फिर चराग़े-लाला से रौशन हुए कोहो-दमन
फिर चराग़े-लाला से रौशन हुए कोहो-दमन[1]
मुझको फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़े-चमन[2]
फूल हैं सहरा[3] में या परियाँ क़तार अन्दर क़तार[4]
ऊदे-ऊदे, नीले-नीले पीले-पीले पैरहन[5]
बर्गे-गुल[6] पर रख गई शबनम का मोती बादे-सुब्ह[7]
और चमकाती है उस मोती को सूरज की किरन
हुस्ने-बेपरवा को अपनी बेनक़ाबी के लिए
हों अगर शहरों से बन[8] प्यारे तो शहर अच्छे कि बन
अपने मन में डूबकर पा जा सुराग़े -ज़िन्दगी[9]
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन
मन की दुनिया, मन की दुनिया सूदो-मस्ती,जज़्बे-शौक़
तन की दुनिया तन की दुनिया सूदो-सौदा,मक्रो-फ़न[10]
पानी-पानी कर गई मुझको क़लन्दर की ये बात
तू झुका जब ग़ैर के आगे न मन तेरा न तन