सूर्य, नक्षत्र एवं राशियोंकी व्यवस्था तथा कालचक्र, लोकपाल और गंगाविर्भावका वर्णन
श्रीपराशरजी बोले -
हे सुव्रत ! मैंने तुमसे यह ब्रह्माण्डकी स्थिति कही, अब सूर्य आदि ग्रहोंकी स्थिति और उनके परिमाण सुनो ॥१॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! सूर्यदेवके रथका विस्तार नौ हजार योजन है तथा इससे दूना उसका ईषा-दण्ड ( जुआ और रथके बीचका भाग ) है ॥२॥
उसका धुरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है जिसमें उसका पहिया लगा हुआ है ॥३॥
उस पूर्वाह्ण, मध्याह्न और पराह्णरूप तीन नाभि, परिवत्सरादि पाँच अरे और षड् - ऋतुरूप छः नेमिवाले अक्षयस्वरूप संवत्सरात्मक चक्रमें सम्पूर्ण कालचक्र स्थित हैं ॥४॥
सात छन्द ही उसके घोडे़ हैं ,उनके नाम सुनो - गायत्री, बॄहती, उष्णिक् , जगती, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप और पंक्ति - ये छन्द ही सूर्यके घोडे़ कहे गये हैं ॥५॥
हे महामते ! भगवान् सूर्यके रथका दुसरा धुरा साढे़ पैंतालीस सहस्त्र योजन लम्बा हैं ॥६॥
दोनों धुरोंके परिमाणके तुल्य ही उसके युगार्द्धो ( जुओं ) का परिमाण हैं, इनमेंसे छोटा धुरा उस रथके एक युगार्द्ध ( जुए ) के सहित ध्रुवके आधारपर स्थित हैं और दूसरे धुरेका चक्र मानसोत्तरपर्वतपर स्थित हैं ॥७॥
इस मानसोत्तरपूर्वतके पूर्वमें इन्द्रकी, दक्षिणमें यमकी, पश्चिममें वरूणकी और उत्तरमें चन्द्रमाकी पुरी है: उन पुरियोंके नाम सुनो ॥८॥
इन्द्रकी पुरी वस्वौकसारा है, यमकी संयमनी है, वरुणकी सुखा है तथा चन्द्रमाकी यमकी संयमनी है, वरुणकी सुखा है तथा चन्द्रमाकी विभावरी है ॥९॥
हे मैत्रेय ! ज्योतिश्चिक्रके सहित भगवान् भानु दक्षिण - दिशामें प्रवेशकर छोडे़ हुए बाणके समान तीव्र वेगसे चलते हैं ॥१०॥
भगवान् सूर्यदेव दिन और रात्रिकी व्यवस्थाके कारण हैं और रागादि क्लेशाके क्षीण हो जानेपर वे ही क्रममुक्तिभागी योगिजनोंके देवयान नामक श्रेष्ठ मार्ग हैं ॥११॥
हे मैत्रेय ! सभी द्वीपोंमें सर्वदा मध्याह तथा मध्यरात्रिके समय सूर्यदेव मध्य-आकाशमें सामनेकी ओर रहते हैं * ॥१२॥
इसी प्रकार उदय और अस्त भी सदा एक-दुसरेंके सम्मुख ही होते हैं । हे ब्रह्मन ! समस्त दिशा और विदिशाओंमें जहाँके लोग ( रात्रिका अन्त होनेपर ) सूर्यको जिस स्थानपर देखते हैं उनके लिये वहाँ उसका उदय होता है और जहाँ दिनमे अन्तमें सूर्यका तिरोभाव होता है वहीं उसका अस्त कहा जाता हैं ॥१३-१४॥
सर्वदा एक रूपसे स्थित सूर्यदेवका, वास्तवमें न उदय होता हैं और न अस्तः बस, उसका देखना और न देखना ही उनके उदय और अस्त हैं ॥१५॥
मध्याह्नकालमें इन्द्रादिमेंसे किसीकी पुरीपर प्रकाशित होते हुए सूर्यदेव ( पार्श्ववर्ती दो पुरियोंके सहित ) तीन पुरियों और दो कोणॊं ( विदिशाओं ) को प्रकाशित करते हैं इसी प्रकार अग्नि आदि कोणोंमेंसे किसी एक कोणमें प्रकशित होते हुए वे ( पार्श्ववतीं दो कोणोंके सहित ) तीन कोण और दो पुरियोंको प्रकाशित करते हैं ॥१६॥
सूर्यदेव उदय होनेके अनन्तर मध्याह्नपर्यन्त अपनी बढ़ती हुई किरणॊंसे तपसे है और फिर क्षिण होती होई किरणोंसे अस्त हो जाते हैं ** ॥१७॥
सूर्यके उदय औरास्तसे ही पूर्व तथा पश्चिम दिशाओंकी व्यवस्था हुई है । वास्तवमें तो, वे जिस प्रकरा पूर्वमें प्रकश करते हैं उसी प्रकार पश्चिम तथा पार्श्ववर्तिनी ( उत्तर और दक्षिण ) दिशाओंमें भी करते हैं ॥१८॥
सूर्यदेव देवपर्यंत सुमेरुके ऊपर स्थित ब्रह्माजीकी सभाके अतिरिक्त और सभी स्थानोंको प्रकाशित करते हैं; उनकी जो किरणें ब्रह्माजीकी सभामें जाती हैं वे उसके तेजसे निरस्त होकर उलटी लौट आती हैं ॥१९॥
सुमेरुपर्वत समस्त द्वीप और वर्षोंके उत्तरमें है इसलिये उत्तरदिशामें ( मेरुपर्वतपर ) सदा ( एक ओर ) दिन और ( दूसरी ओर ) रात रहते हैं ॥२०॥
रात्रिके समय सूर्यके अस्त हो जानेपर उसका तेज अग्निमें प्रविष्ट हो जाता हैं ; इसलिये उस समय अग्नि दुरहीसे प्रकाशित होने लगता हैं ॥२१॥
इसी प्रकार, हे द्विज ! दिनके समय अग्निका तेज सूर्यमें प्रविष्ट हो जाता है; अतः अग्निके संयोगसे ही सूर्य अत्यन्त प्रखरतासे प्रकशित होता हैं ॥२२॥
इस प्रकार सूर्य और अग्निके प्रकाश तथा उष्णतामय तेज परस्पर मिलकर दिन - रातमं वृद्धिको प्राप्त होते रहते हैं ॥२३॥
मेरुके दक्षिणी और उत्तरी भूम्यर्द्धमें सूर्यके प्रकाशित होते समय अन्धकारमयी रात्रि और प्रकशमय दिन क्रमशः जलमें प्रवेश कर जाते हैं ॥२४॥
दिनके समय रात्रिके प्रवेश करनेसे ही जल कुछ ताम्रवर्ण दिखायी देता है, किन्तु सूर्य-अस्त हो जानेपर उसमें दिनका प्रवेश हो जाता हैं; इसलिये दिनके प्रवेशके कारण ही रात्रिके समय वह शुक्लवर्ण हो जाता हैं ॥२५॥
इस प्रकार जब सूर्य पुष्करद्वीपके मध्यमें पहूँचकर पृथ्वीका तीसवाँ भाग पार कर लेता है तो उसकी वह गति एक मुहुर्तका होती है । ( अर्थात उतने भागके अतिक्रमण करनेसे उसे जितना समय लगता हैं वही मुहूर्त कहलाता है ) ॥२६॥
हे द्विज ! कुलाल - चक्र ( कुम्हारके चाक ) केसिरेपर घृमते हुए जीवके समान भ्रमण करता हुआ यह सूय्र पृथिवीके तीसों भागोंका अतिक्रमण करनेपर एक दिन-रात्रि करता हैं ॥२७॥
हे द्विज ! उत्तरायणके आरम्भमें सूर्य सबसे पहले मकरराशिमं जाता हैं, उसके पश्चात वह कुम्भ और मीन रशियोंमें एक राशिसे दुसरी रशिमें जाता हैं ॥२८॥
इन तीनों रशियोंको भोग चुकनेपर आरम्भमें सूर्य रात्रि और दिनको समान करता हुआ वैषुवती गतीका अवलम्बन करता है, ( अर्थात वह भुमध्य रेखाके बीचमें ही चलता हैं ) ॥२९॥
उसके अनन्तर नित्यप्रति रात्रि क्षीण होने लगती है और दिन बढ़ने लगता है । फिर ( मेष तथा वृष राशिका अतिक्रमण कर ) मिथुनराशिसे निकलकर उत्तरायणकी अन्तिम सीमापर उपस्थित हो वह कर्कराशिमें पहुँचकर दक्षिणायनका आरम्भ करता हैं ॥३०-३१॥
जिस प्रकार कुलाल-चक्रके सिरेपर स्थित जीव अति शीघ्रतासे घुमता है उसी प्रकर सूर्य भी दक्षिणायनको पार करनेंमें अति शीघ्रतासे चलता हैं ॥३२॥
अतः वह अति शीघ्रतापूर्वक वायुवेगसे चलते हुए अपने उत्कृष्ट मार्गको थोड़े समयमें ही पार कर लेता है ॥३३॥
हे द्विज ! दक्षिणायनमें दिनके समय शीघ्रतापूर्वक चलनेसे उस समयके साढे़ तेरह नक्षत्रोंको सूर्य बारह मुहूर्तोंमें पार कर लेता हैं, किन्तु रात्रिके समय ( मन्दगामी होनेसे ) उतने ही नक्षत्रोंको अठराह मुहूर्तोंमें पार करता हैं ॥३४॥
कुलाल-चक्रके मध्यमें स्थित जीव जिस प्रकर धीरे-धीरे चलता हैं उसी प्रकार उत्तरायणके समय सूर्य मन्दगतिसे चलता है ॥३५॥
इसलिये उस समय वह थोड़ी-सी भूमि भी अति दीर्घकालमें पार करता हैं, अतः उत्तरायणका अन्तिम दिन अठरह मुहूर्तका होता है, उस दिन भी सुर्य अति मन्दगतिसे चलता हिअ और ज्योतिश्चक्रार्धके साढे़ तेरह नक्षत्रोंको एक दिनमें पार करता हैं किन्तु रात्रिके समय वह उतने ही ( साढे़ तेरह ) नक्षत्रोंको बारह मुहूर्तोंमें ही पार कर लेता हैं ॥३६-३८॥
अतः जिस प्रकार नाभिदेशमें चक्रके मन्द-मन्द घूमनेसे वहाँका मृत् - पिण्ड भी मन्दगतिसे घुमता है उसी प्रकार ज्योतिश्चक्रके मध्यमें स्थित ध्रुव अति मन्द गतिसे घुमता है ॥३९॥
हे मैत्रेय ! जिस प्रकार कुलाल- चक्राकी नाभि अपने स्थानपर ही घूमती रहती है, उसी प्रकार ध्रुव भी अपने स्थानपर ही घूमता रहता है ॥४०॥
इस प्रकार उत्तर तथा दक्षिण सीमाओंके मध्यमें मण्डलकारा घूमते रहनेसे सूर्यकी गति दिन अथवा रात्रिके समय मन्द अथवा शीघ्र हो जाती हैं ॥४१॥
जिस आयनमें सूर्यकी गति दिनके समय मन्द होती हैं उसमें रात्रिके समय शीघ्र होती है तथा जिस समय रात्रि-कालमें शीघ्र होती हैं उस समय दिनमें मन्द हो जाती हैं ॥४२॥
हे द्विज ! सूर्यको सदा एक बराबर मार्ग ही पार करना पड़ता है; एक दिन- रात्रिमें यह समस्त राशियोंका भोग कर लेता हैं ॥४३॥
सूर्य छः राशियोंको रात्रिके समय भोगता हैं और छः को दिनके समय ! राशियोंके परिमाणानुसार ही दिनका बढ़नाघटना होता है तथा रात्रिकी लघुता दीर्थता भी राशियोंके परिमाणसे ही होती है ॥४४-४५॥
राशियोंके भोगानुसार ही दिन अथवा रात्रिकी लघुता अथवा दीर्घता होती है । उत्तरायणमें सुर्यकी गति रात्रिकालमं शीघ्र होती है तथा दिनमें मन्द । दक्षिणायनमें उसकी गति इसके विपरित होती हैं ॥४६-४७॥
रात्रि उषा कहलाती है तथा दिन व्युष्टि ( प्रभात ) कहा जाता हैं; इन उषा तथा व्युष्टिके बीचके समयको सन्ध्या कहते हैं *** ॥४८॥
इस अति दारुण और भयानक सन्ध्याकालके उपस्थित होनेपर मन्देहा नामक भयंकर राक्षसगण सूर्यको खाना चाहते हैं ॥४९॥
हे मैत्रेय ! उन राक्षसोंको प्रजापतिका यह शाप है कि उनका शरीर अक्षय रहकर भी मरण नित्यप्रति हो ॥५०॥
अतः सन्ध्या कालमें उनका सुर्यसे अति भीषण युद्ध होता हैं; हे महामुने ! उस समय द्विजोत्तमगण जो ब्रह्मास्वरूप ॐकार तथा गायत्रीसे अभिमन्त्नि जल छोड़ते हैं उस वज्रस्वरूप जलए वे दुष्ट राक्षस दग्ध हो जाते हैं ॥५१-५२॥
अग्निहोत्रमें जो 'सूर्यो ज्योति;' इत्यादि मन्तसे प्रथम आहुति दी जाती है उससे सहस्त्राशु दिननाथ देदीप्यमान हो जाते हैं ॥५३॥
ॐकार विश्व, तैजसे और प्राज्ञरूप तीन धामोंसे युक्त भगवान् विष्णु है तथा सम्पूर्ण वाणियों ( वेदों ) का अधिपति है, उसके उच्चारणमात्रसे ही वे राक्षसगण नष्ट हो जाते हैं ॥५४॥
सूर्य विष्णुभगवान्का अति श्रेष्ठ अंश और विकाररहित अन्तज्योतिःस्वरूप है । ॐकार उसका वाचक है और वह उसे उन राक्षसोंके वधमें अत्यन्त प्रेरित करनेवाला हैं ॥५५॥
उस ॐकारकी प्रेरणासे अति प्रदीप्त होकर वह ज्योति मन्देहा नामक सम्पूर्ण पापी राक्षसोंको दग्ध कर देती हैं ॥५६॥
इसलिये सन्धोपासनकर्मका उल्लघन कभी न करना चाहिये । जो पुरुष सन्ध्योपासन नहीं करता वह भगवान् सूर्यका घात करता हैं ॥५७॥
तदनन्तर ( उन राक्षसोंका वध करनेके पश्चात् ) भगवान सूर्य संसारके पालनमें प्रवृत्त हो बालखिल्यादिं ब्राह्मणोंसे सुरक्षित होकर गमन करते हैं ॥५८॥
पन्द्रह निमेषकी एक काष्ठा होती है और तीस काष्ठाकी एक कला गिनी जाती है । तीस कालाओंका एक मुहूत होता है और तीस मुहूर्तोके सम्पूर्ण रात्रि-दिन होते हैं ॥५९॥
दिनोंका ह्यास अथवा वृद्धि क्रमशः प्रातःकाल, मध्याह्नकाल आदि दिवसांशोंके ह्यास-वृद्धिके कारण है, यह सम्पूर्ण दिनोंके घटते-बढ़ते रहनेपर भी सन्ध्या सर्वदा समान भावसे एक मुहूर्तका ही होती हैं ॥६०॥
उदयसे लेकर सूर्यकी तीन मुहुर्तकी गतिके कालको 'प्रातःकाल' कहते हैं, यह सम्पूर्ण दिनका पाँचवाँ भाग होता हैं ॥६१॥
इस प्रातःकालके अनन्तर तीन मुहुर्तका समय 'संगव' कहलता है तथा संगवकालके पश्चात् तीन मुहूर्तका 'मध्याह्न' होता है ॥६२॥
मध्याह्नकालसे पीछेका समय 'अपराह्ण' कहलाता है इस काल भागको बी बुधजन तीन मुहूर्तका ही बताते हैं ॥६३॥
अपराह्णके बीतनेपर 'सायाह्न' आता है । इस प्रकार ( सम्पूर्ण दिनमें ) पन्द्रह मुहूर्त और ( प्रत्येक दिवसांशमें ) तीन मुहूर्त होते हैं ॥६४॥
वैषुवत दिवस पन्द्रह मुहूर्तका होता हैं किन्तु उत्तरायण और दक्षिणायनमें क्रमशः उसके वृद्धि और ह्नास होने लगते हैं । इस प्रकर उत्तरायणमें दिन रात्रिंका ग्रास करने लगता है और दक्षिणायनमें रात्रि दिनका ग्रास करती रहती है ॥६५-६६॥
शरद और वसन्तऋतुके मध्यमें सूर्यके तुला अथवा मेषराशिमें जानेपर 'विषुव' होता है । उस समय दिन और रात्रि समान होते हैं ॥३७॥
सूर्यके कर्कराशिमें उपस्थित होनेपर दक्षिणायन कहा जाता है और उसके मकरराशिपर आनेसे उत्तरायण कहलाता हैं ॥३८॥
हे ब्रह्मन् ! मैंने जो तीस मुहूर्तके एक रत्रि-दिन कहे हैं ऐसे पन्द्रह रात्रि-दिवसका एक 'पक्ष' कहा जाता है ॥६९॥
दो पक्षका एक मास होता है, दो सौरमासकी एक ऋतु और तीन ऋतुका एक अयन होता है तथा दो अयन ही ( मिलाकर ) एक वर्ष कहे जाते हैं ॥७०॥
( सौर,सावन, चान्द्र तथा नाक्षत्र -इन ) चार प्रकारके मासोंके अनुसार विविधरूपसे कल्पित संवत्सरादि पाँच प्रकारके वर्ष 'युग' कहलाते हैं यह युग ही ( मलमासादि ) सब प्रकारके काल निर्णयका कारण कहा जाता हैं ॥७१॥
उनमें पहला संवत्सर, दुसरा परिवत्सरा , तीसरा इद्वत्सर, चौथा अनुवत्सर और पाँचवाँ वत्सर है । यह काल 'युग' नामसे विख्यात है ॥७२॥
श्वेतवर्षके उत्तरमें जो श्रुंगवान् नामसे विख्यात पर्वत है उसके तीन श्रूंग हैं, जिनके कारण यह श्रुंगवान् कहा जाता है ॥७३॥
उनमेंसे एक श्रुंग उत्तरमें , एक दक्षिणमें तथा एक मध्यमें है । मध्यश्रुंग ही ' वैषुवत' है । शरत् और वसन्तऋतुके मध्यसे सूर्य इस वैषुवतश्रृंगपर आते है; अतः हे मैत्रेय ! मेष अथवा तुलाराशिके आरम्भमें तिमिरापहारी सूर्यदेव विषुवत्पर स्थित होकर दिन और रात्रिके समानपरिमाण कर देते हैं । उस समय ये दोनों पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्तके होते हैं ॥७४-७५॥
हे मुने ! जिस समय सूर्य कृत्तिकानक्षत्रके प्रथम भाग अर्थात मेषराशिके अन्तमें तथा चन्द्रमा निश्चय ही विशाखाके चतुर्थाश ( अर्थात वृश्चिकके आरम्भ ) में हों; अथवा जिस समय सूर्य विशाखाके तृतीय भाग अर्थात तुलाके अन्तिमांशका भोग करते हों और चन्द्रमा कृतिकाके प्रथम भाग अर्थात मेषान्तमें स्थित जान पड़े तभी यह 'विषुव' नामक अति पवित्र काल कहा जाता है; इस समय देवता, ब्राह्मण और पितृगणके उद्देश्यसे संयतचित्त होकर दानादि देने चाहिये । यह समय दानग्रहनके लिये मानो देवत्राओंके खुले हुए मुखके समान है । अतः 'विषुव' कालमें दान करनेवाला मनुष्य कृतकृत्य हो जाता हैं ॥७६-७९॥
यागादिके काल-निर्णयके लिये दिन, रात्रि, पक्ष, कला, काष्ठा और क्षण आदिका विषय भली प्रकार जानना चाहिये । राका और अनुमति दो प्रकारकी पूर्णमासी + तथा सिनीवाली और कुहू दो प्रकारकी अमावस्या ++ होती हैं ॥८०॥
माघ-फाल्गुन, चैत्र-वैशाख, तथा ज्येष्ठ, आषाढ़ ये छः मास उत्तरायण होते हैं और श्रवण -भाद्र, अश्विन कार्तिक तथा अगहनपौष - ये छः दक्षिणायन कहलाते हैं ॥८१॥
मैंने पहले तुमसे जिस लोकालोकपर्वतका वर्णन किया हैं उसीपर चार व्रतशील लोकपाल निवास करते हैं ॥८२॥
हे द्विज ! सुधामा, कर्दमके पुत्र शंखपाद और हिरण्यरोमा तथा केतुमान् - ये चारों निर्द्वन्द्व, निरभिमान, निरालस्य और निष्परिग्रह लोकपालगण लोकालोकपर्वतकी चारों दिशाओंमें स्थित हैं ॥८३-८४॥
जो अगस्त्यके उत्तर तथा अजवीथिके दक्षिणमें वैश्वानरमार्गसे भिन्न ( मृगवीथि नामक ) मार्ग हैं वही पितृयानपथ है ॥८५॥
उस पितृयानमार्गमें महात्मामुनिजन रहते हैं । जो लोग अग्निहोत्री होकर प्राणियोंकी उप्तत्तिके आरम्भक ब्रह्मा ( वेद ) की स्तुति करते हुए यज्ञानुष्ठानके लिये उद्यत हो कर्मका आरम्भ करते हैं वह ( पितृयान ) उनका दक्षिणमार्ग है ॥८६॥
वे युग-युगान्तरमें विच्छिन्न हुए वैदिक धर्मकी, सन्तान तपस्या वर्णाश्रम विच्छिन्न हुए वैदिक धर्मकी , सन्तान तपस्या वर्णाश्रम-मर्यादा और विविध शास्त्रोंके द्वारा पुनः स्थापना करते हैं ॥८७॥
पूर्वतन धर्मप्रवर्तक ही अपनी उत्तरकालीन सन्तानके यहाँ उप्तन्न होते हैं और फिर उत्तरकालीन धर्म-प्रचारकगण अपने यहाँ सन्तानरूपसे उत्पन्न हुए अपने पितृगणके कुलोंमें जन्म लेते हैं ॥८८॥
इस प्रकार वे व्रतशील महर्षिगण चन्द्रमा और तारागणकी स्थितिपर्यन्त सूर्यके दक्षिणमार्गमें पुनः-पुनः आते-जाते रहते हैं ॥८९॥
नागवीथिके उत्तर और सप्तार्षियोंके दक्षिणमें जो सूर्यका उत्तरीय मार्ग है उसे देवयानमार्ग कहते हैं ॥९०॥
उसमें जो प्रसिद्ध निर्मलस्वभाव और जितेन्द्रिय ब्रह्माचारिगण निवास करते हैं वे सन्तानकी इच्छा नहीं करते, अतः उन्होंने मृत्युको जीत लिया हैं ॥९१॥
सूर्यके उत्तरमार्गमें अस्सी हजार ऊर्ध्वरेता मुनिगण प्रलयकालपर्यन्त निवास करते हैं ॥९२॥
उन्होंने लोभके असंयोग, मैथुनके, त्याग, इच्छा और द्वेषकी अप्रवृत्ति, कर्मानुष्ठानके त्याग, काम-वासनाके असंयोग और शब्दादि विषयोंके दोष- दर्शन इत्यादि कारणोंसे शुद्धचित्त होकर अमरता प्राप्त कर ली हैं ॥९३-९४॥
भूतोंके प्रलयपर्यन्त स्थिर रहनेको ही अमरता कहते हैं । त्रिलोकीकी स्थितितकके इस कालको ही अपुनर्मार ( पुनर्मृत्युरहित ) कहा जाता है ॥९५॥
हे द्विज ! ब्रह्महत्या और अश्वमेधयज्ञसे जो पाप और पुण्य होते हैं उनका फल प्रलयपर्यन्त कहा गया है ॥९६॥
हे मैत्रेय ! जिनते प्रदेशमें ध्रुव स्थित है, पृथिवीसे लेकर उस प्रदेशपर्यन्त सम्पूर्ण देश प्रलयाकलमें नष्ट हो जाता हैं ॥९७॥
सप्तर्षियोंसे उत्तर - दिशामें ऊपरकी और जहाँ ध्रुव स्थित है वह अति तेजोमय स्थान ही आकाशमें विष्णुभगवान्का तीसरा दिव्यधाम है ॥९८॥
हे विप्र ! पुण्य - पापके क्षीण हो जानेपर दोष - पंकशून्य संयतात्मा मुनिजनोंका यही परमस्थान हैं ॥९९॥
पाप-पुण्यके निवृत्त हो जाने तथा देह - प्रात्पिके सम्पूर्ण कारणोंके नष्ट हो जानेपर प्राणिगण जिस स्थानपर जाकर फिर शोक नहीं करते वही भगवान विष्णुका परमपद है ॥१००॥
जहाँ भगवान्की समान ऐश्वर्यतासे प्राप्त हुए योगद्वारा सतेज होकर धर्म और ध्रुव आदि लोक - साक्षिगण निवास करते हैं वही भगवान् विष्णूका परमपद हैं ॥१०१॥
हे मैत्रेय ! जिसमें यह भूत, भविष्यत और वर्तमान चराचर जगत् ओतप्रोत हो रहा है वही भगवान् विष्णुका परमपद हैं ॥१०२॥
जो तल्लीन योगिजनोंको आकाशमण्डलमें देदीप्यमान सूर्यके समान सबके प्रकाशकरूपसे प्रतीत होता है तथा जिसका विवेक-ज्ञानसे हि प्रत्यक्ष होता हैं वही भगवान विष्णूका परमपद है ॥१०३॥
हे द्विज ! उस विष्णूपदमें ही सबके आधारभूत परम - तेजस्वी ध्रुव स्थित हैं, तथा धुवजीमें समस्त नक्षत्र, नक्षत्रोंमें मेघ और मेघोंमें वृष्टि आश्रित है । हे महामुने ! उस वृष्टिसे ही समस्त सृष्टिका पोषण और सम्पुर्ण देव मनुष्यादि प्राणियोंकी पृष्टि होती हैं ॥१०४-१०५॥
तदनन्तर गौ आदि प्राणीयोंसे उत्पन्न दुग्ध और घॄत आदिकी आहुतियोंसे परितुष्ट अग्निदेव ही प्राणीयोंकी स्थितीके लिये पुनः वृष्टिके कारण होते हैं ॥१०६॥
इस प्रकार विष्णुभगवान्का यह निर्मल तृतीय लोक ( ध्रुव ) ही त्रिलोकीका आधारभूत और वृष्टीका आदिकारण है ॥१०७॥
हे ब्रह्मन ! इस विष्णुपदसे ही देवांगनाओंके अंगरागसे पाण्डुरवर्ण हुई-सी सर्वपापापहारिणी श्रीगंगाजी उप्तन्न हुई हैं ॥१०८॥
विष्णुभगवान्के वाम चरण - कमलके अँगूठेके नखरूप स्त्रोतसे निकली हुई उन गंगाजीको ध्रुव दिन रात अपने मस्तकपर धारण करता है ॥१०९॥
तदनन्तर जिनके जलमें खड़े होकर प्राणायाम-परायण सप्तर्षिगण उनकी तरंगभंगीसे जटाकलापके कम्पायमान होते हुए, अघमर्षण - मन्तका जप करते हैं तथा जिनके विस्तृत जलसमूहसे आप्लावित होकर चन्द्रमण्डल क्षयके अनन्तर पुनः पहलेंसे भी अधिक कान्ति धार्ण करता है, वे श्रीगंगाजी चन्द्रमंण्डलसे निकलकर मेरुपर्वतके ऊपर गिरती है और संसारको पवित्र करनेके लिये चारों दिशाओंमें जाती हैं ॥११०-११२॥
चारों दिशाओंमें जानेसे वे एक ही सीता, अलकनन्दा, चक्ष और भद्रा इन चार भेदोंवाली हो जाती हैं ॥११३॥
जिनके अलकनन्दा नामक दक्षिणीय भेदको भगवान् शंकरने अत्यन्त अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सौ वर्षसे भी अधिक अपने मस्तकपर धारण किया था, जिसने श्रीशंकरके जटाकलापसे निकलकर पापी सगरपुत्रोके अस्थिचर्णको आप्लावित कर उन्हें स्वर्गमें पहूँचा दिया । हे मैत्रेय ! जिसके जलमं स्नान करनेसे शीघ्र ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और अपुर्व पुण्यकी प्राप्ति होती हैं ॥११४-११६॥
जिसके प्रवाहमें पुत्रोंद्वारा पितरोंके लिये श्रद्धापूर्वक किया हुआ एक दिनका भी तर्पण उन्हें सौ वर्षतक दुर्लभ तृप्ति देता हैं ॥११७॥
हे द्विज ! जिसके तटपर राजओंने महायज्ञोंसे यज्ञेश्वर भगवान् पुरुषोत्तमका यजन करके इहलोक और स्वर्गलोकमें परमसिद्धि लाभ की हैं ॥११८॥
जिसके जलमें स्नान करनेसे निष्पाप हुए यतिजनोंने भगवान् केशवमें चित्त लगाकर अत्युत्तम निर्वाणपद प्राप्त किया हैं ॥११९॥
जो अपना श्रवण, इच्छा, दर्शन, स्पर्श, जलपान, स्नान तथा यशोगान करनेसे हि नित्यप्रति प्राणियोंको पवित्र करती रहती है ॥१२०॥
तथा जिसका 'गंगा', गंगा ' ऐस नाम सौ योजनकी दूरीसे भी उच्चारण किये जानेपर ( जीवके तीन जन्मोंके सत्र्चित पापोंको नष्ट कर देता है ॥१२१॥
त्रिलोकीको पवित्र्फ़ करनेमें समर्थ वह गंगा जिससे उप्तन्न हुई है, वहीं भगवान्का तीसरा परमपद हैं ॥१२२॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे अष्टोमोऽध्यायः ॥८॥
* अर्थात् जिस द्वीप या खण्डमें सूर्यदेव मध्याह्नके समय सम्मुख पड़ते है उसकी समान रेखापर दुसरी और स्थित द्वीपान्तरमें वे उसी प्रकार मध्यरात्रिके समय रहते हैं ।
** किरणोंकी वृद्धि, हास एवं तीव्रता-मन्दता आदि सूर्यके समीप और दूर होनेसे मनुष्यके अनुभवके अनुसार कही गयी हैं ।
*** 'व्युष्टि' और 'उषा' दिन और रात्रिके वैदिक नाम हैं; यथा - 'रात्रिर्वा उषा अहर्व्युष्टिः ।'
+ जिस पूर्णिमामें पूर्णचन्द्र विराजमान होता है वह 'राका' कहलाती है तथा जिसमें एक कलाहीन होती है वह 'अनुमति' कही जाती है ।
++ दृष्टचन्द्रान अमावास्याका नाम 'सिनीवाली' है और नष्टचन्द्रका नाम 'कुहू' है ।