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मयमतम् - अध्याय १४


 
अधिष्ठान का निर्माण - 
देवों, ब्राह्मणों एवं अन्य वर्ण वालों के गृह-निर्माण के अनुरूप दो प्रकार की भूमि-जाङ्गल (सूखी) एवं अनूप (स्निग्ध) होती है ।॥१॥
जाङ्गल भूमि अत्यन्त कंकरीली होती है एवं खोदने में कड़ी होती है । इसमें खुदाई के पश्चात् अत्यन्त स्वच्छ, चन्द्रमा के सदृश जल प्राप्त होता है ॥२॥
भवन की योजना के अनुरूप खुदाई करने पर न्ल कमल एवं ककड़ी से युक्त महीन बालू प्राप्त होते है । ऐसी भूमि को अनूप कहते है । इसमें खुदाई करते ही जल दिखाई पड़ने लगता है ॥३॥
(जलदर्शन के पश्चात् ) गड्ढे को ईंटो, प्रस्तर, मिट्टी, चिकने बालू एवं कङ्कड़ से भरना चाहिये । इन्हे इस प्रकार भरना चाहिये, जिससे कि खोदा गया गड्ढा छेदरहित एवं दृढ़ हो जाय । इसे गजपाद से एवं बड़े काष्ठखण्डों से (कूट-पीट कर) सघन बना देना चाहिये ॥४-५॥
उस गर्त को (कङ्कड़ आदि से भरने के बाद शेष बचे गड्ढे को) जल से भरना चाहिये । जल के क्षीण न होने पर शुभ होता है । बुद्धिमान् (स्थपति) को जल से ही भूमि के समान होने (समतल होने) की परीक्षा करने के पश्चात् गर्त में गर्भ-न्यास करना चाहिये । इसके पश्चात्‍ नियमपूर्वक वास्तु-होम करना चाहिये ॥६॥
उस स्थान पर स्तम्भ का दुगुना या तीन गुना व्यास वाला एवं उसका आधा मोटाई वाला बहल से युक्त उपान स्थापित करना चाहिये । उसके ऊपर बुद्धिमान (स्थपति) को उपान के अनुरूप प्रमाण का पद्म तथा उपोपान निर्मित करना चाहिये ॥७-८॥
भूमि को एक हाथ के प्रमाण से ऊँचा बनाकर एवं सघन कर उसके ऊपर जिस उपान को स्थापित किया जात है, उसे जन्म कहते है ॥९॥
उसके ऊपर उपपीठ से युक्त अधिष्ठान स्थापित करना चाहिये एवं उसके ऊपर स्तम्भ, भित्ति अथवा जङ्घा निर्मित होनी चाहिये ॥१०॥
जिस पर प्रासाद आदि भवन स्थित रहते है एवं जिससे कपोत (भवन का एक भाग) के ऊपर प्रति (भवन का अङ्ग) निर्मित होता है, उसे भूमिदेश कहते है ॥११॥
अधिष्ठानोन्मान
अधिष्ठान की ऊँचाई का प्रमाण - अधिष्ठान की ऊँचाई का प्रमाण भूमि (तल) के एवं जाति के अनुसार दो प्रकार का होता है । देवालय में यह चार हाथ का एवं ब्राह्मणगृह में साढ़े तीन हाथ का होता है ॥१२॥
राजा के भवन में तीन हाथ, युवराज के भवन में ढ़ाई हाथ, वेश्यों के भवन में दो हाथ एवं शूद्र के भवन में एक हाथ का अधिष्ठान कहा गया है ॥१३॥
अधिष्ठान की ऊँचाई का यह प्रमाण जाति के अनुसार वर्णित है । भूमि (तल) के अनुसार अधिष्ठान का माप इस प्रकार है - बारह भूमि से प्रारम्भ कर छः-छः अंश प्रत्येक भूमि के कम करते हुये तीन भूमिपर्यन्त भवन में अधिष्ठान (की ऊँचाई) एक दण्ड होना चाहिये ॥१४॥
तीन तल के भवन में उत्तम अधिष्ठान प्रशस्त होता है । उसका माप चतुर्थांश कम दो हाथ होता है । इससे छोटे अधिष्ठान का प्रयोग छोटे भवनों में विद्वानों द्वारा वर्णित नीति के अनुसार करना चाहिये ॥१५॥
यह मान भवन के स्तम्भ के आधे प्रमाण से छः या आठ भाग कम होना चाहिये । अधिष्ठान की ऊँचाई का प्रमाण भवन के तल के अनुसार रखना चाहिये ॥१६॥
उपान के निष्क्रान्त के तीन भाग करने चाहिये । उसके एक भाग को छोड़ कर जगती (अधिष्ठान) का निर्माण करना चाहिये ॥१७॥
इसी प्रकार कुमुदपट्ट एवं कण्ठ का भी निर्माण करना चाहिये । इस प्रकार अधिष्ठान की ऊँचाई पर्यन्त प्रत्येक भाग का प्रमाण वर्णित है ॥१८॥
पादबन्ध अधिष्ठान - पादबन्ध के भागों के नाम एवं प्रमाण इस प्रकार है - वप्र आठ भाग, कुमुद सात भाग, कम्प एक भाग, कन्धर तीन भाग, कम्प एक भाग, वाजन तीन भाग तथा एक भाग मे अधोकम्प एवं ऊर्ध्वकम्प ॥१९॥
इस प्रकार ऊँचई में चौबीस भागों में बाँटे गये पादबन्ध का वर्णन प्राचीन ऋषियों द्वारा किया गया है, जो देवों, ब्राह्मणों, राजाओं (ऋषियों) वैश्यों एवं शूद्रों के भवन के अनुकूल है ॥२०॥
उरगबन्ध अधिष्ठान - ऊँचाई में अट्ठारह बागों में विभाजित उरगबन्ध अधिष्ठान, के दो प्रति नाग-मुख के सदृश होते है । इसमें वाजन एक बाग, प्रतिमुख दो बाग, त्रियस्त्रक एक बाग, दृक्‌ तीन भाग, वृत्तकुमुद चः भाग एवं वप्रक पाँच भाग से निर्मित होता है । यह देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के भवनों के योग्य होता है ॥२१-२२॥
प्रतिक्रम
प्रतिक्रम अधिष्ठान - प्रतिक्रम अधिष्ठान की ऊँचाई के इक्कीस भाग करने चाहिये । एक भाग से क्षुद्रोपान, डेढ़ भाग से अब्ज, आधे भाग से कम्प, सात भाग से जगती, छः भाग से धारायुक्त कुमुद, एक भाग से आलिङ्गान्त, एक भाग से आलिङ्गादि, दो भाग से प्रतिमुख एवं एक भाग से पद्मयुक्त वाजन का निर्माण करना चाहिये । अधिष्ठान पर गज, सिंह, मकर एवं व्याल आदि का आभूषण के रूप में अंकन करना चाहिये ॥२३॥
इस प्रकार सुसज्जित प्रतिक्रम अधिष्ठान देवालय के लिये प्रशस्त होता है । जब इस पर पत्र एवं लतादिकों का अंकन किया जाता है, तब वह ब्राह्मण एवं राजाओं के गृह के अनुरूप होता है; साथ ही उन्हे शुभ, समृद्धि तथा विजय प्रदान करता है ॥२४॥
पद्मकेसर
पद्मकेसर अधिष्ठान - पद्मकेसर अधिष्ठान के छब्बीस भाग (ऊँचाई में) किये जाते है । इसमें जन्म एक भाग, अब्जक दो भाग, वप्र एक भाग, पद्म छः भाग, गल एक भाग, अब्ज एक भाग, कुमुद एक भाग, पद्म चार भाग, कम्प एक भाग, गल एक भाग, कम्प दो भाग, पद्म एक भाग, पटी दो भाग, कमल एक भाग एवं कम्प एक भाग होता है ॥२५॥
यह अधिष्ठान पद्मकेसर है । इस पद्मकेसर अधिष्ठान में कम्पवाजन, पङ्कज, कुम्भ, वप्र और कन्धर जब युक्त होता है तो यह शम्भु-मन्दिर के अनुकूल हो जाता है ॥२६॥
पुष्पपुष्पक अधिष्ठान - पुष्पपुष्पकल अधिष्ठान की ऊँचाई को उन्नीस भागों में बाँटना चाहिये । इसमें एक भाग से जन्म, पाँच से विप्र, एक से कञ्ज, आधे से गल, आधे से अब्ज, चार से कुमुद, आधे से पङ्कज, आधे से कम्प, दो से कण्ठ, आधे से कम्प, आधे से पद्म, दो से महावाजन, आधे से दल तथा आधे से पङ्कजयुक्त कम्प निर्मित होते है । इस प्रकर अनेक पद्म-पुष्पों से युक्त अधिष्ठान पुष्पपुष्पकल कहलाता है । शिल्पियों के अनुसार यह अधिष्ठान मध्यम एवं बड़े विमानों (मन्दिरो) के अधिक अनुकूल होता है ॥२७-२८॥
श्रीबन्ध अधिष्ठान - श्रीबन्ध अधिष्ठान की ऊँचाई के बत्तीस भाग किये जाते है । इसमे दो भाग से अधिष्ठान का निचला भाग, एक से अब्ज, सात से ह्रत्‌, एक से पद्म, एक से कैरव, चार से अब्ज, एक से गल, एक से अधर, तीन से गल, एक से कम्प, एक से दल, चार से कपोत, एक से आलिङ्गादि, एक से आलिङ्गान्त, दो से प्रतिमुख एवं एक से पङ्कजयुक्त वाजन निर्मित होते है । इसकी स्थापना कुशल वर्धकि द्वारा करानी चाहिये । यह अधिष्ठान देवालयों एवं राजभवनों के लिये अनुकूल होता है तथा श्री, सौभाग्य, आरोग्य एवं भोग प्रदान करता है ॥२९-३०॥
मञ्चबन्ध अधिष्ठान - मञ्चबन्ध अधिष्ठान की ऊँचाई के छब्बीस भाग करने चाहिये । एक भाग से खुर, छः से जगती, पाँच से कैरव, एक से कम्प, तीन से कण्ठ, एक से कम्प, एक से पद्म, तीन से कपोत, एक-एक भाग से ऊपर-नीचे के सदृश निर्माण, एक-एक भाग से अन्तवक्त्र एवं आदिवक्त्र तथा एक भाग से कम्प निर्मित होना चाहिये । यह अधिष्ठान राजगृह के अनुकूल होता है ॥३१॥
श्रीकान्त अधिष्ठान - जब अधिष्ठान आलिङ्ग एवं अन्तरित प्रति से युक्त हो एवं वाजन से रहित हो तो उसे श्रीकान्त कहते है । इसका कुमुद अष्टकोण अथवा वृत्ताकार हो सकता है एवं यह अम्बरामार्गियों के अनुकूल होता है ॥३२॥
श्रेणीबन्ध
श्रेणीबन्ध अधिष्ठान - देवालयों के अनुकूल श्रेणीबन्ध संज्ञक अधिष्ठान ऊँचाई में छब्बीस भागों में बाँटा जाता है । इसमें एक भाग से जन्म, दो से अब्ज, एक से कम्प, छः से जगती, चार से कुमुद, एक से कम्प, दो से कण्ठ, एक से कम्प, दो से पद्म, एक से पट्ट, दो से कण्ठ, एक से वाजन, डेढ़ से अब्ज एवं एक से पट्ट निर्मित होता है ॥३३॥
पद्मबन्ध अधिष्ठान - पद्मबन्ध अधिष्ठान की ऊँचाई को अट्ठारह भागों में बाँटना चाहिये । डेढ़ भाग से जन्म, आधे भाग से क्षुद्र, पाँच से पद्म, एक से धृक्‍, तीन से अब्ज, एक से कुमुद, एक से पद्म, एक से आलिङ्ग, एक से आलिङ्गात, दो से प्रति एवं एक से वाजन निर्मित होता है । इस अधिष्ठान को विना किसी दोष के प्रधान देवों के मन्दिर में निर्मित करना चाहिये ॥३४॥
वप्रबन्ध अधिष्ठान - वप्रबन्ध अधिष्ठान की ऊँचाई को बाईस भागों में बाँटा जाता है । इसमें दो भाग से उपान, एक से कञ्ज, एक से कम्प, पाँच से वप्र, चार से कुम्भ, एक से पद्म, एक से पट्ट, दो से कण्ठ, एक से कम्प, एक से पद्म, दो से पट्टी तथा एक से पट्ट निर्मित होता है । इसे वप्रबन्ध अधिष्ठान कहते है ॥३५॥
कपोतबन्ध
कपोतबन्ध अधिष्ठान - वाजन पर जब कुमुद वृत्ताकार हो एवं कपोत निर्मित तो उसे कपोतबन्ध अधिष्ठान कहते है ।
प्रतिबन्धम्‍
प्रतिबन्ध अधिष्ठान - जब प्रति एवं वाजन चार भाग में निर्मित हो एवं प्रति त्रिकारस्त्रयुक्त (तीन कोणों वाला) हो तो उसे प्रतिबन्ध अधिष्ठान कहते है ॥३६॥
कलशाधिष्ठान
कलश अधिष्ठान - इस अधिष्ठान को ऊँचाई में चौबीस भागों में बाँटा जाता है । इसमें एक भाग से खुर, दो से कमल, एक से कम्प, तीन से कण्ठ, एक से कम्प, दो से पद्म, एक से पट्ट, दो से अब्ज, एक से निम्न, दो से प्रति एवं एक से वाजन निर्मित होता है । इसे कलश अधिष्ठान कहते है ॥३७॥
अधिष्ठानसामान्यलक्षण
अधिष्ठान के सामान्य लक्षण - इस प्रकार चौदह प्रकार के अधिष्ठानो का लक्षणसहित वर्णन विद्वानों द्वारा किया गया है । सभी को छोटे पादों एव सजावटी खिड़कियों से युक्त करना चाहिये । इनके सभी अङ्गों को, जिनका वर्णन ऋषि मय ने किया है, दृढ़ता पूर्वक स्थापित करना चाहिये ॥३८॥
अधिष्ठान को अधिक दृढ़ बनाने के लिये बुद्धिमान (स्थपति) को एक भाग या आधा, त्रिपद(पौन भाग) या चतुर्थांश, डेढ़ भाग अथवा एक भाग का चतुर्थांश जोड़ना या घटाना चाहिये । इस माप का निर्णय भवन के अनुसार उसके उत्तम (बड़ा), मध्यम अथवा छोटे आकार के अनुसार करना चाहिये । यह भवन की शोभा के लिये होता है । यह मत संयमी, निर्मल बुद्धी, तन्त्र एवं पुराण के ज्ञाता विद्वानों का है ॥३९॥
अधिष्ठानपर्यायनामान
अधिष्ठान के पर्यायवाची शब्द - मसूरक, अधिष्ठान वास्त्वाधार, धरातल, तल, कुट्टिम अथा आद्यङ्ग अधिष्ठान के पर्यायवाची है ॥४०॥
निर्गम का प्रमाण - जितना जगती का निष्क्रान्त निर्मित हो, उतना ही कुमुद का निर्गम निर्मित करना चाहिये । सभी अम्बुजों की ऊँचाई निर्गम के बराबर रखनी चाहिये ॥४१॥
दल (पत्तियों की पंक्ति) के अग्र भाग पंक्ति की ऊँचाई का चतुर्थांश या चतुर्थांश का आधा होना चाहिये । सभी वेत्रों का निर्गम चौथाई होना चाहिये ॥४२॥
महावाजन का निर्गम उसके बराबर आथवा तीन चौथाई होना चाहिये । शोभा एवं बल के अनुसार अधिष्ठान के सभी भागों का प्रवेश एवं निर्गम रखना चाहिये ॥४३॥
अधिष्ठानप्रतिच्छेदविधि
अधिष्ठान में खण्ड करने की विधि - बुद्धिमान (स्थपति) को अधिष्ठान में कहीं भी प्रतिच्छेद (खण्ड) नहीं करना चाहिये । द्वार के लिये किया गया प्रतिच्छेद सम्पत्तिकारक नही होता है । पादबन्ध एवं अधिष्ठान में आवश्यकतानुसार प्रतिच्छेद करना चाहिये ॥४४-४५॥
जन्म आदि पाँच वर्गोंमे उनकी ऊँचाई के अन्त में, सपट्टिकाङ्ग में, अधिष्ठान में एवं अन्य अङ्गो में प्रतिच्छेद हो सकता है । जहाँ-जहाँ उचित हो, बुद्धिमान (स्थपति) को वहाँ प्रयोग करना चाहिये ॥४६॥
अधिष्ठान की ऊँचाई स्तम्भ के ऊँचाई की आधी, छः, सात या आठ भाग कम होनी चाहिये । अधिष्ठान की ऊँचाई सभी भवनों में उनके अनुसार रखनी चाहिये । इस मत का प्रतिपादन शम्भु ने अच्छी प्रकार से किया है ॥४७॥
 

मयमतम्‌

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मयमतम् - अध्याय १ मयमतम् - अध्याय २ मयमतम् - अध्याय ३ मयमतम् - अध्याय ४ मयमतम् - अध्याय ५ मयमतम् - अध्याय ६ मयमतम् - अध्याय ७ मयमतम् - अध्याय ८ मयमतम् - अध्याय ९ मयमतम् - अध्याय १० मयमतम् - अध्याय ११ मयमतम् - अध्याय १२ मयमतम् - अध्याय १३ मयमतम् - अध्याय १४ मयमतम् - अध्याय १५ मयमतम् - अध्याय १६ मयमतम् - अध्याय १७ मयमतम् - अध्याय १८ मयमतम् - अध्याय १९ मयमतम् - अध्याय २० मयमतम् - अध्याय २१ मयमतम् - अध्याय २२ मयमतम् - अध्याय २३ मयमतम् - अध्याय २४ मयमतम्‌ - अध्याय २५ मयमतम्‌ - अध्याय २६ मयमतम्‌ - अध्याय २७ मयमतम्‌ - अध्याय २८ मयमतम्‌ - अध्याय २९ मयमतम्‌ - अध्याय ३० मयमतम् - अध्याय ३१ मयमतम् - अध्याय ३२ मयमतम् - अध्याय ३३ मयमतम् - अध्याय ३४ मयमतम् - अध्याय ३५ मयमतम् - अध्याय ३६ मयमतम्‌ - परिशिष्ट