मयमतम् - अध्याय १६
प्रस्तर-निर्माण -
मैं (मय ऋषि) सभी प्रकार के भवनों के अनुरूप उत्तर से प्रारम्भ कर वृति (प्रति) पर्यन्त प्रसात (प्रस्तर) के अंगों का सम्यक् रूप से क्रमशः वर्णन कर रहा हूँ ॥१॥
उत्तरवाजनौ
उत्तर एवं वाजन - उत्तर (स्तम्भ के ऊपर की भित्ति) तीन प्रकार का होता है । प्रथम की चौड़ाई स्तम्भ के बराबर होनी चाहिये एवं उसकी ऊँचाई चौड़ाई के बराबर होनी चाहिये । दुसरे उत्तर की ऊँचाई चौड़ाई से तीन चौथाई अधिक होनी चाहिये एवं तीसरे उत्तर की ऊँचाई चौड़ाई की आधी होनी चाहिये ॥२॥
इन तीनों उत्तरों की संज्ञा खण्डोत्तर, पत्रबन्ध एवं रूपोत्तर है । इनका कर्णनिर्गम (कोणों पर निकली निर्मिति) तीन चौथाई, तीन भाग कम अथवा आधा होना चाहिये । ॥३॥
उत्तर से वृति (अथवा प्रति) के मध्य होने वाले निवेश स्वस्तिक, वर्धमान, नन्द्यावर्त अथवा सर्वतोभद्र आकृति के होते है ॥४॥
वाजन के तीसरे अथवा चौथे भाग से चार कोणों वाले एवं ऊपरी भाग में पर्ण से युक्त निर्गम का प्रारम्भ होना चाहिये । निर्गम के ऊपर मुष्टिबन्ध निर्मित होना चाहिये । ॥५॥
वाजन के ऊपर मुष्टिबन्ध तुलाच्छेद के द्वारा अथवा स्वतन्त्र रूप से निर्मित होना चाहिये । स्तम्भ की चौड़ाई का आधा चौड़ा एवं अपनी चौड़ाई का आधा मोटा अम्बुजपट्ट निर्मित होना चाहिये । वाजन के नीचे वाली से युक्त दण्डनिर्गम का निर्माण होना चाहिये ॥६॥
उसके ऊपर मूल एवं ऊर्ध्व भाग में शिखा से (चूल) युक्त प्रमालिका निर्मित होती है । यह स्तम्भ के व्यास के बराबर ऊँची एवं उसके तीसरे या चौथे भाग के बराबर मोटी होती है । साथ ही हाथी के सूँड के समान आकृति वाली कुम्भ एवं मण्डि से युक्त होती है ॥७-८॥
उसके ऊपर दण्डिका होती है । यह स्तम्भ की आधी चौड़ी, चौड़ाई की आधी मोटी एवं एक दण्ड माप की होती है । इसका निष्क्रम नीव्र का आधा होता है । इसकी आकृति मुष्टिबन्ध के समान चौकोर होती है ॥९॥
वलयं गोपानञ्च
इसके ऊपर ऊँचाई पर इच्छानुसार चौड़ा एवं ऊँचा वलय होना चाहिये । उसके ऊपर गोपान तथा उसके ऊपर क्षेपणाम्बुज पट्टिका होती है, जो मुष्टिबन्ध के समान विस्तृत एवं ऊँची होती है ॥१०-११॥
यह पट्टिका दण्डिका के ऊपर छील-काट कर लगाई जाती है । उसके ऊपर उसके प्रमाण के अनुसार काट कर बुद्धिमान (स्थपति) को गोपान निर्मित करना चाहिये ॥१२॥
उत्तर के अन्तिम भाग में इच्छानुसार युक्तिपूर्वक अवलम्ब निर्मित करना चाहिये । वाजन अथवा तुला के ऊपर बुद्धिमान (स्थपति) को गोपान लगाना चाहिये ॥१३॥
जितना (भित्ति से) तुला का अन्तर होता है, उतना ही अन्तर गोपान का भी होना चाहिये । गोपान यदि दण्डिका के ऊपरी भाग में निर्मित हो तो वाजन के अन्तिम भाग में अवलम्बन होना चाहिये ॥१४॥
गोपान के ऊपर दण्ड का आधा चौड़ा एवं चौड़ाई का आधा मोटा कम्प निर्मित होना चाहिये । इसे वलयछिद्र अन्तर के बराबर अन्तर पर रखते हुये उसके समानान्तर निर्मित करना चाहिये ॥१५॥
कायपाद
दण्डिका एवं वाजन के बीच में पूर्वोक्त वर्णित भाग के अनुसार कायपाद (स्तम्भ को सहारा देने वाली कड़ी) लगाना चाहिये । यह स्तम्भ के विस्तार के बराबर होता है एवं उसका निष्क्रान्त उसके विस्तार के आधे का आधा होता है एवं अग्रपट्टी से युक्त होता है ॥१६॥
स्तम्भों के मध्य भाग को सार वृक्ष के काष्ट के फलकों (पटरों) से छा देना चाहिये । इसे दण्ड़ के आठवें भाग की मोटाई वाले फलकों से छाना चाहिये । इसके ऊपर गोपान के ऊपर धातुनिर्मित लोष्टकों (टाइल्स) से आच्छादन करना चाहिये । इसके साथ दो या तीन दण्ड माप की ऊँचाई पर निकली हुई कपोतपालिका निर्मित होनी चाहिये ॥१७-१८॥
छोटे भवन में एक हाथ की एवं बड़े भवन में दो हाथ की सुन्दरता के ल्ये चित्रयुक्त कर्णपालिका कपोत पर निर्मित करनी चाहिये । अथवा इसे भवन के मध्य भाग में प्रस्तर-निर्मित कर्णपालिका लगानी चाहिये ॥१९॥
वाजन के ऊपर भूत (प्राणी, पशु आदि) एवं हंस आदि की पंक्ति एक दण्ड या पौन दण्ड ऊँची होनी चाहिये । वाजन पूर्व के सदृश होना चाहिये । वहाँ आधे दण्ड या एक दण्ड माप का कपोतालम्बन होना चाहिये ॥२०-२१॥
कपोत की ऊँचाई से निकला निर्गम डेढ़ दण्ड से लेकर तीन द्ण्डपर्यन्त होता है । वाजन के ऊपर वसन्तक अथवा निद्रा निर्मित करनी चाहिये । यह उसके ऊपर पौन दण्ड ऊँची होनी चाहिये एवं कपोत की ऊँचाई पूर्ववर्णित रखनी चाहिये ॥२२॥
इस प्रकार पूर्वोक्त वर्णित भागों को प्रस्तर अथवा ईंटो से दृढ़ बनाना चाहिये । जिस वस्तु के प्रयोग से स्थिरता प्राप्त हो, उसी का प्रयोग बुद्धिमान (स्थपति) को करना चाहिये । कपोत की ऊँचाई के तीन भाग अथवा चतुर्थांश के बराबर क्षुद्रनिष्कृति (बाहर निकला भाग) बनाना चाहिये ॥२३-२४॥
कपोत के नीव्र के ऊपर नासिका (खिड़की के सदृश आकृति) होती है, जो कर्णिका (लता) की भाँति होती है । यह सवा दण्ड, डेढ़ दण्ड या दो दण्ड विस्तृत होती है ॥२५॥
इसके शीर्ष भाग की आकृति सिंह के कान के सदृश होती है । पट्टिक के अन्तिम भाग में स्वस्तिक की आकृति वाली पट्टिका होती है । नासिका के ऊपर नासिका निर्मित होनी चाहिये । इसके मूल भाग एवं ऊर्ध्व भाग का प्रमाण शोभा के अनुसार होना चाहिये । प्रतिवाजनक के ऊपर नासिका की ऊँचाई नहीं होनी चाहिये ॥२६-२७॥
प्रस्तर का ऊपरी भाग - प्रस्तर के ऊर्ध्व भाग की योजना इस प्रकार है - आलिङ्ग का माप पाद के चतुर्थांश माप का होता है एवं पादविनिर्गत (बाहर निकला भाग) भी चतुर्थांश माप का होना चाहिये । उन दोनों के मध्य में ऊर्ध्व भाग पर निष्क्रान्त स्थापित करना चाहिये ॥२८॥
दो स्तम्भों के मध्य, स्तम्भों के ऊपर स्तम्भ की ऊँचाई का त्रिपट्टाग्र (तीन पट्टियों की आकृति) निर्मित होनी चाहिये । उसके ऊपर प्रति का निर्माण करना चाहिये, जिसका माप एक दण्ड, तीन चौथाई अथवा आधा दण्ड होना चाहिये ॥२९॥
प्रतिवक्त्र संज्ञक भाग का माप प्रति के माप का तीन चौथाई, आधा, एक दण्ड, सवा दण्ड अथवा डेढ़ दण्ड रखना चाहिये ॥३०॥
उसके ऊपर उसकी गति का निर्माण पूर्ववर्णित विधि से करना चाहिये । प्रति की रचना व्याल के सहित, सिंह के सहित, गज के सहित अथवा सीधी करनी चाहिये । ॥३१॥
इसके ऊपर इसकी ऊँचाई के तीसरे अथवा चौथे भाग से वाजन एवं निर्गम का प्रारम्भ करना चाहिये । ये समकर, चित्रखण्ड एवं नागवक्त्र - तीन प्रकार के होते है । ॥३२॥
नागवक्त्र आकृति में नाग के फण एवं स्वस्ति की आकृति में (नाग का) सिर निर्मित होता है । देवों एवं ब्राह्मणों के भवन में समकर प्रति का निर्माण करना चाहिये । ॥३३॥
(समकर प्रति) आकृति में चौकोर एवं शीर्षभाग में मकर निर्मित होता है । चित्रखण्ड प्रति राजाओं, व्यापारिओं (वैश्यों) एवं शूद्रों के (भवन के) अनुकूल होता है । इसकी आकृति अर्धचन्द्र के सदृश होती है । इसका शीर्षभाग गज की आकृति से युक्त होता है । इस प्रति का अग्र भाग चित्र की भाँति होता है; इसलिये इसे ककर, कर्कट, बन्ध अथवा अन्य संज्ञा से भी सम्बोधित करते है ॥३४-३५॥
वाजन के ऊपर (अथवा) वलीक के ऊपर भली-भाँति तुला (बीम) को स्थापित करना चाहिये । इसकी ऊँचाई एक दण्ड अथवा तीन चौथाई दण्ड होनी चाहिये तथा इसकी मोटाई ऊँचाई की आधी होनी चाहिये ॥३६॥
वलीक की लम्बाई तीन, चार या पाँच दण्ड होनी चाहिये । इसके अग्र भाग में नालियाँ, व्याल या बिन्दु होना चाहिये एवं इसका पार्श्व भाग तरङ्ग की भाँति होना चाहिये ॥३७॥
(उपर्युक्त वर्णन के अनुसार) वलीक होना चाहिये । वलीक के ऊपर वर्णपट्टिका का निर्माण करना चाहिये । इसका विस्तार आधा दण्ड एवं ऊँचाई विस्तार का आधा होना चाहिये । उसके मध्य भाग को फलकों द्वारा छेदरहित करना चाहिये । इसके ऊपर एक दण्ड ऊँची स्थिर तुला स्थापित करनी चाहिये । तुला का विस्तार तीन चौथाई दण्ड होना चाहिये । इसे द्वार की ओर उन्मुख होना चाहिये ॥३८-३९॥
तुला के ऊपर तुला की चौड़ाई के बराबर ऊँचाई वाली जयन्ती रक्खी जानी चाहिये । जयन्ती के ऊपर आधा दण्ड ऊँचा अनुमार्गक रखना चाहिये ॥४०॥
उसके ऊपर फलको को स्थापित करना चाहिये । इसकी मोटाई दण्ड के चौथे या छठवे भाग के बराबर होनी चाहिये । प्रस्तर एवं स्तम्भ के विस्तार को ईंटों एवं चूर्ण से जोड़ना चाहिये ॥४१॥
कराल, मुद्गि, गुल्मास, कल्क एवं चिक्कण (ये सभी ईंटो को जोड़ने एवं लेप में प्रयुक्त होते है) का प्रयोग करना चाहिये । उत्तर एवं वाजन पार्श्व में लगने चाहिये । ॥४२॥
तुला (की स्थापना) द्वार के अनुसार होनी चाहिये । जयन्ती (उसके ऊपर) तिरछी रक्खी जानी चाहिये । उसके ऊपर द्वार के अनुसार अनुमार्ग रक्खा जाना चाहिये । ॥४३॥
देवालय एवं राजभवन में तुला द्वार से तिरछी होनी चाहिये । वलीक एवं तुला के मध्य का अवकाश दो या तीन दण्ड होना चाहिये ॥४४॥
जयन्तियों के मध्य का अन्तर डेढ़ या ढ़ाई दण्ड होता है । उनके ऊपर एक-एक दण्ड के अन्तर पर रक्खे अनुमार्ग उनके मध्य के छिद्र को भर देते है ॥४५॥
इस प्रकार प्रस्त्र-क्रिय चित्र-विचित्र अङ्गो से निर्मित होती है । क्षुद्रं एवं तुला को इस प्रकार रखना चाहिये, जिससे कि वे दृढ़तापूर्वक स्थापित हो जायँ ॥४६॥
रूप (आकृति) के साथ अथवा विना रूप के (प्रस्तर-प्रकल्पन में) सभी अङ्गों का प्रयोग करना चाहिये । तुला के ऊपर फलकों द्वारा आच्छादन करना चाहिये । अथवा ईंटों से आच्छादन करना चाहिये । शेष कार्य पूर्ववर्णित विधि से करना चाहिये ॥४७॥
प्रस्तर की ऊँचाई मसूर की ऊँचाई के बराबर होनी चाहिये एवं स्तम्भ की ऊँचाई से दश या आठ भाग कम होनी चाहिये । प्रस्तर की ऊँचाई एवं माप इस प्रकार रखना चाहिये, जिससे कि भवन को दृढ़ता एवं सौन्दर्य प्रदान किया जा सके, ऐसा विद्वानों का मत है ॥४८॥
लेप
लेप-सामग्री - लेप के लिये यह मिश्रण तैयार किया जाता है - शहद, घृत, दही, दूध, उड़द का पानी, चमड़ा, केला, गुड़, त्रिफला एवं नारियल । इन्हें क्रमशः एक-एक भाग बढ़ाते हुये लेना चाहिये । इनमें एक सौ भाग चूना मिलाना चाहिये तथा इस मिश्रण में दुगुनी मात्रा में बालू मिलाना चाहिये ॥४९॥
युग्मायुग्ममान
सम एवं विषम मान - मनुष्यों के गृह में हस्त, स्तम्भ तथा तुला आदि का प्रयोग विषम संख्याओं में करना चाहिये; किन्तु देवालय में हस्त आदि का प्रयोग सम अथवा विषम संख्याओं में होता है ।
द्वार
देवता, ब्राह्मण एवं राजाओं के गृह में मध्य में द्वारस्थापन निन्दनीय नही है; किन्तु अन्य वर्ण वालों के लिये द्वार मध्य के पार्श्व में शुभ होता है ॥५०॥
वेदि
प्रति के ऊपर वेदि का निर्माण होना चाहिये, जिसकी ऊँचाई प्रति की डेढ़, पौने दो या दुगुनी होनी चाहिये ॥५१॥
कम्प की संख्या दो, चार या छः होनी चाहिये । इनकी मोटाई चौथाई दण्ड होनी चाहिये । इनकी वेदिका पद्मपुष्प, शैवाल एवं पत्र आदि चित्रों से सज्जित होनी चाहिये ॥५२॥
कम्प के नीचे स्तम्भों को उचित रीति से जोड़ना चाइये । इन स्तम्भों का मूल एवं अग्र भाग कम्प के अनुसार होना चाहिये तथा इसे पद्मपट्टी एवं अग्रबन्धन से युक्त होना चाहिये ॥५३॥
जालकानि
झरोखा, जाल - विद्वानों के अनुसार वेदियों के ऊपर जालकों (खिड़की, रोशनदान) का प्रयोग करना चाहिये । इन्हे भित्ति के साथ स्तम्भ के मध्य भाग में नही होना चाहिये । इनकी चौड़ाई चार दण्ड होनी चाहिये ॥५४॥
इनकी चौड़ाई दो दण्ड से प्रारम्भ कर (चार दण्डपर्यन्त) तथा ऊँचाई चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये । अथवा ऊँचाई डेढ़ या पौने दो भाग (चौड़ाई की) होनी चाहिये । यह स्तम्भ के मध्य रन्ध्र को छोड़ कर होनी चाहिये ॥५५॥
सम एवं विषम संख्याओं वाले पादों एवं कम्पों से युक्त सजावटी खिड़कियों का यथोचित ऊँचाई एवं विस्तार के साथ प्रयोग करना चाहिये । इनकी संज्ञा गवाक्श, कुञ्जराक्ष, नन्द्यावर्त, ऋजुक्रिय, पुष्पखण्ड एवं सकर्ण है । गवाक्ष संज्ञक जालक (खि़ड़की, झरोखा) लम्बा, अनेक कोणों वाला एवं छिद्रयुक्त होता है ॥५६-५७॥
चौकोर एवं कर्णकछिद्र (विभिन्न प्रकार के छिद्रों वाले) से युक्त जालक कुञ्जराक्ष संज्ञक होता है । पाँच सूत्रों से प्रदक्षिणक्रम (बायें से दाहिने) से निमित छिद्रयुक्त जालक नन्द्यावर्त आकृति का होने के कारण नन्द्यावर्त संज्ञक होता है । तिरछे एवं सीधे स्तम्भों से निर्मित एवं कम्पयुक्त जालक की संज्ञा ऋजुक्रिय होती है ॥५८-५९॥
पुष्पखण्ड एवं सकर्ण जालक नन्द्यावर्त के समान होते है । भित्ति के मध्य से हट कर जालकों के स्तम्भों का योग होता है एवं जालक कवाट (पल्लों) से युक्त होते है ॥६०॥
ये कवाट एक अथवा दो होते है एवं खुलने तथा बन्द होने में समर्थ होते है । जालकों की स्थिति स्तम्भ के बराबर अथवा भवन की ग्रीवा के बराबर होती है ॥६१॥
गोल आकृति वाले जालक सूर्य की आकृति वाले एवं छिद्रयुक्त होते है । ये स्वस्तिक, वर्धमान तथा सर्वतोभद्र प्रकार के होते है ॥६२॥
भित्ति
दीवार - बुद्धिमान, (स्थपति) को गृहस्वामी की इच्छानुसार अथवा आवश्यकतानुसार) काष्ठ, प्रस्तर अथवा ईंटो से भित्ति-निर्माण करना चाहिये । इस प्रकार जालक (काष्ठ-निर्मित), फलक (प्रस्तरफलकों से निर्मित) तथा ऐष्टक (ईंटो से निर्मित) तीन प्रकार की भित्तियाँ होती है ॥६३॥
जालक भित्ति जालकों (काष्ठनिर्मित) से युक्त, ऐष्टक भित्ति ईंटों से युक्त तथा फालक भित्ति फलकों (प्रस्तरखण्डों) से युक्त होती है । भित्ति के मध्य में पाद होते हैं ॥६४॥
दीवार बनाते समय ऊपर एवं नीचे कमलपुष्पों के समूह से युक्त पट्टिका का निर्माण करना चाहिये । फलकों की मोटाई स्तम्भ के चौथे, छठे या आठवें भाग के बराबर होनी चाहिये ॥६५॥
अथवा सभी स्थान पर शिबिका (पालकी) की भित्ति के समान फलका निर्मित होनी चाहिये । (यहाँ सम्भवतः काष्ठखण्डों से निर्मित भित्ति का तात्पर्य है) इस प्रकार जहाँ-जहाँ उचित हो, फलका कुड्य वहाँ-वहाँ (फलकनिर्मित भित्ति) का प्रयोग करना चाहिये, ऐसा वास्तुशास्त्र के विशेषज्ञो का मत है ॥६६॥
इस प्रकार प्रस्तर-करण, वेदिकाङ्ग, जालक एवं तीन प्रकार की भित्तियों का वर्णन एवं उनकी रीति का वर्णन विद्वानों के मतानुसार किया गया । जालक के निर्माण के लिये वेदिका को कभी नहीं तोड़ना चाहिये तथा प्रति के अङ्गो को भी नही तोड़ना चाहिये ॥६७॥