प्रसव के लिए स्त्री को प्रेरित करना
प्रसव की विधि-
बच्चे का जन्म किस दिन होगा यह कहना मुश्किल होता है। लेकिन फिर भी बच्चे के जन्म होने के अनुमानित समय का अन्दाजा लगाया जा सकता है। कुछ प्रसव ही एक निश्चित समय पर होते हैं बाकी तो निर्धारित समय से 7 दिन पहले या 7 दिन बाद में होते हैं। एक अनुमान के अनुसार केवल 6 से 7 प्रतिशत प्रसव ही निर्धारित समय पर होते हैं।
बच्चे का जन्म होने का निर्धारित समय निकालना-
ज्यादातर स्त्रियों में गर्भावस्था 280 दिनों की होती है। यह समय 40 सप्ताह या फिर 9 महीने और 1 सप्ताह का होता है। इस समय को निर्धारित करने के लिए अन्तिम माहवारी के पहले दिन से यह समय निकाला जा सकता है। जैसे मान लेते हैं कि अन्तिम माहवारी 15 जून को थी तो पहले 15 जून में सात दिन जोड़ते हैं अर्थात 22 जून, इसके बाद 9 महीने जोड़ते हैं यानी 22 मार्च को प्रसव का निर्धारित समय होगा। इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे का जन्म 38 सप्ताह या 42 सप्ताह में हो तो भी बच्चे को किसी प्रकार की हानि होने की संभावना नहीं होती है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि बच्चे में परिपक्वता भी इसी समय में आ जाती है, जिसमें बच्चे का जन्म होना भी जरूरी हो जाता है।
बच्चे के जन्म के निर्धारित समय में लगभग एक सप्ताह या फिर दो सप्ताह का अन्तर भी हो सकता है। इसका मुख्य कारण माहवारी के समय पर निर्भर करता है। कुछ स्त्रियों को माहवारी 25 दिन में, कुछ को 28 दिन, 35 दिन या कुछ स्त्रियों में माहवारी 40 दिनों में होती है। इसी समय के अनुसार स्त्रियों के शरीर में अण्डे बनते हैं तथा माहवारी के समय के आधार पर बच्चे का जन्म जल्दी या देर में होता है।
स्त्रियों में माहवारी शरीर के दर्पण के समान होती है। इसका ठीक समय पर आना ही उसके अच्छे स्वास्थ्य को प्रदर्शित करता है।
यदि किसी स्त्री का पहला प्रसव हो तो उसके बच्चे का जन्म निर्धारित समय पर हो सकता है परन्तु दूसरी या तीसरी बार प्रसव होने पर यह भी सम्भव है कि बच्चे का जन्म जल्दी हो जाए। जो स्त्रियां अधिक मेहनत का कार्य करती हैं उनके भी बच्चे का जन्म निर्धारित तिथि से जल्दी होता है। इसलिए गर्भावस्था के अन्तिम समय में स्त्रियों के लिए अधिक मेहनत का काम करना हानिकारक हो सकता है। ऐसी स्त्रियां जिनको शारीरिक या मानसिक कमजोरी होती है उनके बच्चे का जन्म भी जल्दी होता है।
जो स्त्रियां परिवार नियोजन के साधनों का प्रयोग करती है उनकी कमी या गलती से गर्भधारण हुआ हो ऐसी दशा में प्रसव का समय निकलना भी काफी कठिन हो जाता है। परन्तु वर्तमान समय में अल्ट्रासाउन्ड के द्वारा बच्चे के सिर का आकार, प्रकार, लम्बाई, चौड़ाई, शरीर की हडि्डयां और बच्चे की आयु आदि के बारे में जानकारी प्राप्त कर ली जाती है।
बच्चा पूरे 9 महीने तक मां के शरीर में रहता है और मां को कोई भी कष्ट नहीं होता है। लेकिन बच्चे के जन्म समय किस कारण से मां को दर्द शुरू होता है, इस बारे में सभी के अलग-अलग विचार हैं। कुछ लोगों के अनुसार बच्चे का जन्म होने के समय महिलाओं के शरीर में एक प्रकार का हार्मोन्स बनता है जिसके कारण दर्द शुरू हो जाता है। परन्तु आज भी इस बात को 100 प्रतिशत सही नहीं कहा जा सकता।
प्रसव का ठीक समय-
दवाओं के द्वारा या सामान्य विधियों के द्वारा बच्चेदानी में दर्द की संवेदना पैदा करना ही प्रेरित प्रसव कहलाता है।
इस तरीके से ठीक और सही समय, हालात, बच्चे की स्थिति, परिपक्वता, सिर का नीचा होना, बच्चेदानी के मुंह का मुलायम होना तथा उसकी लम्बाई का कम होना आदि को देखकर संवेदना द्वारा स्त्री को प्रसव के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
कभी-कभी हालात बच्चे और मां दोनों के लिए ठीक न होने के कारण ऑपरेशन भी करना पड़ सकता है क्योंकि हर प्रसव में स्थिति अलग-अलग हो सकती है।
प्रसव संवेदना की विभिन्न विधियां-
गर्भावस्था का समय पूरा होने के बाद स्त्री को रात के समय लगभग 20 से 30 मिलीलीटर की मात्रा में कैस्टर ऑयल देने से मांसपेशियों का संकुचन शुरू हो जाता है। इस पुराने तरीके से प्रसव की शुरूआत की जा सकती है। गर्म पानी से नहाना या फिर साबुन का पानी या ग्लिसरीन को गुदा में देकर अर्थात एनिमा क्रिया द्वारा प्रसव शुरू किया जाता है।
योनि की दीवारों को फैलाना-
गर्भाशय के भीतरी तथा बाहरी छिद्र के फैलते ही झिल्ली बच्चेदानी से अलग हो जाती है। इस कारण कभी-कभी प्रसव से पहले हल्का सा रक्तस्राव होना स्वाभाविक बात है। इसी क्रिया के साथ चिपचिपा पदार्थ जो ढक्कन का कार्य करता है, उस स्थान से अलग हो जाता है जिसको शो कहते हैं। इस क्रिया द्वारा द्रव की एक थैली बन जाती है तथा इस छिद्र से बाहर दिखाई देने लगती है।
प्रसव को प्रेरित करने के लिए योनि की दीवारों पर अंगुली को किसी कीटाणुनाशक दवा के द्वारा धीरे-धीरे रगड़कर फैलाना चाहिए। साथ ही एमनीओटिक सैक और बच्चेदानी के बीच अंगुली को घुमाते हुए उसको अलग करना चाहिए। इस तरीके द्वारा भी स्त्रियों को प्रसव के लिए प्रेरित किया जाता है।
एमनीओटिक थैली का फटना-
एमनीओटिक थैली को प्रसव प्रेरित करने के लिए फाड़ा भी जा सकता है। जिससे स्त्री को प्रसव का दर्द शुरू हो जाता है। यदि इस झिल्ली को न फाड़ा जाए तो यह झिल्ली स्वयं प्रसव के समय फट जाती है।
एमनीओटिक थैली के फटने से लाभ-
एमनीओटिक थैली के फटने से स्त्री को प्रसव का दर्द शुरू हो जाता है।
एमनीओटिक थैली के फटने से प्रसव के समय में कुछ कमी की जा सकती है।
यदि बच्चे की दिल की धड़कन तेज होने लगे तो इस एमनीओटिक थैली के फटने से लाभ होता है।
यदि बच्चे ने गर्भ में मलत्याग कर दिया है, तो एमनीओटिक थैली के फटने के बाद निकला द्रव पीले, हरे या भूरे रंग का हो तो इस अवस्था में शीघ्र प्रसव काना लाभदायक होता है।
एमनीओटिक थैली के फटने से होने वाली हानि-
एमनीओटिक झिल्ली के फटने से ओवल भी बच्चेदानी की दीवार को छोड़ सकता है। इस दशा में बच्चे को ऑक्सीजन युक्त रक्त बहुत कम मात्रा में मिल पाता है।
एमनीओटिक झिल्ली के फट जाने पर बच्चे की नाल बाहर निकल सकती है और मां के कूल्हे की हडि्डयों और बच्चे के सिर के बीच में दब सकती है। इसके कारण गर्भ मे बच्चे के शरीर को ऑक्सीजन युक्त रक्त मिलना बन्द हो जाता है और बच्चे को बहुत हानि होती है।
झिल्ली के फटने से बच्चे पर एक समान दबाव नहीं रहता है।
झिल्ली के फटने से कीटाणु अन्दर पहुंच जाते हैं। इससे गर्भ में पल रहे बच्चे को विभिन्न प्रकार के रोग हो सकते हैं।
एमनीओटिक द्रव-
शिशु जब तक मां के गर्भ में बढ़ता है तब तक वह एक तरह के द्रव में रहता है। इस द्रव को एमनीओटिक द्रव के नाम से जाना जाता है। गर्भाशय में यह द्रव एक प्रकार की थैली में भरा हुआ होता है। इस थैली को एमनीओटिक थैली कहते हैं। जैसे-जैसे गर्भ का समय बढ़ता जाता है इस द्रव में भी परिवर्तन होने लगता है। यह द्रव इतनी मात्रा में होता है कि लगभग 16 सप्ताह से 30 सप्ताह तक के गर्भाशय में बच्चा अच्छी तरह से घूम सकता है। लगभग 34 सप्ताह के बाद बच्चा गर्भ में एक स्थिर अवस्था में हो जाता है। इस दौरान एमनीओटिक द्रव धीरे-धीरे कम होने लगता है। लेकिन द्रव इतनी मात्रा में अवश्य होता है कि बच्चा उसमें ठीक प्रकार से घूम सके।
एमनीओटिक द्रव स्त्रियों के शरीर में 1 लीटर के लगभग होता है। गर्भधारण के 36 सप्ताह के बाद यह द्रव कम होने लगता है। जैसे-जैसे प्रसव का समय नजदीक आता जाता है वैसे-वैसे द्रव की मात्रा काफी कम हो जाती है। जब गर्भ लगभग 40 सप्ताह का हो जाता है तो एमनीओटिक द्रव की मात्रा 800 सी.सी के लगभग रह जाती है तथा 42 सप्ताह का गर्भ होने के बाद इस द्रव की मात्रा केवल 200 सी.सी. ही बचती है।
गर्भावस्था की शुरुआत में एमनीओटिक द्रव पानी के समान पारदर्शक होता है। इसके बाद जैसे-जैसे गर्भावस्था का समय बीतता जाता है इस द्रव का रंग हरा और पीला होता जाता है परन्तु फिर भी यह द्रव गर्भावस्था के अन्तिम समय में पारदर्शी हो जाता है। जब गर्भ 8 सप्ताह का हो जाता है तो एमनीओटिक द्रव बनना शुरू हो जाता है।
10 सप्ताह में गर्भ में एमनीओटिक द्रव 30 मिलीलीटर होता है। 20 सप्ताह की समाप्ति के बाद इस द्रव की मात्रा 300 मिलीलीटर के लगभग होती है। 30 सप्ताह के बाद इसकी मात्रा 600 मिलीलीटर होती है। 38 सप्ताह में यह द्रव 1000 मिलीलीटर होता है। 40 सप्ताह के बाद इस द्रव की मात्रा 800 मिलीलीटर रह जाती है तथा 43 सप्ताह के बाद इस द्रव की मात्रा केवल 200 मिलीलीटर बचती है।
एमनीओटिक द्रव के कार्य-
एमनीओटिक द्रव में बच्चा बढ़ता तथा घूमता रहता है।
एमनीओटिक द्रव के बच्चेदानी और बच्चे के बीच में रहने से बच्चेदानी पर किसी तरह का दबाव नहीं पड़ता है।
एमनीओटिक द्रव के कारण गर्भ में पल रहे बच्चे पर तापमान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
गर्भ में पल रहा बच्चा इसी द्रव को लेता है तथा इसी द्रव में मूत्र भी करता है।
यह द्रव बाहर के किसी भी प्रकार की चोट को सामान्य प्रभाव से बच्चेदानी में फैला देता है।
एमनीओटिक द्रव ओवल को बच्चेदानी में सामान्य रूप से लगा रहने में मदद करता है।
एमनीओटिक द्रव का निर्माण किस प्रकार और कहां होता है यह कहना आज भी मुश्किल है। लेकिन ऐसा माना जाता है कि एमनीओटिक थैली की दीवार से यह द्रव बनकर इकट्ठा होता रहता है। गर्भाशय की 12 से 24 सप्ताह के समय के दौरान यह द्रव अधिक मात्रा में बनता है। बाद में इसकी मात्रा कम हो जाती है। यदि स्त्री को गुर्दे का रोग या अन्य कोई रोग है तो फिर इस मात्रा में अन्तर भी आ सकता है। शारीरिक रूप से कमजोर स्त्रियों में भी इस द्रव की मात्रा काफी कम हो सकती है। गर्भ में बच्चे की बनावट में कमी होने पर एमनीओटिक द्रव की मात्रा बहुत अधिक या बहुत कम भी हो सकती है।
स्त्रियों में गर्भावस्था के दौरान इस द्रव का शरीर से बाहर निकलना अधिक हानिकारक होता है। यदि यह अधिक मात्रा में निकल जाता है तो बच्चेदानी में प्रसव संवेदना तुरन्त होने के कारण समय से पहले बच्चे का जन्म हो सकता है। इस कारण यह द्रव निकलने लगे तो स्त्री को शीघ्र ही आराम करना चाहिए तथा डॉक्टर को शीघ्र ही दिखाना चाहिए। स्त्री कपास या रूई लगाकर देख सकती हैं कि यह द्रव कितनी मात्रा में बाहर निकल रहा है। इसका विशेष ध्यान रखें कि यह द्रव है या मूत्र है। ऐसी अवस्था में दवाईयों के सेवन और विश्राम करने से लाभ मिलता है।
प्रोस्टागलैण्डिन जैल द्वारा प्रसव प्रेरित करना-
इस दवा को बच्चेदानी के मुंह में डालकर प्रसव को प्रेरित किया जाता है।
रक्त में दी जाने वाली नसों की दवाईयां-
नसों में ग्लूकोज के माध्यम से दवाईयों का प्रयोग किया जाता है। इसको ऑक्सीटोसिन कहते हैं। यह वहीं हार्मोन्स होता है जो कि पिट्यूटरी ग्रन्थि से निकलता है। इसका प्रमुख कार्य बच्चेदानी में सिकुड़न पैदा करना होता है। इसको ग्लूकोज के सहारे स्त्रियों के रक्त में लगाते है। इसके लगाने से स्त्री की बच्चेदानी में दर्द शुरू हो जाता है। स्त्री को यदि कोई अन्य इंजैक्शन लगाना पडे़ तो यह ग्लूकोज के सहारे ही दिया जा सकता है। यदि ऑपेरशन करने की आवश्यकता होती है तो भी ग्लूकोज की ही सहायता से बेहोश करने की दवाईयां स्त्री को दी जाती हैं।
दवा की गोली के द्वारा प्रसव के लिए प्रेरित करना-
स्त्री की जीभ के नीचे दवा को रखकर उसे प्रेरित किया जाता है। प्राचीन समय में तथा वर्तमान समय में अभी भी विभिन्न परिवारों में प्रसव दवाईयों की सहायता से ही कराया जाता है।
स्तनों की सहायता से प्रसव के लिए प्रेरित करना-
स्तनों को हाथ से मसलने, दबाने तथा अंगुलियों और अंगूठों से निप्पल को मसलने से स्तनों में संवेदना शुरू की जा सकती है। स्तनों की संवेदना से दिमाग की पिट्यूटरी ग्रन्थि से ऑक्सीटोन नामक हार्मोन्स निकलना प्रारम्भ हो जाता है जो रक्त में मिलने के कारण स्त्री को प्रसव के लिए प्रेरित करता है।
संभोग क्रिया द्वारा प्रसव के लिए प्रेरित करना-
किसी भी व्यक्ति के वीर्य में तीन प्रकार के द्रव पाये जाते हैं-
1. अण्डकोषों का द्रव।
2. प्रोस्टेट ग्रंथि का द्रव।
3. सेमिनाल वैसायकल का द्रव।
इन तीनों द्रवों में से वैसाईकल के द्रव के अन्दर एक प्रकार का हार्मोन्स होता है जिसे प्रौस्टाग्लौण्डिन कहते हैं। इस द्रव के बच्चेदानी में मुंह पर गिरने से बच्चेदानी में दर्द शुरू हो जाता है। परन्तु यह तभी हो सकता है जब गर्भावस्था का समय लगभग पूरा हो चुका होता है।
जरूरी जानकारी-
ग्लूकोज की नली लम्बी और किसी नामी कंपनी की ही उपयोग करनी चाहिए।
ग्लूकोज के लिए साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
ग्लूकोज के प्रयोग के समय इसकी नली के आगे वेनफलो लगाने से स्त्री को दर्द नहीं होता है। इसे टेप से चिपका देना चाहिए।
ग्लूकोज में यदि अलग से कोई दवा डाली जाती है तो यह जानकारी होनी चाहिए कि दवा कौन सी है और उसे कितने यूनिट डाला गया है तथा कितने बून्द एक मिनट में दी जा रही है।
ग्लूकोज का स्टैण्ड पहियों का होना चाहिए इससे स्टैण्ड को किसी भी ओर खिसकाया जा सकता है।
बच्चे के जन्म के समय स्त्री के शरीर की मूत्राशय की थैली अवश्य खाली होनी चाहिए ताकि प्रसव के समय मूत्र की थैली पर कोई प्रभाव न पड़ सके।
प्रसव के समय कमरे के पास शौचालय का होना जरूरी होता है। इससे आवश्यकता पड़ने पर स्त्री शौचालय का उपयोग कर सकती हैं।
ग्लूकोज के चढ़ते समय जिस हाथ में ग्लूकोज लगा हो उस ओर करवट लेकर नहीं सोना चाहिए।
जिस हाथ में ग्लूकोज की सुई लगी हो उस हाथ से कोई भी भारी वस्तु नहीं उठानी चाहिए।