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ययातिका चरित्र

श्रीपराशरजी बोले

नहुषके यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति नामक छः महाबल - विक्रमशाली पुत्र हुए ॥१॥

यतिने राज्यकी इच्छा नहीं की, इसलिये ययाति ही राजा हुआ ॥२-३॥

ययातिने शुक्राचार्यजीकी पुत्री देवयानी और वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठासे विवाह किया था ॥४॥

उनके वंशके सम्बन्धमें यह श्‍लोक प्रसिद्ध हैं ॥५॥

' देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म दिया तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुह्यु, अनु और पुरुको उप्तन्न किया' ॥६॥

ययातिको शुक्राचार्यजीको शापसे वृद्धावस्थाने असमय ही घेर लिया था ॥७॥

पीछे शुक्रजीके प्रसन्न होकर कहनेपर उन्होंने अपनी वृद्धावस्थाको ग्रहण करनेके लिये बड़े पुत्र यदुसे कहा - ॥८॥

' वत्स ! तुम्हारे नानाजीके शापसे मुझे असमयमें ही वृद्धवस्थाने घेर लिया है, अब उन्हींको कृपासे मैं उसे तुमको देना चाहता हूँ ॥९॥

मैं अभी विषय भोगोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ, इसलिये एक सहस्त्र वर्षतक मैं तुम्हारी युवावस्थासे उन्हें भोगना चाहता हूँ ॥१०॥

इस विषयमें तुम्हें किसी प्रकारकी आनाकानी नहीं करनी चाहिये । ' कितु पिताके ऐसा कहनेपर भी यदुने वृद्धवस्थाको ग्रहण करना न चाहा ॥११॥

तब पिताने उसे शाप दिया कि तेरी सन्तान राज्य - पदके योग्य न होगी ॥१२॥

फिर राजा ययातिने तुर्वस, द्रुह्यु और अनुसे भी अपना यौवन देकर वृद्धावस्था ग्रहण करनेके लिये कहाः तथा उनमेंसे प्रत्येकके अस्वीकार करनेपर उन्होंने उन सभीको शाप दे दिया ॥१३-१४॥

अन्तमें सबसे छोटे शर्मिष्ठाके पुत्र पुरुसे भी वही बात कही तो उसने अति नम्रता और आदरके साथ पिताको प्रणाम करके उदारतापूर्वक कहा - ' यह तो हमारे ऊपर आपका महान् अनुग्रह है । ' ऐसा कहकर पुरुने अपने पिताकी वृद्धावस्था ग्रहण कर उन्हें अपना यौवन दे दिया ॥१५-१७॥

राजा ययातिने पुरुका यौवन लेकर समयानुसार प्राप्त हुए यथेच्छ विषयोंको अपने उत्साहके अनुसार धर्मपूर्वक भोगा और अपनी प्रजाका भली प्रकार पालन किया ॥१८-१९॥

फिर विश्वाची और देवयानीके साथ विविध भोगोंको भोगते हुए मैं कामनाओंका अन्त कर दूँगा - ऐसे सोचते - सोचते ते प्रतिदिन ( भोगोंके लिये ) उत्कण्ठित रहने लगे ॥२०॥

और निरन्तर भोगते रहनेसे उन कामनाओंको अत्यन्त प्रिय मानने लगे; तदुपरन्त उन्होंने इस प्रकार अपना उद्गार प्रकट किया ॥२१-२२॥

'भोगोकी तृष्णा उनके भोगनसे कभी शान्त नहीं होती, बल्कि घृताहुतिसे अग्निके समान वह बढ़ती ही जाती हैं ॥२३॥

सम्पूर्ण पृथिवीमें जितने भी धान्य, यव सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं वे सब एक मनुष्यके लिये भी सन्तोषजनक नहीं हैं, इसलिये तृष्णाको सर्वथा त्याग देना चाहिये ॥२४॥

जिस समय कोई पुरुष किसी भी प्राणीके लिये पापमयी भावना नहीं करता उस समय उस समदशीकें लिये सभी दिशाएँ सुखमयी हो जाती हैं ॥२५॥

दुर्मतियोंके लिये जो अत्यन्त दुस्त्यज है तथा वृद्धावस्थामें भी जो शिथिल नहीं होती, बुद्धिमान पुरुष उस तृष्णाको त्यागकर सुखसे परिपूर्ण हो जाता है ॥२६॥

अवस्थाके जीर्ण होनेपर केशा और दाँत तो जीर्ण हो जाते हैं किन्तु जीवन और धनकी आशाएँ उसके जीर्ण होनेपर भी नहीं जीर्ण होतीं ॥२७॥

विषयोंमें आसक्त रहते हुए मुझे एक सहस्त्र वर्ष बीत गये, फिर भी नित्य ही उनमें मेरी कामना होती हैं ॥२८॥

अतः अब में इसे छोड़्कर और अपने चित्तको भगवान्‌में ही स्थिरकत निर्द्वन्द्व और निर्मम होकर ( वनमें ) मृगोंके साथ विचरूँगा' ॥२९॥

श्रीपराशरजी बोले -

तदनन्तर राजा ययातिने पुरुसे अपनी वृद्धावस्था लेकर उसका यौवन दे दिया और उसे राज्य - पदपर अभिषक्त कर वनको चले गये ॥३०॥

उन्होंने दक्षिण पूर्व दिशामें तुर्वसुको पश्चिममें द्गुह्युको, दक्षिणमें यदुको और उत्तरमें अनुको माण्डलिकपदपर नियुक्त कियाः तथा पुरुको सम्पूर्ण भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्तकर स्वयं वनको चले गये ॥३१-३२॥

इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे दशमोऽध्यायः ॥१०॥

श्रीविष्णुपुराण

संकलित साहित्य
Chapters
अध्याय १ चौबीस तत्त्वोंके विचारके साथ जगत्‌के उप्तत्ति क्रमका वर्णन और विष्णुकी महिमा ब्रह्मादिकी आयु और कालका स्वरूप ब्रह्माजीकी उप्तत्ति वराहभगवानद्वारा पृथिवीका उद्धार और ब्रह्माजीकी लोक रचना अविद्यादि विविध सर्गोका वर्णन चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था, पृथिवी-विभाग और अन्नादिकी उत्पात्तिका वर्णन मरीचि आदि प्रजापतिगण, तामसिक सर्ग, स्वायम्भुवमनु और शतरूपा तथा उनकी सन्तानका वर्णन रौद्र सृष्टि और भगवान् तथा लक्ष्मीजीकी सर्वव्यापकताका वर्णन देवता और दैत्योंका समुद्र मन्थन भृगु, अग्नि और अग्निष्वात्तादि पितरोंकी सन्तानका वर्णन ध्रुवका वनगमन और मरीचि आदि ऋषियोंसे भेंट ध्रुवकी तपस्यासे प्रसन्न हुए भगवान्‌का आविर्भाव और उसे ध्रुवपद-दान राजा वेन और पृथुका चरित्र प्राचीनबर्हिका जन्म और प्रचेताओंका भगवदाराधन प्रचेताओंका मारिषा नामक कन्याके साथ विवाह, दक्ष प्रजापतिकी उत्पत्ति एवं दक्षकी आठ कन्याओंके वंशका वर्णन नृसिंहावतारविषयक प्रश्न हिरण्यकशिपूका दिग्विजय और प्रह्लाद-चरित प्रह्लादको मारनेके लिये विष, शस्त्र और अग्नि आदिका प्रयोग प्रह्लादकृत भगवत्-गुण वर्णन और प्रह्लादकी रक्षाके लिये भगवान्‌का सुदर्शनचक्रको भेजना प्रह्लादकृत भगवत् - स्तृति और भगवान्‌का आविर्भाव कश्यपजीकी अन्य स्त्रियोंके वंश एवं मरुद्गणकी उप्तत्तिका वर्णन विष्णुभगवान्‌की विभूति और जगत्‌की व्यवस्थाका वर्णन प्रियव्रतके वंशका वर्णन भूगोलका विवरण भारतादि नौ खण्डोंका विभाग प्लक्ष तथा शाल्मल आदि द्वीपोंका विशेष वर्णन सात पाताललोकोंका वर्णन भिन्न - भिन्न नरकोंका तथा भगवन्नामके माहात्म्यका वर्णन भूर्भुवः आदि सात ऊर्ध्वलोकोंका वृत्तान्त सूर्य, नक्षत्र एवं राशियोंकी व्यवस्था तथा कालचक्र, लोकपाल और गंगाविर्भावका वर्णन ज्योतिश्चक्र और शुशुमारचक्र द्वादश सूर्योंके नाम एवं अधिकारियोंका वर्णन सूर्यशक्ति एवं वैष्णवी शक्तिका वर्णन नवग्रहोंका वर्णन तथा लोकान्तरसम्बन्धी व्याख्यानका उपसंहार भरत-चरित्र जडभरत और सौवीरनरेशका संवाद ऋभुका निदाघको अद्वैतज्ञानोपदेश ऋभुकी आज्ञासे निदाघका अपने घरको लौटना वैवस्वतमनुके वंशका विवरण इक्ष्वाकुके वंशका वर्णन तथा सौभरिचरित्र मान्धाताकी सन्तति, त्रिशुंकका स्वर्गारोहण तथा सगरकी उप्तत्ति और विजय सगर, सौदास, खट्‍वांग और भगवान् रामके चरित्रका वर्णन निमि-चरित्र और निमिवंशका वर्णन सोमवंशका वर्णनः चन्द्रमा, बुध और पुरुरवाका चरित्र जह्नुका गंगापान तथा जगदग्नि और विश्वामित्रकी उत्पत्ति काश्यवंशका वर्णन महाराज रजि और उनके पुत्रोंका चरित्र ययातिका चरित्र यदुवंशका वर्णन और सहस्त्रार्जुनका चरित्र यदुपुत्र क्रोष्टुका वंश सत्वतकी सन्ततिका वर्णन और स्यमन्तकमणिकी कथा