवन में छः सन्धियाँ होती है । इसकी सज्जा भवन (मन्दिर) के समान करनी चाहिये । ॥१९०॥
चौड़ाई पाँच भाग रहने पर लम्बाई नौ भाग होनी चाहिये । चौड़ाई छः बाग होने पर लम्बाई ग्यारह भाग, सात भाग होने पर बारह भाग, आठ भाग होने पर चौदह भाग या नौ भाग होने पर सोलह भाग लम्बाई होनी चाहिये । ये सप्तशाल भवन के पाँच प्रकार की लम्बाई के माप है । दश-शाल भवन में भवन की चौड़ाई पूर्व-वर्णित भागों में होती है । इसकी लम्बाई (पाँच भाग पर) तेरह भाग, (छः भाग पर) सोलह भाग, (सात भाग पर) सत्रह भाग, (आठ भाग पर) बीस भाग या (नौ भाग पर) तेईस भाग होनी चाहिये ॥१९१-१९२॥
यदि दश-शाल भवन राजा के लिये निर्मित हो तो इसकी चौड़ाइ अस्सी हाथ एवं लम्बाई उसकी तीनगुनी होनी चाहिये । इसके बारह ललाट, तीन प्रधान द्वार, तीन आँगन एवं आठ सन्धियाँ होनी चाहिये । इसका संयोजन हर्म्य के समान करना चाहिये । ॥१९३॥
अलिन्द्र का माप भवन के तीसरे भाग के बराबर या आधा होना चाहिये । इसका प्रवेशभाग (भद्र, प्रोच) तीन भाग या छः भाग से (चौड़ाई के) होना चाहिये । उसके बाहर एवं अन्दर (भद्र के) आधे भाग से नालनीप्र (संरचनाविशेष) होना चाहिये । यह सभी भवनों के लिये सामान्य नियम है ॥१९४॥
जिस भवन में (मध्य भाग में) आँगन न हो, उसके कोनों में आँगन होना चाहिये । इसके बहुत से मुक एवं प्रवेश (द्वार का निर्माण, भद्र) होते है । इसके बाहरी एवं भीतरी भाग में वक्त्र (खिड़की) होते है । इस भवन को 'असीम' कहते है । इसमें सामान्यतया मध्यांगन की आवश्यकता नही होती है ॥१९५॥
मनुष्यों के लिये निर्मित भवन में विषम संख्या में हस्तमाप, स्तम्भ, डलायें (बीम) आदि होनी चाहिये । देवालय में हस्तादिकों की संख्या सम या विषम होनी चाहिये । देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के इस भवन में मध्य भाग में द्वार अप्रशस्त नही होता है; किन्तु अन्य मनुष्यों के भवन में द्वार मध्य के पार्श्व में होना चाहिये । उनके लिये वही प्रशस्त होता है ॥१९६॥
गर्भस्थानम्
शिलान्यास या गर्भविन्यास का स्थान - भवन का गर्भ-विन्यास सामने की भित्ति के नीचे तथा स्तम्भ के गर्त में करना चाहिये । इसे भवन के मध्य भाग के वाम भाग के अथवा भवन की प्रधान शाला के वाम भाग में स्थापित करना चाहिये ॥१९७॥
भित्ति की चौड़ा के आठ भाग करने चाहिये एवं इसके सामने वाले भाग से चार भाग तथा भीतरी भाग से तीन भाग (छोड़कर उन दोनों के मध्य में स्थित) भाग में गर्भविन्यास करना चाहिये । देवालय के द्वार के मध्य में गर्भ-न्यास करना चाहिये; किन्तु ब्राह्मण आदि (चारो वर्णो के) भवन मे यह (मध्य मे गर्भ-विन्यास) प्रशस्त नही होता है ॥१९८॥
वंशद्वारम्
वंशद्वार - ब्राह्मण आदि वर्णो के भवन में वंशद्वार (मध्य वंश के सामने द्वार) नही रखना चाहिये । नास्तिकों एवं संन्यासियों के गृह में वंश-द्वार दोषकारक नही होता है ॥१९९॥
विहारशालम्
मठ - प्रमुख भवन की चौड़ाई से तीन गुनी अधिक उसकी लम्बाई होनी चाहिये । भवन की लम्बाई चौड़ाई के दुगुने माप से लेकर तेईस भाग माप पर्यन्त रक्खी जाती है । इस प्रकार लम्बाई की दृष्टि से ग्यारह प्रकार के भवन निर्मित होते है ॥२००॥
प्रधान भवन के सामने भद्र निर्मित होना चाहिये । इसे सभागार, कोष्ठ एवं नीड (सजावटी खिड़की) से सुसज्जित करना चाहिये । भवन के पृष्ठ-भाग मे वार (बरामदा) निर्मित हो या गर्भकूट के सदृश दो ललाट (झरोखा) निर्मित होना चाहिये । इसे एक-दो या तीन से युक्त तथा आगे एवं पीछे विचित्र नासियों (सजावटी आकृति) से सुसज्जित करना चाहिये । यही विहारशाल (मठ) है । इसका निर्माण मन्दिर के समान करना चाहिये ॥२०१-२०२॥
शालापादप्रमाणम्
भवन के स्तम्भों का माप - सभी भवनों के स्तम्भों की लम्बाईएवं विष्कम्भ (परिधि) का वर्णन किया जा रहा है । स्तम्भ की लम्बाई ढाई हाथ से साढ़े तीन हाथ या चार हाथ से अधिक तक रक्खी जाती है । तीन अंगुल या छः अंगुल की वृद्धि करते हुये नौ तक स्तम्भ की ऊँचाई होती है । इसकी चौड़ाई छः से प्रारम्भ कर आधा या एक अंगुल बढ़ाते हुये दस या चौदह अंगुल माप तक ले जानी चाहिये । अथवा विद्वानों द्वारा पूर्ववर्णित मान के अनुसार इनका मान रखना चाहिये ॥२०३-२०५॥
आयादिलक्षणम्
आय आदि के लक्षण - भवन की चौड़ाई के माप का तीन गुना कर उसमें आठ से भाग देना चाहिये । जो शेष संख्या बचे, उससे (एक से आठ तक क्रमशः) ध्वज, धूम, सिंह, श्वान, वृष, खर, गज एवं वायस योनियाँ होती है । इनमें ध्वज, सिंह, वृष एवं गज योनियाँ शुभ एवं अन्य अशुभ होती है ॥२०६॥
भवन की लम्बाई में आठ का गुणा करने पर गुणनफल में सत्ताइस का भाग देना चाहिये । शेष से अश्विनी आदि नक्षत्रों का एवं उनके अनुसार राशियों का ज्ञान होता है । ॥२०७॥
भवन की लम्बाई में क्रमशः आठ एवं नौ का गुणा करना चाहिये । प्राप्त गुणनफल में बारह एवं दस से भाग देना चाहिये । इससे दो भिन्न-भिन्न प्रकार का शेष प्राप्त होता है । इनेह 'धन' एवं 'ऋण' कहते है । आय अथवा धन का ऋण से अधिक होना प्रशस्त होता है ॥२०८॥
भवन की परिधि को नौ से गुना करना चाहिये । गुणनफल में तीस का भाग देना चाहिये । शेष से (तीस दिन के चान्द्रमास का ज्ञान होताहै एवं उसमें) तिथि एवं रवि आदि दिनों का ज्ञान होता है । इनसे अमृत, वर एवं सिद्धि योगों को भी ज्ञान होता है तथा अन्य का ज्ञान नही होता है ॥२०९-२१०॥
जिस भान का नक्षत्र गृहस्वामी यजमान के जन्मनक्षत्र के सदृश होता है, वह भवन प्रशस्त होता है । यह नियम मनुष्यों के आवास के लिये है । देवालय के निर्माण में भवन के निर्माणकर्ता के अनुसार नक्षत्र होना प्रशस्त होता है ॥२११॥
खलुरी
खलुरी, गृह की बाह्य भाग की संरचना - गृह के बाह्य भाग में खलूरी का विस्तार इकतीस हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये इकसठ हाथ तक रक्खा जाता है तथा इसकी लम्बाई इच्छानुसार रक्खी जाती है । भित्ति एवं स्तम्भ आदि अंगो का निर्माण भीतर अथवा बाहर इच्छानुसार शोभा के लिये होता है । इस पर लुपा के ऊपर शीर्षभाग का निर्माण किया जाता है अथवा यहाँ मण्डप का निर्माण किया जाता है । खलूरी का निर्माण मनुष्यों के भवन अथवा देवालय के चारो ओर होता है । यह एक तल या दो तल का अथवा विना किसी तल का होता है ॥२१२-२१३॥
भवन के पूर्व भाग मे प्रथम या द्वितीय आवरण (भीतरी भाग) में स्त्रियों का आवास होना चाहिये । नैऋत्य दिशा में सूतिका-गृह तथा शौचालय होना चाहिये । स्त्रियों का आवास वायु के पद से इन्दु (सोम) के पद तक हो सकता है ॥२१४॥
यम पद (दक्षिण दिशा) पर भोजन-गृह, सोम पद (उत्तर दिशा) पर धन-सञ्चयगृह, अग्नि के स्थान पर धान्यगृह तथा आकाश के स्थान पर पके हुये भोजन के रखने का स्थान होना चाहिये । पूजा-गृह ईश (ईशान कोण) में एवं वही कूप होना चाहिये । उदिति के पद पर स्नान का स्थान होना चाहिये । जिस-जिस स्थान पर जिनकी स्थिति वर्णित है, उन्हे वही रखना चाहिये ॥२१५-२१६॥
द्वार एवं भित्ति का संयोजन गृह-स्वामी की इच्छा के अनुसार करना चाहिये । शेष का निर्माण बुद्धिमान व्यक्ति को पूर्व-वर्णित क्रम में करना चाहिये ॥२१७॥
शिखि के पद पर गोशाला, निऋति के पद पर बकरियों की शाला, वायु के पद पर भैंसो की शाला तथा ईश के कोण पर अश्वशाला एवं गजशाला होनी चाहिये । सभी प्रकार के वाहनों का स्थान द्वार के वाम भाग में होना चाहिये ॥२१८॥
उपर्युक्त सभी नियम चारो वर्णो के भवन के लिये कहे गये है । राजाओं के आवास के लिये विशेष संयोजन होता है । उनके भवन में तीन प्रकार, भवनोम की तीन पंक्तियाँ एवं तीन भोग (अन्तःपुर) होना चाहिये । शेष नियम उसी प्रकार है, जो तीनों वर्णो के लिये विहित है ॥२१९॥
मनुष्यों के गृह में एक, दो या तीन साल (प्राकार) एवं देवालयों में पाँच, तीन या एक साल होता है । विधि के ज्ञाता (स्थपति) को मनुष्यों के आवास के लिये पूर्ववर्णित माप का प्रयोग करना चाहिये ॥२२०॥