मयमतम् - अध्याय ७
वास्तुपद-विन्यास -
मैं (मय ऋषि) सभी वास्तुमण्डलों के पद पद-विन्यास का वर्णन करता हूँ ।
बत्तीस प्रकार के पदविन्यास होते है । उनके नाम है - सकल, पेचक, पीठ, महापीठ, उपपीठ, उग्रपीठ, स्थण्डिलचण्डित, मण्डूक, परमशायिक, आसन, स्थानीय, देशीय, उभयचण्डित, भद्रमाहसन, पद्मगर्भ, त्रियुत, व्रतभोग, कर्णाष्टक, गणित, सूर्यविशालक, सुसंहित, सुप्रतीकान्त, विशाल, विप्रगर्भ, विश्वेश, विपुलभोग, विप्रतिकान्त, विशालाक्ष, विप्रभक्तिक, विश्वेसार, ईश्वरकान्त एवं इन्द्रकान्त ॥१-७॥
'सकल' पदविन्यास एक पद से बनता है । 'पेचक' चार पद, 'पीठ' नौ पद एवं 'महापीठ' सोलह पद से बनते है ॥८॥
'उपपीठ' का पदविन्यास पच्चीस पदों से, 'उग्रपीठ' छत्तीस पदों से, 'स्थण्डिल' उनचास पदों से एवं 'मण्डूक' चौसठ पदों से होता है ॥९॥
'परमशायिक' इक्यासी पदों से एवं 'आसन' सौ पदों से बनता है । एक सौ इक्कीस पदों से - ॥१०॥
'स्थानीय' पदो की रचना होती है । 'देशीय' पदविन्यास एक सौ चौवालीस पदो से तथा उभयचण्डित एक सौ उनहत्तर पदों से होता है ॥११॥
'भद्र-महासन' मे एक सौ छियानबे पद होते है तथा 'पद्मगर्भ' मे दो सौ पच्चीस पद होते है ॥१२॥
'त्रियुत' मे दो सौ छप्पन पद होते है एवं 'व्रतभोग' मे दो सौ नवासी पद होते है ॥१३॥
'कर्णाष्टक' मे तीन सौ चोबीस पद तथा 'गणित' वास्तु-पद मे तीन सौ एकसठ पद होते है ॥१४॥
'सूर्यविशाल' मे चार सौ पद कहे गये है एवं 'सुसंहित' पद-विन्यास में चार सौ एकतालीस पद होते है ॥१५॥
'सुप्रतीकान्त' मे चार सौ चौरासी पद तथा 'विशाल' मे पाँच सौ उन्तीस पद कहे गये है ॥१६॥
'विप्रगर्भ' पदविन्यास पाँच सौ छिहत्तर तथा 'विश्वेश' छः सौ पच्चीस पदों से निर्मित होते है ॥१७॥
'विपुलभोग' मे छः सौ छिहत्तर एवं 'विप्रकान्त' मे सात सौ उन्तीस पद होते है ॥१८॥
'विशालाक्ष' मे सात सौ चौरासी पद तथा 'विप्रभक्तिक' मे आठ सौ इकतालीस पद होते है ॥१९॥
'विश्वेशसार' मे नौ सौ पद एवं 'ईश्वरकान्त' मे नौ सौ इकसठ पद होते है ॥२०॥
'इन्द्रकान्त' पदविन्यास मे एक हजार चौबीस पद होते है । ये तन्त्रशास्त्र के प्राचीन विद्वानों के मत है ॥२१॥
सकल
प्रथम वास्तुपद-विन्यास मे केवल एक पद होता है । यह यतियों के लिये अनुकूल होता है । इसमे अग्निकार्य होता है एवं इसमे कुश बिछाया जाता है । इस पर पितृपूजन, देवपूजन एवं गुरुपूजन का कार्य सम्पन्न होता है । इसके चारो ओर खींची गई रेखाये भानु, अर्कि, तोय एवं शशि कहलाती है ॥२२॥
पेचक
पेचकसंज्ञक पद-विन्यास मे चार पद होते है । इसमे पिशाच, भूत, विषग्रह एवं राक्षसों की पूजा होती है । विधियों के ज्ञाता विधिपूर्वक इस प्रकार के कार्यों के लिये इस पदविन्यास को बनाते है एवं इसमे सभी विधियों का पालन करते हुये निर्मल एवं निष्कल शिवको प्रतिष्ठित करते है ॥२३॥
पीठसंज्ञक पद-विन्यास में नौ पद होते है । इसके चारो दिशाओ मे चारो वेद, ईशान आदि (कोणो) में क्रमशः उदक (जल), दहन (अग्नि), गगन (आकाश) एवं पवन (वायु) होते है तथा मध्य मे पृथिवी होती है ॥२४॥
महापीठ
महापीठ पद-विन्यास मे सोलह पद होते है एवं इसमे पच्चीस देवता होते है । इन पदो मे (ईशान कोण से प्रारम्भ कर क्रमशः) देवता इस प्रकार होते है - ईश, जयन्त, आदित्य, भृश, अग्नि,
वितथ, यम ॥२५॥
भृङ्ग, पितृ, सुग्रीव, वरुण, शोष, मारुत, मुख्य, सोम एवं अदिति बाह्य पदो के देवता कहे गये है ॥२६॥
अन्दर के पदो के देवता आपवत्स, आर्य, सावित्र, विवस्वान, इन्द्र, मित्र, रुद्रज एवं भुधर है । केन्द्र मे ब्रह्मा स्थित होते है, जो सबके स्वामी कहे गये है ॥२७॥
उपपीठादी
उपपीठ वास्तु-विन्यास में वे (पूर्वोक्त) देवता अपने पदों के अतिरिक्त अपने दोनो पार्श्वो मे एक-एक पद की वृद्धि प्राप्त करते हुये स्थित होते है ॥२८॥
बुद्धिमान (स्थपति) को चाहिये कि उन देवो के दोनो पार्श्वो मे एक-एक पद की वृद्धि तब तक करे, जब तक इन्द्रकान्त पद न बन जाय ॥२९॥
जिन वास्तु-विन्यासों मे सम संख्या मे पद हो, उन्हे चौसठ पद वाले वास्तु के समान एवं विषम संख्या मे पद हो तो इक्यासी पद वाले वास्तु के समान (देवों को) रखना चाहिये ॥३०॥
सभी वास्तु-विन्यासों मे मण्डूकसंज्ञक वास्तुपद- विन्यास सभी निर्माण-कार्यो के लिये उपयुक्त होता है; क्योंकि यह (तान्त्रिक) विधि पर आधारित होता है ॥३१॥
इसलिये मै (मय ऋषि) तन्त्रों से संक्षेप में विषय ग्रहण कर सकल एवं निष्कल चौसठ एवं इक्यासी दो पदविन्यासों का वर्णन करता हूँ ॥३२॥
(उपर्युक्त दोनो पदविन्यासो मे) वास्तुपद के मध्य मे ब्रह्मा आदि देवता स्थापित किये जाते है । ईशान कोण से प्रारम्भ कर पृथक-पृथक स्थापित किये जाने वाले देवता का यहाँ वर्णन किया जा रहा है ॥३३॥
दैवतस्थान
वास्तुदेवों के स्थान - (ईशान कोण से प्रारम्भ करते हुये देवता इस प्रकार है -) ईशान, पर्जन्य, जयन्त, महेन्द्रक, आदित्य, सत्यक, भृश तथा अन्तरिक्ष ॥३४॥
(आग्न्ये कोण से नैऋत्य कोण के देवता इस प्रकार है)- अग्नि, पूषा, वितथ, राक्षस, यम, गन्धर्व, भृङ्गराज, मृष तथा पितृदेवता ॥३५॥
(पश्चिम से वायव्य तक तथा उत्तर के देवता इस प्रकार है) दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदन्त, जलाधिप (वरुण), असुर, शोष, रोग, वायु एवं (उत्तर दिशा मे) नाग ॥३६॥
(उत्तर दिशा के देवता है-) मुख्य, भल्लाटक, सोम, मृग, अदिति एवं उदिति- ये बत्तीस बाह्य पदों के देवता है ॥३७॥
अन्तः देवों मे पूर्वोत्तर (ईशान) मे आप एवं आपवत्स देवता तथा पूर्व-दक्षिण (आग्नेय कोण) मे सविन्द्र एवं साविन्द्र देवता होते है ॥३८॥
दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) मे इन्द्र एवं इन्द्रराज तथा पश्चिमोत्तर (वायव्य कोण) मे रुद्र एवं रुद्रजय देवता कहे गये है ॥३९॥
मध्य मे स्थित ब्रह्मा शम्भु है तथा अर्य, विवस्वान् मित्र एवं भूधर - ये चार देवता उनकी ओर मुख करके स्थित होए है ॥४०॥
ईशान आदि चारो कोणों के बाहर क्रमशः चार स्त्री-देवताओं-चरकी, विदारी, पूतना एवं पापराक्शसी की स्थापना होनी चाहिये । ये चारो विना पद के ही बलि (वास्तु के निमित्त हविष) ग्रहण करती है । शेष देवो का पद कहा गया है ॥४१॥
इस प्रकार इक्यासी संख्याओ का एक पद वास्तुचक्र मे मण्डलदेवताओं का होता है, जिसका विवरण अग्रलिखित है- २० + ७ + ६ + ६ + ६ +६ + ६ + १२ + ४ + ८ = ८१ अर्थात खड़ी और पड़ी दश-दश रेखायें होने से इक्यासी पद का वास्तुचक्र सम्पन्न होता है ॥४२॥
चौसठ पद वाले मण्डूक पद मे मध्य के चार पद मे ब्रह्मा होते है ॥४३॥
मण्डूकपद
(ब्रह्मा के पश्चात् उनके चारो ओर० आर्यक आदि चार देवता (आर्य, विवस्वान्, मित्र, भूधर) पूर्व से आरम्भ होकर तीने-तीन पद मे स्थित होते है । आप आदि आठ देवता (आप, आपवत्स, सविन्द्र, साविन्द्र, इन्द्र, इन्द्रराज, रुद्र एवं रुद्रजय) ब्रह्मा के चारो कोणों मे आधे-आधे पद मे प्रतिष्ठित होते है ॥४४॥
महेन्द्र, राक्षस, पुष्प एवं भल्लाटक - ये चारो देवता दिशाओं मे (क्रमशः पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं पूर्व मे) दो-दो पद के भागी बनते है ॥४५॥
जयन्त, अन्तरिक्ष, वितथ, मृष, सुग्रीव, रोग, मुख्य एवं दिति को एक-एक पद प्राप्त होता है ॥४६॥
शेष बचे ईश आदिआठ देवता (ईश, पर्जन्य, अग्नि, पूषा, पितृदेवता, दौवारिक, वायु एवं नाग) कोणों पर आधा-आधा पद पाप्त करते है । इस प्रकार मण्डूक वास्तुपद मे देवताओं को स्थान प्राप्त होता है ॥४७॥
अपने-अपने क्रम से ये सभी देवता बाँये से दाहिने पदो मे स्थित होते है । सभी देवगण ब्रह्मा को देखते हुये अपने-अपने पदों मे स्थान ग्रहण करते है ॥४८॥
वास्तुपुरुषविधान
वास्तुपुरुष की रचना - वास्तु-पुरुष निकुब्ज पूर्व की दिशा मे सिर किये वास्तुभूमि पर स्थित होता है । उसके छः वंश (अस्थियाँ), चार मर्मस्थल, चार सिरायें एवं एक ह्रदय होते है ॥४९॥
उस वास्तुपुरुष के सिर आर्यकसंज्ञक देवता होते है । सविन्द्र दाहिनी भुजा एवं साविन्द्र कक्ष होते है ॥५०॥
आप एवं आपवत्स कक्षसहित वाम भुजा, विवस्वान दक्षिण पार्श्व एव महीधर वाम पार्श्व बनते है ॥५१॥
वास्तुपुरुष का मध्य शरीर ब्रह्मा से निर्मित होता है एवं मित्र उसके पुरुषलिङ्ग होते है । इन्द्र एवं इन्द्रराज वास्तुपुरुष के दक्षिण पाद कहे गये है ॥५२॥
रुद्रं एवं रुद्रजय इसके वाम पद है एवं वह अधोमुख होकर भूमि पर सोता है । इसके छः वंश (रेखाये) है, जो पूर्व एवं उत्तर की ओर होते है ॥५३॥
वास्तुमण्डल के मध्ये में वास्तुपुरुष के मर्मस्थल होते है एवं ब्रह्मा वास्तुपुरुष के ह्रदय है । वास्तुमण्डल के निष्कूट अंश (रेखाये) वास्तुपुरुष की सिरायें (रक्तवाहिनी शिराये) होती है ॥५४॥
मनुष्यों के प्रत्येक गृह में वास्तुपुरुष का निवास होता है, जो गृह मे रहने वालो के शुभ एवं अशुभ परिणाम का कारक होता है । विद्वान मनुष्य को चाहिये कि वास्तुपुरुष के अङ्गो को गृह के अङ्गो को गृह के अङ्गो (स्तम्भ, भित्ति आदि) से पीड़ित न करे ॥५५॥
वास्तुपुरुष का जो-जो अङ्ग पीड़ित होता है, गृहस्वामी के उस-उस अङ्ग मे रोग होता है । अतः विद्वान् गृहस्वामी को वास्तुपुरुष के अंगो पर निर्माणकार्य का सर्वथा त्याग करना चाहिये ।
पुनर्मण्डूकपद
पुनः मण्डूक- पदविन्यास - वास्तु-मण्डल मे ४५ देवता होते है । मण्डूकसंज्ञक वास्तुमण्डल में चौंसठ पद होते है । केन्द्र मे ब्रह्मा के चार पद होते है । ब्रह्मा की ओर मुख किये चार देवों के तीन-तीन पद, सोलह देवों के आधे-आधे पद, आठ देवों के एक-एक पद एवं सोलह के दो पद होते है ॥५६-५७॥
परमशायी वास्तु-मण्डल मे ब्रह्मा को नौ पद प्राप्त होते है । उनकी ओर मुख किये चारो देवों को छः-छः पद, कोण मे स्थित देवो को दो-दो पद एवं बाहर स्थित सभी देवो को एक-एक पद प्राप्त होता है ॥५८॥