कैवर्तककुमार की कथा
राजगृह में मलयसिंह नाम के राजा राज्य करते थे। उनके मायावती नाम की अप्रतिम रूपवती एक कन्या थी। एक बार वह राजोद्यान में खेल रही थी तभी एक कैवर्तककुमार (मछुआरे के बेटे) की दृष्टि उस पर पड़ गयी। सुप्रहार नाम का वह कैवर्तककुमार उस राजकुमारी को देखकर प्रेम से व्याकुल हो गया। घर जाकर वह शैया पर निश्चल होकर पड़ गया और तबसे उसने मछली मारना भी छोड़ दिया। भोजन करना तक त्याग दिया।
जब उसकी माँ ने उससे कुरेद-कुरेदकर पूछा कि बात क्या है, तो उसने अपने मन की बात माँ को बता दी। उसकी माता का नाम रक्षितिका था। रक्षितिका ने अपने बेटे से कहा, बेटा! तू चिन्ता मत कर। मैं तेरा काम साध दूँगी। बस तू निश्चिन्त होकर भोजन कर ले। फिर मैं राजकुमारी से तेरा मिलन कराने के लिए निकलती हूँ।
माँ की बात मानकर सुप्रहार ने भोजन किया। उसके पश्चात रक्षितिका ने एक टोकरी में अच्छी से अच्छी मछलियाँ रखीं और राजकुल पहुँची। रनिवास के द्वार पर पहुँचकर उसने चेटियों से कहा कि मैं राजकुमारी के लिए कुछ उपहार लायी हूँ, उन्हीं को अर्पित करूँगी। चेटियों ने भी उसे राजकुमारी के सामने पहुँचा दिया।
रक्षितिका ने राजकुमारी को मछलियाँ अर्पित कीं और कुछ देर राजकुमारी से मीठी-मीठी बातें कीं। फिर तो वह प्रतिदिन राजकुमारी से मिलने जाने लगी और मछलियों का उपहार भी राजकुमारी के लिए वह ले जाती। एक दिन उसने राजकुमारी से कहा, भर्तृदारिके! मुझे आपसे एकान्त में कुछ कहना है। राजकुमारी ने अपनी सखियों और दासियों को बाहर भेज दिया। तब उस धीवरी ने राजकुमारी से कहा, भर्तृदारिके! मेरे बेटे ने आपको एक बार उद्यान में घूमते-टहलते देख लिया।
तबसे वह आपके बिना व्याकुल है। एक बार आप उसे देख लें, स्पर्श कर लें, तब तो वह कदाचित जीवित बचेगा, नहीं तो प्राण दे देगा। धीवरी की बात सुनकर राजकुमारी लजा गयी, फिर सोच में पड़ गयी। रक्षितिका फिर उससे निहोरा करने लगी, तब राजकुमारी ने कहा, अच्छा, अपने बेटे को गुप्त रूप से रात में मेरे कक्ष में पहुँचा देना।
इसकी किसी को भी कानों-कान खबर न हो। रक्षितिका प्रसन्न होकर अपने घर लौटी और रात होने पर बेटे को खूब अच्छी तरह सजाकर गुप्त रूप से रनिवास ले आयी। राजकुमारी भी उस कैवर्तककुमार के सरल सहज निश्छल अनुराग को देखकर प्रसन्न हुई। दोनों ने कुछ देर बातें कीं, फिर राजकुमारी ने स्नेह से सुप्रहार को थपथपाते हुए कहा, तुम इस कक्ष में सो जाओ। जब सारे परिजन सो जाएँगे, तो मैं पीछे के द्वार से तुम्हें बाहर निकाल दूँगी। सुप्रहार उस शैया पर सो गया।
राजकुमारी कुछ देर मुग्ध होकर निद्रामग्न अपने उस प्रेमी को निहारती रही, फिर कहीं सखियों को पता न चल जाए, यह सोचकर उस कक्ष को बाहर से बन्द करके सखियों के बीच जा बैठी। थोड़ी देर में ही सुप्रहार की नींद खुल गयी। उसने देखा कि राजकुमारी का कहीं पता नहीं है, तो वेदना के कारण उसने तुरन्त वहीं प्राण छोड़ दिये। राजकुमारी जब उसके पास लौटी तो पाया कि उसका प्रिय मृत पड़ा हुआ है। वह बिलख-बिलखकर रोने लगी। अन्तःपुर के सारे परिजन जाग गये। राजा और रानी को खबर की गयी।
राजकुमारी ने कहा कि मैं अभी अपने प्रिय की चिता पर जलकर प्राण दे दूँगी। राजकुमारी की यह घोषणा सुनकर उसके माता-पिता तो सन्न रह गये। सब लोग राजकुमारी को समझाने लगे कि ऐसा अनर्थ मत करो। राजकुमारी अपने निश्चय से टस से मस न हुई। तब राजा मलयसिंह आचमन करके व्रत लेकर बैठ गये और देवताओं को सम्बोधित करके कहा-यदि मेरी भगवान शिव के प्रति सच्ची भक्ति है, तो देवता मुझे बताएँ कि इस संकट का क्या समाधान है? तभी आकाशवाणी हुई-सुप्रहार इस राजकुमारी का सच्चा प्रेमी है और यही इसका पति होगा।
राजकुमारी यदि अपनी आधी आयु इसे दे दे, तो यह जी उठेगा। राजकुमारी ने तत्काल संकल्प लेकर अपनी आधी आयु सुप्रहार को दान कर दी। सुप्रहार जी उठा। फिर तो सबने आनन्द मनाया और राजकुमारी का विवाह सुप्रहार के साथ कर दिया गया। मन्त्री के मुख से यह कथा सुनकर महाराज पालक ने निश्चय कर लिया कि अपने पुत्र का जीवन बचाने के लिए वे बिना हिचक के चाण्डालकन्या से उसका विवाह कर देंगे। उन्होंने तत्काल चाण्डालकन्या सुरतमंजरी का हाथ माँगने के लिए अपने दूत उसके पिता उत्पलदेव के पास भेजे। उत्पलदेव ने कहा, मेरी बेटी का विवाह उज्जयिनी के राजकुमार से हो, इससे बढ़कर मेरे लिए प्रसन्नता की और क्या बात हो सकती है,
पर मैंने भी बेटी के विवाह के विषय में एक प्रतिज्ञा कर रखी है। दूतों ने पूछा, आपकी प्रतिज्ञा क्या है? उत्पलदेव ने कहा, जो मेरे घर में लाकर नगर के अठारह हजार ब्राह्मणों को भोजन कराएगा, उसे मैं अपनी बेटी दूँगा। यह मेरी प्रतिज्ञा है। दूतों ने आकर उत्पलदेव की शर्त महाराज पालक को बतायी। तब महाराज पालक ने उज्जयिनी के सब ब्राह्मणों को बुलाकर कहा, मेरी आज्ञा है कि आप लोग सब के सब जाकर चाण्डाल उत्पलदेव के घर भोजन करें। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तो अच्छा न होगा।
उज्जयिनी के सारे ब्राह्मण राजा की यह बात सुनकर घबरा गये। वे राजा के क्रोध से भी डरते थे और चाण्डाल के घर भोजन करने से धर्म की हानि होने से भी। तब वे सबके सब महाकाल के मन्दिर में गये और महाकाल से प्रार्थना करने लगे कि भगवन्, हमें इस संकट से बचाइए। तब महाकाल ने उन्हें दर्शन देकर कहा, तुम सब लोग चाण्डालराज उत्पलदेव के घर बेखटके भोजन करो, वह तो पिछले जन्म का विद्याधर है। भगवान महाकाल का आदेश मानकर उन सब ब्राह्मणों ने चाण्डाल उत्पलदेव के घर भोजन किया।
उसके पश्चात सुरतमंजरी का राजकुमार अवन्तिवर्धन के साथ धूमधाम से विवाह किया गया। जिस तरह पाँचों पाण्डवों तथा द्रौपदी ने महाभारत युद्ध के बाद हिमालय पर जाकर अपने देह त्यागे थे, उसी प्रकार महाराज उदयन, उनकी दोनों रानियों तथा मन्त्रियों ने संसार से विरक्त होकर राजपाट और ऐश्वर्य का त्याग कर कालंजर पर्वत पर जाकर अपने देह त्याग दिये। नरवाहनदत्त पर अपने पिता और माताओं के महाप्रयाण के समाचार से जैसे वज्रपात हुआ।
फिर गोमुख आदि मन्त्रियों के समझाने-बुझाने पर उसने धैर्यपूर्वक उन सबके और्ध्वदैहिक कृत्य निपटाये। इसके बाद नरवाहनदत्त अनन्तकाल तक विद्याधरों पर एकच्छत्र राज्य करता रहा। उसी नरवाहनदत्त को लेकर रचा गया कथाओं का यह विराट ताना-बाना गुणाढ्य ने लेखबद्ध किया। इस बृहत्कथा को सुनकर काणभूति के रूप में विन्ध्य के वन में रहने वाला सुप्रतीक नाम का शापग्रस्त यक्ष शाप से मुक्त हुआ। वररुचि बने हुए शिव के सेवक पुष्पदन्त ने भी उसे ये कथाएँ सुनाकर शिवलोक प्रयाण किया।
फिर काणभूति से ये कथाएँ सुन चुके गुणाढ्य रूपधारी माल्यवान ने इन कथाओं को संसार में प्रसिद्ध कर दिया। वास्तव में यह बृहत्कथा शिव-पार्वती के प्रणय रूपी मन्दर के मथने से उपजा हुआ अमृत है। इस मनुष्यलोक में जन-जन इसे चखता रहेगा और यह सदा अक्षय बना रहेगा।