ऋभुका निदाघको अद्वैतज्ञानोपदेश
श्रीपराशरजी बोले-
हे मैत्रेय ! ऐसा कहनेपर, राजाको मौन होकर मन-ही-मन-सोच-विचार करते देख वे विप्रवर यह अद्वैत - सम्बन्धिनी कथा सुनाने लगे ॥१॥
ब्राह्मण बोले -
हे राजाशार्दुल ! पूर्वकालमें महर्षि ऋभुने महात्मा निदाघको उपदेश करते हुए जो कुछ कहा था वह सुनो ॥२॥
हे भूपते ! परमेष्ठी श्रीब्रह्माजीका ऋभु नामक एक पुत्र था , वह स्वभावसे ही परमार्थतत्त्वको जाननेवाला था ॥३॥
पूर्वकालमें महर्षि पुलस्त्यका पुत्र निदाघ उन ऋभुका शिष्य था । उसे उन्होंने अति प्रसन्न होकर सम्पूर्ण तत्वज्ञानका उपदेश दिया था ॥४॥
हे नरेश्वर ! ऋभुने देखा कि सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान होते हुए भी निदाघकी अद्वैतमें निष्ठा नहीं हैं ॥५॥
उस समय देविकानदीके तीरपर पुलस्त्यजीका बसाया हुआ वीरनगर नामक एक अति रमणीक और समृद्धिसम्पन्न नगर था ॥६॥
हे पार्थिवोत्तम ! रम्य उपवनोंसे सुशोभित उस पुरमें पूर्वकालमें ऋभुका शिष्य योगवेता निदाघ रहता था ॥७॥
महर्षि ऋभु अपने शिष्य निदाघको देखनेके लिये एक सहस्त्र दिव्यवर्ष बीतनेपर उस नगरमें गये ॥८॥
जिस समय निदाघ बलिवैश्वदेवके अनन्तर अपने द्वारपर ( अतिथियोंकी ) प्रतीक्षा कर रहा था, वे उसके दृष्टिगोचर हुए और वह उन्हें द्वारपर पहूँच अर्घदानपूर्वक अपने घरमें ले गया ॥९॥
उस द्विजश्रेष्ठने उनके हाथ-पैर धुलाये और फिर आसनपर बिठाकर आदरपूर्वक कहा - 'भोजन कीजिये' ॥१०॥
ऋभु बोले-
हे विप्रवर ! आपके यहाँ क्या-क्या अन्न भोजन करना होगा - यह बताइये, क्योंकि कुत्सित अन्नमें मेरी रुचि नहीं है ॥११॥
निदाघने कहा -
हे द्विजश्रेष्ठ ! मेरे घरमें सत्तू, जौकी लप्सी, कन्द-मूल-फलादि तथा पूए बने हैं । आपको इनमेंसे जो कुछ रुचे वही भोजन कीजिये ॥१२॥
ऋभु बोले -
हे द्विज ! ये तो सभी कुत्सित अन्न है, मुझे तो तुम हलवा, खीर तथा मट्ठा और खाँड़से बने स्वादिष्ट भोजन कराओ ॥१३॥
तब निदाघने ( अपनी स्त्रीसे ) कहा - हे गृहदेवि ! हमारे घरमें जो अच्छि-से-अच्छि वस्तु हो उसीसे इनके लिये अति स्वादिष्ट भोजन बनाओ ॥१४॥
ब्राह्मण ( जडभरत ) ने कहा- उसके ऐस कहनेपर उसकी पत्नीने अपने पतिकी आज्ञासे उन विप्रवरके लिये अति स्वादिष्ट अन्न तैयार किया ॥१५॥
हे राजन ! ऋभुके यथेच्छ भोजन कर चुकनेपर चिदाघने अति विनीत होकर उन महमुनिसे कहा ॥१६॥
निदाघ बोले -
हे द्विज ! कहिये भोजन करके आपका चित्त स्वस्थे हुआ न ? आप पूर्णतया तृप्त और सन्तुष्ट हो गये न ? ॥१७॥
हे विप्रवर ! कहिये आप कहाँ रहनेवाले हैं ? कहाँ जानेकी तैयारीमें हैं ? और कहाँसे पधारे हैं ? ॥१८॥
ऋभु बोले -
हे ब्राह्मण ! जिसको क्षुधा लगती हैं उसीकी तृप्ती भी हुआ करती है । मुझको तो कभी क्षुधा ही नहीं लगी, फिर तृप्तिके विषयमें तुम क्या पूछते हो ? ॥१९॥
जठराग्निके द्वारा पार्थिव ( ठोस ) धातुओंके क्षीण हो जानेसे मनुष्यको क्षुधाकी प्रतीति होती है और जलके क्षीण होनेसे तृष्णाका अनुभव होता है ॥२०॥
हे द्विज ! ये क्षुधा और तुषा तो देहके ही धर्म हैं, मेरे नहीं; अतः कभी क्षुधिति न होनेके कारण मैं तो सर्वदा तृप्त ही हूँ ॥२१॥
स्वस्थता और तुष्टि भी मनहीमें होते हैं, अतः ये मनहीके धर्म हैं; पुरुष ( आत्मा ) से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिये हे द्विज ! ये जिसके धर्म हैं उसीसे इनके विषयमें पूछो ॥२२॥
और तुमने जो पूछा कि 'आप कहाँ रहनेवाले हैं? कहाँ जा रहे हैं ? तथा कहाँसे आये हैं' सो इन तीनोंके विषयमें मेरा मत सुनो - ॥२३॥
आत्मा सर्वगत है, क्योंकि यह आकाशके समान व्यापक है; अतः 'कहाँसे आये हो, कहाँ रहते हो और कहाँ जा ओगे ? 'यह कथन भी कैसे सार्थक हो सकता है ? ॥२४॥
मैं तो न कहीं जाता हूँ न आता हूँ और न किसी एक स्थानपर रहता हूँ ( तू, मैं और अन्य पुरुष भी देहादिके कारण जैसे पृथक् - पृथक् दिखायी देते हैं वास्तवमें वैसे नहीं हैं ) वस्तुतः तू तु नहीं हैं, अन्य अन्य नहीं है औअ मैं मैं नहीं हूँ ॥२५॥
वास्तवमें मधुर मधुर है भी नहीं; देखो, मैंने तुमसे जो मधुर अन्नकी याचना की थी उससे भी मैं यहीं देखना चाहता था कि ' तुम क्या कहते हो ।' हे द्विजश्रेष्ठ ! भोजन करनेवालेके लिये स्वादु और अस्वादु भी क्या है ? क्योंकी स्वादिष्ठ पदार्थ ही जब समयान्तरसे अस्वादु हो जाता हैं तो वही उद्वेगजनक होने लगता हैं ॥२६-२७॥
इसी प्रकार कभी अरुचिकर पदार्थ रुचिकर हो जाते हैं और रुचिकर पदर्थोसे मनुष्यको उद्वेग हो जाता है । ऐसा अन्न भला कौन - सा है जो आदि, मध्य और अन्त तीनों कालमें रुचिकर ही हो ? ॥२८॥
जिस प्रकार मिट्टिका घर मिट्टिसे लीपने - पोतनेसे दृढ़ होता है, उसी प्रकार यह पार्थिव देह पार्थिव अन्नके परमाणुओंसे पुष्ट हो जाता है ॥२९॥
जौ, गेहूँ, मूँग, घृत, तैल , दूध , दही गुड़ और फल आदि सभी पदार्थ पार्थिव परमाणु ही तो हैं । ( इनमेंसे किसको स्वादु कहें और किसको अस्वादु ? ) ॥३०॥
अतः ऐसा जानकर तुम्हें इस स्वादु अस्वादुका विचार करनेवाले चित्तको समदर्शी बनाना चाहिये क्योंकि मोक्षका एकमात्र उपाय समता ही है ॥३१॥
ब्राह्मण बोले - हे राजन् ! उनके ऐसे परमार्थमय वचन सुनकर महाभाग निदाघने उन्हें प्रणाम करके कहा - ॥३२॥
"प्रभो ! आप प्रसन्न होइये ! कृपया बतलाइये, मेरे कल्याणकी कामनासे आये हुए आप कौन हैं ? हे द्विज ! आपके इन वचनोंको सुनकर मेरा सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया है' ॥३३॥
ऋभु बोले - हे द्विज ! मैं तेरा गुरु ऋभु हूँ; तुझको सदसद्विवेकिनी बुद्धि प्रदान करनेके लिये मैं यहाँ आया था । अब मैं जाता हुँ; जो कुछ परमार्थ है वह मैंने तुझसे कहा ही दिया है ॥३४॥
इस परमार्ततत्त्वका विचार करते हुए तु इस सम्पूर्ण जगत्को एक वासुदेव परमात्माहीका स्वरूप जान; इसमें भेद-भाव बिलकूल नहीं है ॥३५॥
ब्राह्मण बोले - तदनन्तर निदाघने ' बहुत अच्छा' कह उन्हें प्रणाम किया और फिर उससे परम भक्तिपूर्वक पुजित हो ऋभु स्वेच्छनुसार चले गये ॥३६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे पत्र्चद्शोऽध्यायः ॥१५॥