मयमतम् - अध्याय २१
(त्रिभूमिविधान)
तीन तल वाले भवन का विधान - तीन तल वाले भवन के पाँच प्रकार के प्रमाण को अब संक्षेप में वर्णित किया जा रहा है । सात या आठ हाथ से प्ररम्भ कर्पन्द्रह या सोलह हाथपर्यन्त दो-दो हाथ क्रमशः वृद्धि करते हुये इसे ले जाना चाहिये । यह इनका व्यास है । उँचाई पूर्ववर्णित नियम के अनुसार होनी चाहिये ॥१॥
यदि (भूतल की चौड़ाई) सात, आठ या नौ हाथ हो तो उसके सात या आठ भाग करने चाहिये । इसके एक बाग से ऊट की चौड़ाई, दो या तीन भाग से कोष्ठ (मध्य में स्थित कोष्ठ या कूट) की चौड़ाई, आधे भाग से लम्ब पञ्जर (हारा संज्ञक मार्ग के ऊपर लटकती आक्रुति ) एवं इसी के बराबर प्रमाण का हारा संज्ञक मार्ग या गलियारा होना चाहिये ॥२-३॥
ऊपरी तल (द्वितीय तल) के छः भाग करना चाहिये । एक भाग से कूट एवं उसका दुगुना चौड़ा कोष्ठक एवं मध्य में एक भाग से हारा का निर्माण करना चाहिये ॥४॥
उसके ऊपरी तल (तृतीय तल) के मध्य भाग में भद्र का निर्माण होना चाहिये । बुद्धिमान् (स्थपति) को भद्र का माप एक दण्ड, डेढ़ दण्ड या दो दण्ड रखना चाहिये ॥५॥
देवालय की सम्पूर्ण ऊँचाई को चौबीस भागों में विभक्त करना चाहिये । तीन भाग से धरातल (अधिष्ठान), चार भाग से अधःस्तम्भ (प्रथम तल की ऊँचाई), दो भाग से मञ्च, पौने चार भाग से (द्वितीय तल का) अङिघ्रक (स्तम्भ), डेढ़ भाग से मञ्चक, साढ़े तीन भाग से तलिप (तृतीय मंजिल का स्तम्भ अथवा ऊँचाई), सवा भाग से प्रस्तर, आधे भाग से वेदी एवं गल, साढ़े तीन भाग से शिखर एवं एक बाग से घट का निर्माण करना चाहिये ॥६-८॥
देवालय मे आठ कूट (कोण के कोष्ठ), आठ नीड (कूट एवं कोष्ठ के मध्य के कोष्ठ) एवं आठ कोष्ठक (मध्य कोष्ठ) होना चाहिये । इन्हे जन्म (प्रारम्भ) से स्तूपिकापर्यन्त चौकोर बनाना चाहिये । ऊपरी तल पर सोलह अल्पनीड (छोटे कोष्ठ) एवं छियानबे अल्पनास का निर्माण करना चाहिये । अधिष्ठान, स्तम्भ एवं वेदिका आदि की आकृति विभिन्न प्रकार की हो सकती है । शीर्षभाग पर आठ अभ्रनास (सजावटी खिड़कीयाँ) होती है । कोष्ठ कूट से उन्नत हों एवं आपस में समान ऊँचाई के हों, तो वह देवालय शम्भु का वास होता है एवं यह तीन तल का देवालय 'स्वस्तिक' संज्ञक होता है ॥९-१०॥
विमलाकृतिक
देवालय की चौड़ाई के सात या नौ भाग करने पर सौष्ठिक (कोण के कोष्ठों) को एक भाग चौड़ा, शाला (मध्य का लम्बा कोष्ठ) एक या दो भाग चौड़ा तथा हारा-मार्ग को एक भाग से निर्मित करना चाहिये ॥११॥
(इस देवालय में) आठ कूट, बारह कोष्ठ, आठ नीड तथा एक सौ बीच अल्पनासिक होना चाहिये ॥१२॥
मस्तक, वेदी एवं कन्धर अष्टकोण एवं आठ नासिक होना चाहिये । 'विमलाकृतिक' नामक यह देवालय भगवान् शिव के निवासयोग्य होता है ॥१३॥
जब चौड़ाई सात या नौ हाथ हो तो उसके सात या नौ भाग करने चाहिये । कूट की चौड़ाई एक भाग हो एवं इनकी संख्या आठ हो । बारह कोष्ठ हों, आठ ऊर्ध्वपञ्जर हो, आठ गलनास हो तथा एक सौ बीस (सजावटी आकृति हो) तो उस विमान (देवालय) की संज्ञा 'विमलाकृति' होती है ॥१४॥
हस्तिपृष्ठ
ग्यारह हाथ के विस्तार को आठ भाग में विभक्त करना चाहिये । लम्बाई को विस्तार से चार भाग अधिक रखना चाहिये तथा (एक ओर) वृत्ताकार (एवं एक ओर दो कोण) होना चाहिये ॥१५॥
अधिष्ठान दो कोण (एक सिरे पर एवं दूसरे सिर पर) वृत्ताकार होना चाहिये । इसी प्रकार कन्धर एवं मस्तक (शिखर) होना चाहिये । विस्तार के आधे प्रमाण से वृत्ताकृति निर्मित करना चाहिये ॥१६॥
कोण (एवं भुजा) के बगल एवं पृष्ठ भाग के बारह भाग दो बार करना चाहिये । कूट, कोष्ठक एवं नीड के विस्तार का निर्माण एक भाग से करना चाहिये । कोष्ठक को दुगुना लम्बा तथा हारामार्ग (की चौड़ाई) एक भाग से निर्मित करनी चाहिये ॥१७॥
मुख-मण्डप का प्रमाण भवन के बराबर, तीन चौथाई या आधा होना चाहिये । मण्डप के ऊपर उसी प्रकार का अलङ्करण होना चाहिये, जिस प्रकार भवन के ऊपर होता है । सभी भवनों (देवालयों) में मण्डप को कूट एवं कोष्ठ आदि से युक्त निर्मित करना चाहिये ॥१८-१९॥
अथवा त्रिवर्गसहित भवन (अर्थात् कूट आदि से रहित तीन वर्ग वाले भवन) को तोरण आदि से सजाना चाहिये । यदि मण्डप प्रधान भवन के बराबर हो तो अन्तराल नीचा होना चाहिये ॥२०॥
कूट एवं कोष्ठ आदि सभी अवयव मान-सूत्र से बाहर की ओर निकले होते है । ये भाग अपने चौड़ाई के आधे अथवा उसके आधे, एक दण्ड, डेढ़ दण्ड, ढ़ाई दण्ड, तीन दण्डपर्यन्त मानसूत्र से बाहर निकले होते है । जिस भवन में इस विधि से कूटादि अङ्गों का निर्माण होता है, वह सदैव सम्पत्ति प्रदान करता है । एक सीधी रेखा (ऋजु सूत्र ) से इसका प्रमाण लेना चाहिये । ऋजुसूत्र का टूटना विपत्ति प्रदान करता है । ॥२१-२२॥
ऊर्ध्व-तल ( की चौड़ाई) को छः भाग मे बाँटना चाहिये । उसके पृष्ठ-भाग के दोनों पार्श्वो को बारह-बारह भाग मे बाँटना चाहिये । ऊपरी तल के चार भाग करने चाहिये । चौकोर भाग पर पहले के समान यथोचित रीति से कूट एवं कोष्ठ आदि का निर्माण करना चाहिये ॥२३-२४॥
भवन के शीर्ष भाग में सामने की ओर नेत्रशाला (नेत्र के आकार का प्रकोष्ठ) एवं वक्त्र (मुखभाग) निर्मित करना चाहिये तथा क्षुद्रनासी एवं स्तम्भ से युक्त गर्भकूट का निर्माण करना चाहिये ॥२५॥
कूट एवं कोष्ठ आदि का निर्माण इस प्रकार करना चाहिये, जिससे भवन सुन्दर लगे । शिखर भाग पर तीस नासिकायें निर्मित होनी चाहिये ॥२६॥
भवन पर आठ कूट एवं आठ कोष्ट तथा बारह नीड होना चाहिये । हारा-मार्ग पर बारह क्षुद्रनीडों का निर्माण होना चाहिये ॥२७॥
विभिन्न प्रकार के मसुरक (अधिष्ठान), स्तम्भ एवं वेदिका आदि से भवन को अलङ्कृत करना चाहिये । अधिष्ठान उपपीठ से युक्त हो अथवा केवल अधिष्ठान हो । यह 'हस्तिपृष्ठ' नामक भवन सभी देवों केलिये अनुकूल होता है ॥२८॥
स्तम्भतोरण
स्तम्भ की ऊँचाई के दो तिहाई भाग के बराबर (स्तम्भतोरण) की ऊँचाई रखनी चाहिये एवं इसके सभी अङ्गों का निर्माण करना चाहिये । इसे पोतिकाविहीन तथा वीरकाण्ड के ऊपर मण्डि से युक्त, उत्तर-वाजन, अब्ज-क्षेपण (पट्टिका पर निर्मित पद्मपुष्प) एवं निम्न-वाजन से युक्त निर्मित करना चाहिये ॥२९-३०॥
उसके ऊपर झष-काण्ड (मछली की आकृति वाली गोलाई-युक्त पट्टिका) विभिन्न प्रकार के पत्रों से सुसज्जित होना चाहिये । इसे तोरण की आकृति से युक्त एवं कन्धर पर कमल की नाल अङ्कित होनी चाहिये । सभी अलङ्करणों से युक्त 'स्तम्भतोरण' का वर्णन किया गया है ॥३१॥
दो स्तम्भों के मध्य में, हारा-मार्ग पर, कर्ण-प्रासाद के मध्य भाग में, शाला (कोष्ठ) के मध्य के अन्तराल पर सभी भवनों में (स्तम्भ-तोरण का प्रयोग करना चाहिये) ॥३२॥
सभी अवयवों से युक्त दोनों पार्श्वो में स्थित स्तम्भ का तल (ऊँचाई) समान होना चाहिये । वीर-काण्ड अग्र भाग में उत्तर एवं वाजन की स्थापना करनी चाहिये । वाजन के ऊपर दल (पुष्प-पत्र आदि) एवं क्षेपण की स्थापना करनी चाहिये । तोरण के अग्र भाग में नक्र (मकर) एवं पत्र आदि की रचना करनी चाहिये । इस प्रकार के तोरण की देवालय, मण्डप, भवन या अन्य भवन में स्थापना करनी चाहिये । इसमें स्तम्भ की संख्या अयुत (एक) होनी चाहिये ॥३३॥
पुनः हस्तिपृष्ठ
जब मसूरक (अधिष्ठान) आयताकार हो तो उसकी चौड़ाई के आठ भाग एवं लम्बाई के दस भाग करने चाहिये । कूट, कोष्ठक एवं नीड की संरचना एक-एक भाग से करनी चाहिये ॥३४-३५॥
एक भाग से हारा-मार्ग बनाना चाहिये । इसके ऊपर के तल की चौड़ाई के छः भाग होने चाहिये तथा लम्बाई को दो भाग अधिक रखना चाहिये एवं उसके चार भाग करने चाहिये ॥३६॥
वेदिका, गल एव मस्तक आयताकार; किन्तु दो कोण वाला वृत्ताकर (आयताकार आकृति के एक सिरे पर दो कोण हो एवं दूसरा सिरा गोलाई लिये हो) होना चाहिये । कूट एवं कोष्ठ आदि सभी अङ्गों को पूर्ववर्णित रीति से निर्मित करना चाहिये ॥३७॥
विविध प्रकार के अधिष्ठानों से एवं विभिन्न प्रकार के स्तम्भों से अलङ्कृत होना चाहिये । स्तम्भों के ऊपर स्वस्तिबन्धन से सुशोभित नासी (सजावटी खिड़की) होनी चाहिये । बुद्धिमान व्यक्ति को बल के अनुरूप एवं यथोचित रीति से भवन का निर्माण करना चाहिये । प्राचीन मनीषियों ने इस भवन (देवालय) को भी 'गजपृष्ठ' कहा है । सभी देवालयों में सम संख्या का प्रयोग प्रमाण के लिये करना चाहिये ॥३८-३९॥
भद्रकोष्ठ
तेरह हाथ की चौड़ाई को नौ भागों में बाँटना चाहिये । गर्भगृह को तीन भाग से एवं गृहपिण्डी (भित्ति) एक भाग से बनानी चाहिये । अन्धार (अलिन्द, बरामदा) को एक भाग से तथा एक भाग से उसके चारो ओर अन्धारिका (अलिन्द के बाहर की दीवार) बनानी चाहिये ॥४०-४१॥
एक भाग से सौष्ठिक एवं कोष्ठ का विस्तर रखना चाहिये । इसकी लम्बाई चौड़ाई से तीन भाग अधिक होनी चाहिये । आधे भाग से नीड का विस्तार तथा शेष भाग से हारामार्ग निर्मित होना चाहिये ॥४२॥
कोष्ठ के मध्य में तीन दण्ड के प्रमाण से निर्गमन (बाहर की ओर निकला भाग) से युक्त नासी होनी चाहिये । ऊपरी तल के छः भाग करने चाहिये । उसके एक भाग से कूट निर्मित करना चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई दुगुनी होनी चाहिये । एक भाग से पञ्जर से युक्त हारा होनी चाहिये । उसके ऊपरी भाग (तल) के तीन भाग करने चाहिये । मध्य भाग में एक दण्ड का निर्गम होना चाहिये ॥४३-४४॥
यदि अधिष्ठान चौकोर हो तो गल तथा शिखर अष्टकोण होना चाहिये । प्रथम तल के चारो कोनों पर कूट होना चाहिये एवं शिरोभाग चौकोर होना चाहिये ॥४५॥
ऊपरी तल पर सौष्ठिकों (कोष्ठों) का शीर्ष अष्टकोण होना चाहिये । इसी प्रकार आठ कूट, नीड एवं कोष्ठक होना चाहिये ॥४६॥
इसी प्रकार क्षुद्रनीड होना चाहिये । गल-नासिकायें चौसठ होनी चाहिये । नासिकाओं का अलङ्करण स्वस्तिक की आकृति का होना चाहिये । इस भवन की संज्ञा 'भद्रकोष्ठ' उचित ही है ॥४७॥
जब प्रत्येक ऊपरि तल में वृत्ताकर कर्ण-कूट निर्मित हो, शिखर वृत्ताकार हो तथा चार नासियों से युक्त हो, तो उस देवालय को 'वृत्तकूट' कहते है । यह देवालय सर्वदा देवों के अनुकूल होता है ॥४८-४९॥
सुमङ्गल
यदि देवालय चार भुजाओं वाला आयताकार हो तथा उसकी लम्बाई चौड़ाई से आठ भाग अधिक हो, चार भुजाओं वाला कर्णकूट हो एवं उसका शिखर वृत्तायताकार (दीर्घ-वृत्त के आकार का) हो तथा कोष्ठभद्र न हो एवं शेष पूर्ववर्णित अवयव निर्मित हो तो तीन स्तूपिकाओं से युक्त इस देवालय की संज्ञा 'सुमङ्गल' होती है । ॥५०-५१॥
गान्धार
देवालय का पन्द्रह हाथ व्यास होने पर उसके पन्द्रह भाग करने चाहिये । चार भाग से गर्भगृह, एक भाग से अन्धारी (भित्ति की मोटाई), एक भाग से अलिन्द, एक भाग से खण्डहर्म्य, एक भाग से कूट, एक भाग से कोष्ठ एवं एक भाग से पञ्जर निर्मित करना चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई उसकी चौड़ाई से दुगुनी होनी चाहिये, ऐसा बुद्धिमानों का मत है ॥५२-५३॥
ऊपरी तल के छः भाग होने चाहिये । सौष्ठिक की चौड़ाई एक भाग होनी चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई दुगुनी होनी चाहिये एवं हारा एक भाग से होनी चाहिये । उसके ऊपर के तल का चार भाग करना चाहिये एवं दो भाग से मध्य-निर्गम निर्मित करना चाहिये ॥५४-५५॥
इसका माप एक दण्ड, डेढ़ दण्ड या दो दण्ड होना चाहिये । अधिष्ठान चौकोर होना चाहिये एवं इसी प्रकार कन्धर (गल) तथा शीर्ष होना चाहिये ॥५६॥
कूटों की संख्या आठ हो एवं इसी प्रकार नीड एवं कोष्ठक भी होना चाहिये । ऊर्ध्व भाग में वर्षस्थल (जल का स्थान) से युक्त आठ लम्बनीड का निर्माण करना चाहिये ॥५७॥
स्वस्तिक के आकार की नासिका सभी स्थलों पर सुशोभित होती है । विभिन्न प्रकार के मसूरक (अधिष्ठान), स्तम्भ, वेदी, जालक (झरोखा) एवं तोरण इस भवन के अनुकूल होते है ॥५८॥
यदि कूट एवं कोष्ठ ऊँचे एवं अन्तर-प्रस्तर (आधार-वेदिका) से युक्त हो, गल एवं शिर अष्टकोण हों तो ऐसे देवालय को 'गान्धार' कहते है ॥५९॥
श्रीभोग
यदि वेदी, कन्धर एवं शिखर गोलाकार हो तथा अन्य अङ्ग पूर्व-वर्णित विधि के अनुसार हो तो उस देवालय की संज्ञा 'श्रीभोग' होती है ॥६०॥
कूटकोष्ठ
वृत्ताकार, वृत्तायताकार (लम्बाई-युक्त गोलाई), दो कोण वाले (एवं दूसरे सिरे पर) वृत्ताकार, आठ कोण एवं छः कोण वाले भवन में प्रत्येक तल में कूट, कोष्ठक एवं नीड होना चाहिये । इनके ऊपर खण्ड-हर्म्यक (लम्बी सजावटी कक्ष की आकृति) भी हो, जो कूट, कोष्ठ तथा नीडों से सुसज्जित हो ॥६१॥
दो कोण वाले वृत्ताकर एवं वर्तुलाकार भवन में भीतरी भाग में सीधे भाग से कुछ कम हो सकता है या बराबर माप हो सकता है । ऊपरी तल निचले तल से आठ या दश भाग कम हो सकता है । जिस रीति से भवन सुन्दर लगे एवं दृढ़ हो, उस रीति का प्रयोग बुद्धिमान स्थपति को करना चाहिये ॥६२-६३॥
पुनः धामभेद
पुनः भवन के भेद - देवालय दो प्रकार के होते है - अर्पित एवं अनर्पित । अर्पित देवालय में अलिन्द नही होता है एवं अनर्पित में अलिन्द होता है । इस अल्पक्रम का प्रयोग सभी देवालयों में बुद्धिमान स्थपति को करना चाहिये ॥६०-६५॥
नालीगृह
गर्भगृह - गर्भगृह अथवा नाली-गृह का प्रमाण देवालय का तीसरा भाग, पाँच भाग में तीन भाग, सात में चार भाग, नौ में पाँच भाग, ग्यारह में छः भाग, तेरह में सात भाग, पन्द्रह में आठ भाग, सत्रह में नौ भाग अथवा मन्दिर का आधा होना चाहिये ॥६६॥
वेदिका
भवन के अवयवों के नीचे, कूट एवं कोष्ठ आदि के नीचे एवं ग्रीवा के नीचे वेदिका निर्मित करनी चाहिये । हाराभाग के नीचे वेदिका का निर्माण हो भी सकता है तथा नही भी हो सकता है । वहाँ नीड एवं अल्प-नास का निर्माण (ऊपरी भाग में) होना चाहिये ॥६७॥
तोरणादिविधान
तोरण आदि का विधान - तोरण तीन प्राकर के होते है - पत्र तोरण, मकर-तोरण एवं चित्र-तोरण । अब इनकी सज्जा का वर्णन किया जा रहा है ॥६८॥
उगते हुये चन्द्रमा के समान एवं पत्रों से अलङ्कृत तोरण को 'पत्रतोरण' कहते है । मध्य में दो मकरों के मुख पर स्थित पूरिन (शिव) हो एव तोरण पर विविध प्रकार की लतायें निर्मित हो तो वह 'मकरतोरण' होता है ॥६९॥
(चित्रतोरण में) मध्य भाग में पूरिन (शिव) स्थित रहते है, जिन्हे नक्र-तुण्ड (मकरों के मुख का अग्र-भाग) दोनों ओर से पकड़े रहता है । दोनों मकर-मुखों से विद्याधर, भूत, सिंह, व्याल, हंस एवं बच्चे निकलते है जो पुष्पों की माला, अन्य मणिबन्ध आदि आभूषणों से सुसज्जित रहते है । इस तोरण की संज्ञा 'चित्रतोरण' है तथा यह देवों एवं राजाओं के लिये (देवालय एवं राज-भवन में) प्रशस्त होता है ।
इस तोरण की गुहाओं (सजावटी खिड़कियो के भीतर का कक्षनुमा स्थान) में प्रतिमायें होती है । तोरण के दोनो पार्श्वो में स्तम्भ होते है एवं नीचे उत्तर होते है । ॥७३॥
स्तम्भ की ऊँचाई को पाँच, छः या सात भागों में बाँटना चाहिये । दो भाग तोरण के ऊर्ध्व भाग के लिये एवं शेष भाग स्तम्भ के लिये छोड़ना चाहिये । स्तम्भ चौकोर, अष्टकोण या वृत्ताकार होना चाहिये । यह कुम्भ एवं मण्डि से युक्त एवं पोतिका के विना भी हो सकता है । इसके अतिरिक्त उत्तर, वाजन, अब्ज-क्षेपण एवं क्षुद्र-वाजन निर्मित होती है ॥७४-७५॥
पोतिका के ऊपर या वीरकाण्ड के ऊपर (स्तम्भ की) सन्धि के ऊर्ध्व भाग पर मकर-विष्टर (मकराकृति ढलान) निर्मित करना चाहिये ॥७६॥
तोरण की ऊँचाई की आधी उसकी चौड़ाई रखनी चाहिये (अथवा) तीन, चार या पाँच दण्ड तोरण का विस्तार रखना चाहिये । (अथवा) तोरण की ऊँचाई द्वार के बराबर हो एवं चौड़ाई दोनों स्तम्भों के मध्यभाग के बराबर होनी चाहिये । ऊपरी भाग में मकर के आकार का उत्तर निर्मित करना चाहिये, जिस पर अष्ट-मङ्गल पदार्थ अङ्कित हो । फलक पर पञ्चवक्त्र (शिव) अङ्कित हो एवं ऊर्ध्व भाग में शूल निर्मित हो । ऊर्ध्व भाग में छत्र, ध्वज, पताका, श्री, भेरी, कुम्भ, दीप एवं नन्द्यावर्त आकृति (स्वस्तिक) सभी पर इन अष्टमङ्गल चिह्नो का अङ्कन होना चाहिये । इस देवता आदि के (भवनों में) चार प्रकार के तोरणों के भेद वर्णित है ॥७७-७९॥
पद्मासन (पद्म-फलक) के ऊपर कुम्भ के तिरछे (पार्श्व में) सुन्दर लता की आकृति होनी चाहिये । उसके ऊपरी फलक के ऊर्ध्व भाग में कुम्भ की लता के अग्र भाग में पद्म-पुष्प अङ्कित होना चाहिये ॥८०-८१॥
पद्म, कुम्भ एवं लता तथा अन्य सज्जाओं का भी अङ्कन होना चाहिये । ऊपरी जोड़ के ऊपर वीरकाण्ड होना चाहिये । ऊर्ध्व भाग में स्तम्भकुम्भलता एवं स्तम्भतोरण होना चाहिये । देवालय एवं उससे भिन्न (मनुष्य-आवास) में हारा-मार्ग का निर्माण करना चाहिये ॥८२-८३॥
'वृत्तस्फुटित' देवालयों का अलङ्करण होता है । इसकी लम्बाई तोरण के स्तम्भ के बराबर होती है । इसकी चौड़ाई छः, आठ, दश, बारह या चौदह माप (मात्रक) की होनी चाहिये तथा निष्क्रान्त (बाहर निकला भाग) चौड़ाई का आधा, दो तिहाई या एक तिहाई होना चाहिये । इसका आच्छादन गोलाकार होता है । ऊर्ध्व भाग कन्धर (गल)से युक्त होता है, जिस पर 'शुकनासि' निर्मित होती है ॥८४-८५॥
सीढ़ी - प्रत्येक तल में बुद्धिमान व्यक्ति को सीढ़ी का निर्माण करना चाहिये । इसका मूल (प्रारम्भ, प्रकार) तीन प्रकार का सम्भव है - चौकोर, गोलाकार या आयताकार । सीढ़ीयोंके चार प्रकार होते है -त्रिखण्ड, शङ्खमण्डल, वल्ली मण्डल, एवं अर्धगोमूत्र ॥८६-८७॥
मूल (प्रारम्भ) से ऊपर तक चौड़ाई में क्रमशः क्षीण होने वाला सोपान 'शङ्खमण्डल' है । वल्लीमण्डल सोपान की संरचना वृक्ष पर चढ़ी हुई (गोलाई में लिपटी हुई) लता के समान की जाती है । अश्वपाद (अश्व के खुर अथवा अर्धचन्द्र का प्रथम सोपान पट्टी) के ऊपर से प्रारम्भ होकर दक्षिण की ओर मुड़ते हुये दो दण्ड से लेकर सात दण्डपर्यन्त सोपान की चौड़ाई हो सकती है । अश्वपाद का विस्तार सोपान के प्रमाण से दुगुना से लेकर चार गुना तक होता है ॥८८-९०॥
सोपान-पट्टियों के मध्य की ऊँचाई शयित व्यास (लेटाई गई पट्टियों की चौडाई) की चौथाई, आधी या तीन चौथाई होनी चाहिये । गज, बच्चों एवं वृद्धो को ध्यान में रखते हुये सोपान-पट्टियों को बराबर भागों में बाँटना चाहिये (अर्थात उनकी लम्बाई-चौड़ाई आदि पूर्व-निर्धारित प्रमाण में हो) । सोपान के बिछे फलक का व्यास (गहराई) सोलह से अट्ठारह अङ्गुल होना चाहिये एवं ऊँचाई उसके छठे भाग के बराबर होनी चाहिये । इस प्रकार सोपान का निर्माण करना चाहिये ॥९१-९२॥
हस्त की चौड़ाई दो दण्ड एवं मोटाई उसकी चतुर्थांश होनी चाहिये । स्थित (खड़ी स्थिति) एवं शायिन (लेटी स्थिति) वाले फलकों को हस्त में दृढतापूर्वक बैठाना चाहिये । (हस्त सीढ़ी के पार्श्व का एक अङ्ग है ) ॥९३॥
सोपानों की संख्या विषम होनी चाहिये । ये गुप्त (भित्ति आदि में छिपी) या प्रकट हो सकती है । मण्डप आदि में बाहर की ओर एक भित्ति (सीढ़ी का एक विशेष भाग) निकली होनी चाहिये ॥९४॥
सभी वर्ण वाले व्यक्तियों के भवन में सीढ़ी दक्षिण (दाहिनी) की ओर घूमनी चाहिये । यह शुभ होता है । इसके विपरी (बाँयी ओर मुड़ना) विनाशकारक होता है ॥९५॥
अधिष्ठान पर चढ़ने के लिये निर्मित सोपान मुख एवं दोनों पार्श्वों की ओर होना चाहिये । हस्तिहस्त (सीढ़ी का एक भाग, सम्भवतः रेलिङ्ग) का निर्माण अश्वपाद से लेकर फलक (ऊपर फलक) तक होना चाहिये ॥९६॥
अधिष्ठान का सोपान उसके स्तम्भ-प्रस्तर के बराबर (ऊँचा) होना चाहिये । इस विधि से निर्मित सोपान सम्पत्ति-कारक होता है ॥९७॥
इस प्रकार देवालय एवं मनुष्यों के आवास के अनुरूप तोरण एवं सोपान के भेद एवं आकार का वर्णन किया गया । वास्तु-विद्या के ज्ञाता को भवन के अनुसार उचित रीति से इनकी योजना बनानी चाहिये ॥९८॥
इस प्रकार इनके (भवन के) तीन भेद- नागर, द्राविड एवं वेसर होते है, जो क्रमशः सत्त्व, रजस एवं तमस के प्रतीक है । ये (मनुष्यों में) ब्राह्मण, राजा (क्षत्रिय) एवं वैश्य के तथा (देवों में) हरि, विधाता एवं शिव के (भवन के लिये) अनुकूल होते है ॥९९॥