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तेईसवाँ अध्याय

तेईसवाँ अध्याय

जाननेयोग्य आवश्यक बातें

( १ ) शयन -

सदा पूर्व या दक्षिणकी तरफ सिर करके सोना चाहिये । उत्तर या पश्चिमकी तरफ सिर करके सोनेसे आयु क्षीण होती है तथा शरीरमें रोग उत्पन्न होते हैं -

नोत्तराभिमुखः सुप्यात् पश्चिमाभिमुखो न च ॥

( लघुव्यासस्मृति २ । ८८ )

उत्तरे पश्चिमे चैव न स्वपेद्धि कदाचन ॥

स्वप्रादायुःक्षयं याति ब्रह्महा पुरुषो भवेत् ।

न कुर्वीत ततः स्वप्रं शस्तं च पूर्वदक्षिणम् ॥

( पदमपुरण, सृष्टि० ५१। १२५ - १२६ )

पूर्वकी तरफ सिर करके सोनेसे विद्या प्राप्त होती है । दक्षिणकी तरफ सिर करके सोनेसे धन तथा आयुकी वृद्धि होती है । पश्चिमकी तरफ सिर करके सोनेसे प्रबल चिन्ता होती है । उत्तरकी तरफ सिर करके सोनेसे हानि तथा मृत्यु होती है, अर्थात् आयु क्षीण होती है -

प्राकशिरः शयने विद्याद्धनमायुश्च दक्षिणो ।

पश्चिमे प्रबला चिन्ता हानिमृत्युरथोत्तरे ।

( आचारमयूखः विश्वकर्मप्रकाश )

शास्त्रमें ऐसी बात भी आती है कि अपने घरमें पुर्वकी तरफ सिर करके, ससुरालमें दक्षिणकी तरफ सिर करके और परदेश ( विदेश ) - में पश्चिमकी तरफ सिर करके सोये, पर उत्तरकी तरफ सिर करके कभी न सोये -

स्वगेहे प्राक्छिराः सुप्याच्छ्वशुरे दक्षिणाशिराः ।

प्रत्यक्छिराः प्रवासे तु नोदक्सुप्यात्कदाचन ॥

( आचारमयूख; विश्वकर्मप्रकाश १० । ४५ )

मरणासत्र व्यक्तिका सिर उतरकी तरफ रखना चाहिये और मृत्युके बाद अन्त्येष्टि - संस्कारके समय उसका सिर दक्षिणकी तरफ रखना चाहिये ।

धन - सम्पत्ति चाहनेवाले मनुष्यको अन्न, गौ, गुरु, अग्नि और देवताके स्थानके ऊपर नहीं सोना चाहिये । तात्पर्य है कि अन्न - भण्डार, गौशाला, गुरु - स्थान, रसोई और मन्दिरके ऊपर शयनकक्ष नहीं होना चाहिये ।

( २ ) शौच -

दिनमें उत्तरकी ओर तथा रात्रिमें दक्षिणकी ओर मुख करके मल - मूत्रका त्याग्त करना चाहिये । ऐसा करनेसे आयु क्षीण नहीं होती -

उदड्मुखो दिवा मूत्रं विपरीतमुखो निशि ।

( विष्णुपुराण ३।११।१३ )

दिवा सन्ध्यासु कर्णस्थब्रह्मसूत्र उदड्मुखः ।

कुर्यान्मूत्रपुरीषे तु रात्रौ च दक्षिणामुखः ॥

( याज्ञवल्क्य० १ । १६, वाधूल० ८ )

उभे मूत्रपुरीषे तु दिवा कुर्यादुदड्मुखः ।

रात्रौ कुर्याद्‍दक्षिणास्य एवं ह्यायुर्न हीयते ॥

( वसिष्ठास्मृति ६ । १०)

प्रातः पूर्वकी ओर तथा रात्रि पश्चिमकी ओर मुख करके मल - मूत्रका त्याग करनेसे आधासीसी ( माइग्रेन ) रोग होता है ।

( ३ ) दन्तधावन आदि -

सदा पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके ही दन्तधावन ( दातुन ) करना चाहिये । पश्चिम और दक्षिणकी ओर मुख करके दन्तधावन नहीं करना चाहिये -

पश्चिमे दक्षिणे चैव न कुर्याद्दन्तधावनम् ।

( पद्मपुराण, सृष्टि० ५१ । १२५ )

अन्य ग्रन्थमें केवल पूर्व अथवा ईशानकी ओर मुख करके दन्तधावन करनेका विधान आया है -

प्राड्मुखस्य धृतिः सौख्यं शरीरारोग्यमेव च ।

दक्षिणेन तथा कष्टं पश्चिमेन पराजयः ॥

उत्तरेण गवां नाशः स्त्रीणां परिजनस्य च ।

पूर्वोत्तरे तु दिग्भागे सर्वान्कामानवाप्रुयात् ॥

( आचारमयूख )

अर्थात् पूर्वकी ओर मुख करके दन्तधावन करनेसे धैर्य, सुख और शरीरकी नीरोगता प्राप्त होती है । दक्षिणकी ओर मुख करनेसे कष्ट और पश्चिमकी ओर मुख करनेसे पराजय प्राप्त होती है । उत्तरकी ओर मुख करनेसे गौ, स्त्री एवं परिजनोंका नाश होता है । पूर्वौत्तर ( ईशान ) दिशाकी ओर मुख करनेसे सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि होती है ।

क्षौरकर्म ( बाल कटवाना ) पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके ही कराना चाहिये ।

( ४ ) देवपूजन -

कुछ वास्तुशास्त्री घरमें पत्थरकी मूर्तियोंका अथवा मन्दिरका निषेध करते हैं । वास्तवमें मूर्तिका निषेध नहीं है, प्रत्युत एक बित्तेसे अधिक ऊँची मूर्तिका ही घरमें निषेध है *-

अङ्ष्ठपर्वादारभ्य वितस्तिर्यावदेव तु ।

गृहेषु प्रतिमा कार्या नाधिका शस्यते बुधैः ॥

( मत्स्यपुराण २५८ । २२ )

' घरमें अँगूठेके पर्वसे लेकर एक बित्ता परिमाणकी ही प्रतिमा होनी चाहिये । इससे बड़ी प्रतिमाको विद्वानलोग घरमें शुभ नहीं बताते ।'

शैलीं दारुमयीं हैमीं धात्वाद्याकारसम्भवाम् ।

प्रतिष्ठां वै प्रकुवींत प्रासादे वा गृहे नृप ॥

( वृद्धपाराशर )

' पत्थर, काष्ठ, सोना या अन्य धातुओंकी मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा घर या प्रासाद ( देवमन्दिर ) - में करनी चाहिये । '

घरमें एक बित्तेसे अधिक बड़ी पत्थरकी मूर्तिकी स्थापना करनेसे गृहस्वामीकी सन्तान नहीं होती । उसकी स्थापना देवमन्दिरमें ही करनी चाहिये ।

घरमे दो शिवलिङ्ग, तीन गणेश, दो शड्ख, दो सूर्य - प्रतिमा, तीन देवी प्रतिमा, दो द्वारकाके ( गोमती ) चक्र और दो शालग्रामका पूजन करनेसे गृहस्वामीको उद्वेग ( अशान्ति ) प्राप्त होती है -

गृहे लिङ्गद्वयं नार्च्य गणेशत्रितयं तथा ।

शड्खद्वयं तथा सूर्यो नार्च्या शक्तित्रयं तथा ॥

द्वे चक्रे द्वारकायास्तु शालग्रामशिलाद्वयम् ।

तेषां तु पूजनेनैव उद्वेगं प्रापुयाद गृही ॥

( आचारप्रकाश; आचारेन्दु )

( ५ ) भोजन -

भोजन सदा पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके करना चाहिये -

'प्राड्मुखोदड्मुखो वापि'

( विष्णुपुराण ३।११।७८)

'प्राड्‍मुखऽन्नानि भुञ्ञीत'

( वसिष्ठस्मृति १२।१५)

दक्षिण अथवा पश्चिमकी ओर मुख करके भोजन नहीं करना चाहिये -

भुञ्ञीत नैवेह च दक्षिणामुखो न च प्रतीच्यामभिभोजनीयम् ॥

( वामनपुराण १४।५१)

दक्षिणकी ओर मुख करके भोजन करनेसे उस भोजनमें राक्षसी प्रभाव आ जाता है -

' तद् वै रक्षांसि भुञ्ञते '

( पाराशरस्मृति १।५९)

अप्रक्षालितपादस्तु यो भुड्न्के दक्षिणामुखः ।

यो वेष्टितशिरा भुड्न्क्ते प्रेता भुञ्ञन्ति नित्यशः ॥

( स्कन्दपुराण, प्रभास० २१६ । ४१)

' जो पैर धोये बिना खाता है, जो दक्षिणकी ओर मुँह करके खाता है अथवा जो सिरमें वस्त्र लपेटकर ( सिर ढककर ) खाता है, उसके उस अन्नको सदा प्रेत ही खाते है ।'

यद् वेष्टितशिरा भुड्न्क्ते यद् भुडन्क्ते दक्षिणामुखः ।

सोपानत्कश्च यद् भुड्न्क्ते सर्वं विद्यात् तदासुरम् ॥

( महाभारत, अनु० ९०।१९)

' जो सिरमें वस्त्र लपेटकर भोजन करता है, जो दक्षिणकी ओर मुख करके भोजन करता है तथा जो जूते पहने भोजन करता है, उसका वह सारा भोजन आसुर समझना चाहिये ।'

प्राच्यां नरो लभेदायुर्याम्यां प्रेतत्वमश्रुते ।

वारुणे च भवेद्रोगी आयुर्वित्तं तथोत्तरे ॥

( पद्मपुराण, सृष्टि० ५१ । १२८)

' पूर्वकी ओर मुख करके खानेसे मनुष्यकी आयु बढ़ती है, दक्षिणकी ओर मुख करके खानेसे प्रेतत्वकी प्राप्ति होती है, पश्चिमकी ओर मुख करके खानेसे मनुष्य रोगी होता है और उत्तरकी ओर मुख करके खानेसे आयु तथा धनकी प्राप्ति होती है ।'