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तराना-ए-हिन्दी (सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा)

उर्दू में लिखी गई देशभक्ति रचनाओं में शायद सबसे अधिक प्रसिद्ध यह रचना अल्लामा इक़बाल साहब ने बच्चों के लिए लिखी थी। यह सबसे पहले 16 अगस्त 1904 को इत्तेहाद नामक साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशित हुई और बाद में इक़बाल साहब के बांग-ए-दरा नामक संग्रह में तराना-ए-हिन्दी शीर्षक से शामिल की गई। यहाँ हिन्दी का आशय हिन्दोस्तान (तत्कालीन भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) के निवासियों से है। हिन्दी का अर्थ यहाँ हिन्दी भाषा नहीं है। भारत में यह रचना अति-प्रसिद्ध है। 1950 के दशक में सितार-वादक पंडित रवि शंकर ने इस रचना को संगीतबद्ध किया और स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने इसे गाया। पंडित रवि शंकर और लता मंगेशकर दोनों ही भारत-रत्न पुरस्कार से सम्मानित हैं।

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसिताँ हमारा

ग़ुर्बत[1] में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा

परबत वह सबसे ऊँचा, हम्साया[2] आसमाँ का
वह संतरी हमारा, वह पासबाँ[3] हमारा

गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियाँ
गुल्शन है जिनके दम से रश्क-ए-जनाँ[4] हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा![5] वह दिन हैं याद तुझको?
उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा

मज़्हब नहीं सिखाता[6] आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोसिताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा[7] सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-व-निशाँ हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा

इक़्बाल! कोई महरम[8] अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ[9] हमारा!

मोहम्मद इक़बाल की शायरी

मोहम्मद इक़बाल
Chapters
तराना-ए-हिन्दी (सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा) लबरेज़ है शराब-ए-हक़ीक़त जवाब-ए-शिकवा आम मशरिक़ के मुसलमानों का दिल मगरिब में जा अटका है हर मुक़ाम से आगे मुक़ाम है तेरा जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी असर करे न करे सुन तो ले मेरी फ़रियाद अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमाँ तेरा है या मेरा एक आरज़ू उक़ाबी शान से झपटे थे जो बे-बालो-पर निकले सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं परीशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए है कलेजा फ़िग़ार होने को अक़्ल ने एक दिन ये दिल से कहा नसीहत ख़ुदी में डूबने वालों लेकिन मुझे पैदा किया उस देस में तूने सफ़र कर न सका हिमाला ख़ुदा के बन्दे तो हैं हज़ारों बनो‌ में फिरते हैं मारे-मारे फिर चराग़े-लाला से रौशन हुए कोहो-दमन न आते हमें इसमें तकरार क्या थी आता है याद मुझ को गुज़रा हुआ ज़माना अजब वाइज़ की दींदारी है या रब गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बू न बेगानावार देख कभी ऐ हक़ीक़त-ए- मुन्तज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में गेसू-ए- ताबदार को और भी ताबदार कर हम मश्रिक़ के मुसलमानों का दिल जिन्हें मैं ढूँढता था आसमानों में ज़मीनों में ख़िरद के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं ख़ुदा का फ़रमान लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी चमक तेरी अयाँ बिजली में आतिश में शरारे में ख़िरदमंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है जब इश्क़ सताता है आदाबे-ख़ुदागाही क्या कहूँ अपने चमन से मैं जुदा क्योंकर हुआ अनोखी वज़्अ है सारे ज़माने से निराले हैं मजनूँ ने शहर छोड़ा है सहरा भी छोड़ दे मुहब्बत का जुनूँ बाक़ी नहीं है नहीं मिन्नत-कश-ए-ताब-ए-शनीदन दास्ताँ मेरी नया शिवाला सितारों से आगे जहाँ और भी हैं तेरे इश्क़ की इन्तहा चाहता हूँ तू अभी रहगुज़र में है ज़मीं-ओ-आसमाँ मुमकिन है हकी़क़ते-हुस्न साक़ी परवाना और जुगनू जमहूरियत राम बच्चों की दुआ जुगनू गुलज़ारे-हस्ती-बूद न बेगानावार देख तिरे इश्क की इंतहा चाहता हूँ सच कह दूँ ऐ ब्रह्मन गर तू बुरा न माने न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए दयारे-इश्क़ में अपना मुक़ाम पैदा कर मुझे आहो-फ़ुगाने-नीमशब का ये पयाम दे गई है मुझे सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा चमने-ख़ार-ख़ार है दुनिया जुदाई मेरी निगाह में है मोजज़ात की दुनिया लहू अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर हादसा वो जो अभी पर्दा-ए-अफ़लाक में है ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र ओ नाज़ नहीं मकतबों में कहीं रानाई-ए-अफ़कार भी है मता-ए-बे-बहा है दर्द-ओ-सोज़-ए-आरज़ू-मंदी मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में न तख़्त ओ ताज में ने लश्कर ओ सिपाह परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए तू ऐ असीर-ए-मकाँ ला-मकाँ से दूर नहीं वहीं मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी वो हर्फ़-ए-राज़ के मुझ को सिखा गया है जुनूँ ज़मिस्तानी हवा में गरचे थी शमशीर की तेज़ी मेरा वतन वही है