बुद्धाचा उपदेश व परिनिर्वाण (भाग तिसरा) 37
बुद्ध म्हणाला, "सिंहा, तुला जे कांही करावयाचें असेल, तें विचार करून कर. कांकी, तुझ्यासारख्या प्रसिद्ध मनुष्याला विचारपूर्वक वर्तन करणें योग्य आहे.''
सिंह म्हणाला "भदंत, दुसर्या पंथांच्या प्रवर्तकांचा जर मी शिष्य झालों असतों, तर त्यांनीं या वैशालीमध्यें जणूं काय विजयपताकाच लाविली असती! पण ज्या अर्थी आपण विचार करून वाग असें मला सांगतां, त्या अर्थी माझी आपणावर अधिकच श्रद्धा जडली आहे.''
बुद्ध म्हणाला "सिंहा, आजपर्यंत दुसर्या पंथांच्या श्रमणांना दान देऊं नये, आपल्याच भिक्षूंनां दान द्यावें, असा उपदेश करितां, असें मी ऐकत होतों; पण आज मला याच्या उलट अनुभव आला. भगवन्, या आपल्या औदार्याच्या योगें आपल्या ठायीं माझी भक्ति दृढतर झाली आहे.''
सिंहाने दुसर्या दिवशीं बुद्धाला व भिक्षुसंघाला आपल्या घरीं आमंत्रण करून मोठ्या आदरानें त्यांचे संतर्पण केलें. पण निर्ग्रंथांनां ही गोष्ट रुचली नाहीं. वैशालीमध्यें त्यांनीं अशी वदंता उठविलीस कीं, `सिंहानें मोठा पशु १ मारून बुद्धाला आणि भिक्षुसंघाला मेजवानी केली आहे, आणि बुद्धाला ही गोष्ट माहीत असतां त्यानें सिंहानें दिलेल्या भोजनाचा स्वीकार केला!' ही वदंता एका गृहस्थाने हळूच सिंहाच्या कानांत येऊन सांगितली. तेव्हां तो ह्मणाला "यांत कांही अर्थ नाहीं. बुद्धाची नालस्ती करण्यांतच निर्ग्रंथांना आनंद वाटतो. परंतु मी जाणूनबुजून मेजवानीसाठी प्राण्याची हिंसा करीन, हें निखालस असंभवनीय आहे.''
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१. हा बकरा होता कीं मेंढा होता, याचा खुलासा मूलग्रंथावरून होत नाहीं.
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(३४)
पसेनदिकोसल राजाला उपदेश
(क) मिताहारापासून फायदे
पसेनदिराजा फार जेवीत असे. एके दिवशीं जेवल्याबरोबर तो जेतवनविहारांत आला व बुद्धाला नमस्कार करून एका बाजूला बसला. जास्ती अन्न खाल्ल्यामुळें राजाचा श्वास जोरानें चालला होता. तें पाहून बुद्धानें पुढील गाथा म्हटली-
मनुजस्स सदा सतीमती
मत्तं जानतो लद्धभोजने।
तनु तस्स भवन्ति वेदना
सणिकं जीरति आयु पालयं२ ।।
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२. प्रमाण समजे जया सतत आपुल्या भोजनीं,
विवेक दृढ मानसीं स्वहित जो बुजे या जनीं,
अजीर्णजनिता तया नसति दु:खदा वेदना,
चिरायु नर होइ, त्या त्वरित वृद्धता येइना.
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सिंह म्हणाला "भदंत, दुसर्या पंथांच्या प्रवर्तकांचा जर मी शिष्य झालों असतों, तर त्यांनीं या वैशालीमध्यें जणूं काय विजयपताकाच लाविली असती! पण ज्या अर्थी आपण विचार करून वाग असें मला सांगतां, त्या अर्थी माझी आपणावर अधिकच श्रद्धा जडली आहे.''
बुद्ध म्हणाला "सिंहा, आजपर्यंत दुसर्या पंथांच्या श्रमणांना दान देऊं नये, आपल्याच भिक्षूंनां दान द्यावें, असा उपदेश करितां, असें मी ऐकत होतों; पण आज मला याच्या उलट अनुभव आला. भगवन्, या आपल्या औदार्याच्या योगें आपल्या ठायीं माझी भक्ति दृढतर झाली आहे.''
सिंहाने दुसर्या दिवशीं बुद्धाला व भिक्षुसंघाला आपल्या घरीं आमंत्रण करून मोठ्या आदरानें त्यांचे संतर्पण केलें. पण निर्ग्रंथांनां ही गोष्ट रुचली नाहीं. वैशालीमध्यें त्यांनीं अशी वदंता उठविलीस कीं, `सिंहानें मोठा पशु १ मारून बुद्धाला आणि भिक्षुसंघाला मेजवानी केली आहे, आणि बुद्धाला ही गोष्ट माहीत असतां त्यानें सिंहानें दिलेल्या भोजनाचा स्वीकार केला!' ही वदंता एका गृहस्थाने हळूच सिंहाच्या कानांत येऊन सांगितली. तेव्हां तो ह्मणाला "यांत कांही अर्थ नाहीं. बुद्धाची नालस्ती करण्यांतच निर्ग्रंथांना आनंद वाटतो. परंतु मी जाणूनबुजून मेजवानीसाठी प्राण्याची हिंसा करीन, हें निखालस असंभवनीय आहे.''
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१. हा बकरा होता कीं मेंढा होता, याचा खुलासा मूलग्रंथावरून होत नाहीं.
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पसेनदिकोसल राजाला उपदेश
(क) मिताहारापासून फायदे
पसेनदिराजा फार जेवीत असे. एके दिवशीं जेवल्याबरोबर तो जेतवनविहारांत आला व बुद्धाला नमस्कार करून एका बाजूला बसला. जास्ती अन्न खाल्ल्यामुळें राजाचा श्वास जोरानें चालला होता. तें पाहून बुद्धानें पुढील गाथा म्हटली-
मनुजस्स सदा सतीमती
मत्तं जानतो लद्धभोजने।
तनु तस्स भवन्ति वेदना
सणिकं जीरति आयु पालयं२ ।।
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२. प्रमाण समजे जया सतत आपुल्या भोजनीं,
विवेक दृढ मानसीं स्वहित जो बुजे या जनीं,
अजीर्णजनिता तया नसति दु:खदा वेदना,
चिरायु नर होइ, त्या त्वरित वृद्धता येइना.
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