अध्याय छः
कन्यादान
हरचरण जी उर्फ केशरी जी, हां यही नाम है उनका। हरचरण उनके तन का नाम है और केशरी उनके आत्मा का सम्मान। इसी नाम से पूरे गांव, समाज के लोग और जान पहचान वाले जानते हैं। दया, करुणा, कर्तव्यनिष्ठा के प्रतिमूर्ति! शिक्षा, सभ्यता और प्रतिष्ठा के धनी। नीति में साधुता, व्यवहार में कुशलता, भाव मे प्रवीणता और मैत्री कला में निपुणता। तब उनकी महानता को किस अमुल्य रत्न से आंका जाय और कैसे? तब उनके आदर्शों का कहाँ अंत? वे सजीले और वफादार पुरुष हैं। मर्यादा का पालन उनके अंग-अंग से छलकता है।
वे डाक के मुंशी हैं। प्रीति उन्ही की लाडली बेटी है। इकलौती और मातृहीन बालिका। प्रीति जब तीन साल की नन्ही बालिका थी, तभी उसकी माँ का देहांत हो गया था। उस समय हरचरण बहुत दुःखी हुए थे। उन्हें अपनी पत्नी के जाने का उतना दुःख न था, दुःख था तो बस यही की नन्ही प्रीति के सिर से अगाध ममता लुटाने वाली उसकी माँ का साया उठ गया। वे बहुत रोए थे, बहुत दिनों तक उनके आंखों का पानी सूखता नहीं था। लेकिन शायद वह (उनकी पत्नी) अपनी चिर यात्रा पर प्रस्थान करती हुई प्रीति के हिस्से का प्यार और ममता का गागर हरचरण के हाथों थमा गई थी, और प्रीति को वे एक माँ का स्नेह भी दिए थे। सचमुच वे प्रीति के एक पिता के साथ-साथ एक माँ भी हैं , एक सखा भी हैं, मित्र भी हैं और उसके आनन्द भरे चितवन का एक वाद संगीत भी हैं। अलबता प्रीति उनके गोद में नित्य खुश है। वह सोती है, जागती है, हंसती है, रोती है, चहकती है, फुदकती है, खेलती है, खाती है और आनन्दित होती है। खुशी से किलोलें भरती है। माँ उसे कभी याद भी नहीं आती, उसे तो अपनी माँ की सुरत भी अब याद नहीं है। अब बहुत जोर डालने पर मष्तिस्क पर एक धुंधली सी तस्वीर उभरती है कल्पना में वह देखती है कि उसकी माँ शायद सुंदर होगी, हंसमुख मिजाज की होगी। बातें खुब करती होगी। फिर वह माँ को भूल जाती है। वह अपने पिता को जानती है। पिता के साथ बिताए अपने बालमन किल्लोल को जानती है। उनके ममता वेणी को जानती है। और इसी क्रम में वह अपने पिता से खूब तालिमें हासिल की है। खुब अंग्रेजी पड़ी है।
बाल्यकाल में गाँव की वृद्ध महिलाएँ प्रीति को बतलाया करती थी कि उसकी माँ मर गई है। तब वह कुछ गंभीर हो जाया करती थी। सोचती, यह मरणा क्या होता है। विचार करती थी तब वह अपने पिता से पूछती थी। पिता तब बड़े प्यार से गोद में उठा लेते और बतलाते की तुम्हारी माँ भगवान के पास चली गई है। भगवान जी उसे बुला लिए है।
शंकित और उदास स्वर में प्रीति पूछ लेती---"कब आएगी?"
और उसके पिता उसके इसी तरह के हरेक प्रश्नों का उत्तर देकर उसे सन्तुष्ट करते।
लेकिन अब प्रीति को समझ आ गया है। बढ़ते वय के साथ वह जान चुकी है कि जो मर जाते हैं वे कभी भी लौटकर वापिस नही आ पाते अब तो मरना भी अच्छी तरह जान चुकी है।
अब जब भी कभी माँ की याद आती है वह उदास हो जाती है। जीवन की इस भाग दौड़ में पंद्रह सावन आया और प्रीति को थपकाता, सहलाता, चूमता हुआ चला गया और सोलहवां भी आ पहुंचा, प्रकृति के धानी चोली पहने ,इतराती, इठलाती हुई।
हरचरण शाम को घर लौटे। घर में प्रीति न थी। वे अपने कपड़े बदलकर बाहर आ गए और स्वच्छ नील आकाश की ओर ताकने लगे। क्षितिज में डूबता हुआ सूरज अपनी किरणों से क्षितिज पर बिखरे बादलों के टुकड़े को सुनहला बना रहा था। हरचरण इसी अलौकिक छटा का आनन्द ले रहे थे। फिर अनायास ही उनकी नजर गली की ओर ताकने लगा। गली के अगले किन्तु समीप ही मुड़ने वाली मोड़ पर एक नौजवान जा रहा था। कुछ मुहल्ले के बच्चे भी खेल रहे थे। हरचरण की खोज पूर्ण दृष्टि अनायास ही चमकी और वे आवाज लगाने लगे---"कौन है…चंदर बेटे, जरा यहां तो आओ। कहां भागे जा रहे हो।"
"क्या है चाचा ?" चन्दर पास आते हुए बोला।
"तूने आज कुछ सुना? किशनगढ़ से खबर आई है। कृष्णा की बहन कावेरी आज आत्महत्या कर ली है। दहेज में मोटी रकम न मिलने के कारण उसके ससुराल वालों ने उसे खूब सताया करता था। यातनाएं दे देकर उसे खूब पिटता रहता था। अंततः दुःख और यातना को वह सहन न कर सकी बेचारी, और मजबुरन आत्महत्या कर ली…। आखिर ये सब क्या है भैया। दिन-प्रतिदिन हमारा समाज आखिर कहां जा रहा है।"
चन्दर एक ठंढी साँस लेकर बोला---"सब हो रहा है चाचा, आजकल सबकुछ होने लगा है। आपको रोज कोई न कोई कथा- कहानी सुनने पढ़ने को मिलेगा। हत्या, बलात्कार, लुट, दुष्कर्म, भ्र्ष्टाचार, आत्महत्या सबकुछ हो रहा है। आज जैसे पुरा देश दुनियाँ की धुरी इसी पर टिकी हुई है। अब विमला काकी को लो न, वो अभी मरने लायक नहीं हुई थी , लेकिन असमय ही वह इस निष्ठुर दुनियाँ से प्रस्थान कर गई। क्या यह सही नहीं है चाचा कि पैसे के अभाव में उसके मर्म का उचित इलाज ही नहीं करवाया गया। बदहाली और तंगी ने उसे अपना ग्रास बना लिया। आप भी उस समय तंगी और बदहाली से घुटने टेककर मजबूर और लाचार सिर्फ बेवसी के आँसू बहाते रहे और मूक दर्शक बनकर मौत का तमाशा देखते रहे। शायद ईश्वर को भी यही मंजुर था। चाचा सोचता हूँ तो लगता है किसी बच्चे के सिर से स्नेहमयी माँ का साया उठ जाना, असमय औरतों को विधवा का लिवास ढोते रहना, एक माँ से जवान बेटे का छीन जाना, पिता के कंधे पर बेटे का अर्थी उठ जाना, कितना बड़ा और असहनीय पीड़ा है। किसी विचित्र घटना है। कितना बड़ा अन्याय है। लेकिन हम और हमारा समाज उस स्थिति को प्रकृति का नियति कहकर खामोश हो जाता है। विधाता का खेल कहता है।"
"हां बेटा, याद करता हूँ उस मनहूस दिन को तो रूह कांप जाता है। लगता है विमल की हत्या की गई है। वह आप अपनी मौत मरी नहीं है। उसे निर्ममता से मारा गया है। निर्दयता का खंजर चला है उसपर। वह मृत्यु शैय्या पर तड़पती रही, और मैं….मैं बेवसी के आंसू रोता रहा, उसके मरने का निरीहता से इंतजार करता रहा। आखिर ये कीमती शरीर लेकर भी कुछ नहीं कर सका मैं। मैं अपना विश्वास, धैर्य सबकुछ होम कर दिया था। अब लगता है उसका हत्यारा मैं ही था। वास्तव में अपनी बेवसी, लाचारी और अभावग्रस्त जिंदगी का स्वांग रचना एक थोथी कायरता है, ढोंग है। अपने इंसानियत के साथ घिनौना छल है।"
"मनुष्य के पास सपने हों, लक्ष्य हों, विश्वास हों , स्वयं में जागरूकता आ जाए, हर विकट चुनौतियों से सामना करने का साहस हो, तो वह भी शाही जिंदगी जी सकता है। विश्वास और दृढ़ इच्छा शक्ति के सहारे तो दुनियां को जीता जा सकता है। ब्रह्मांड को मापा जा सकता है" कहते-कहते उनकी आंखें नम हो गई फिर वे बोले---"अब मेरी प्रीति को देखो न, वह कितनी खुश रहती है। उसे अपनी माँ विमला की याद तनिक भी नहीं सताती। जब मैं उसके सुंदर मुखड़े को देखता हूँ तो लगता है कि भगवान ने उसके सिर पर से माँ का स्नेह छीन कर बहुत बड़ा अन्याय किया है वह सत्रह बरस की हो गई घर का सारा काम वही सम्हालती है। और मेरे ऊपर तो वह इतना ध्यान रखती है कि पुछो मत, जैसे मैं उसका नन्हा बच्चा हूँ या उसकी अरमानों का कोई कीमती धरोहर है। मेरी सारे आवश्यकताओं का जैसे उसे पूरा ज्ञान है कि उसके पिता को कब किस चीज का जरूरत पड़ता है। अब तो मुझे उसकी शादी की चिंता सताने लगा है। …भईया तुम तो मेरा माली हालत जानते ही हो। पैंतीस सौ रुपये पर डाक में काम करता हूँ। जो घर के खर्च से ज्यादा नहीं होता।आज की इस कमर तोड़ महंगाई में वे ₹3500 हैं क्या? सोचता हूँ कि अपनी सुंदर सी रानी बिटिया का विवाह किसी सुंदर सलोने राजकुमार के साथ करूँ। और अपनी बेटी तो राजा के महल में ही रहने के लायक है। अब सोचो चन्दर बेटे….इसे यूं ही किसी के गले कैसे मढ़ दु। इसके जैसी सुंदर लड़की दिया जलाकर ढूंढने से भी नहीं मिलेगी" एक गहरी सांस लेकर वे चन्दर को देखने लगे।
" चाचा ईश्वर की मर्जी होगा तो सब ठीक ही होगा।"
" हां चन्दर किसी योग्य घर वर का पता लगाना सोच रहा हूं किसी तरह इसी साल प्रीति के हाथ पीले कर दूं। मेरे पास इस टूटी-फुटी झोपड़ी के शिवाय है क्या । तुम्ही लोगों का आसरा है। बेटी तो पराया धन है । प्रीति के चले जाने के बाद बुढ़ापे के अंतिम दिन तो तुम्ही भले मांनसों के बीच काटना उत्तम।
"सब हो जाएगा चाचा, बस अपने आप पर भरोसा रखो। अच्छा अब मैं चलता हूँ चाचा" चन्दर उठते हुए बोला।
हरचरण जी गर्दन हिला दिए। फिर वे अपने बैठक में आ गए और एक ठंढी सांस भरकर ताक पर पसर गए।
सहसा प्रीति धीरे से, बड़ी चपलता के साथ कमरे में कदम रखी और अपने पिता को देखने लगी---हरचरण किन्ही विचारों में आंखें बंद किए खोए से पड़े थे। प्रीति को अपने पिता को इस अवस्था में खलल डालना अच्छा न लगा। सोचने लगी---वह थके हारे आए हैं। फिर उसे ख्याल आया, वह अपने पिता के लिए चाय नहीं बनाई है। उसके पिता चाय पीने के खुब आदी हैं। वह जैसे आई थी वैसे ही उल्टे पांव लौट गई। हरचरण को लगा जैसे वहां कोई अभी-अभी आकर गया है। वे आंखे खोलकर धीरे से आवाज लगाए---"कौन…? प्रीति….।
प्रीति दरवाजे को पार कर चुकी थी। अपने पिता की आवाज सुनकर पुनः लौट आई---"क्या है पिताजी?"
"एक गिलास पानी ला देना बेटी।"
प्रीति चली गई। हरचरण को लगा कि भगवान ने प्रीति के साथ निश्चय ही घोर अपराध किया है। उसे तो किसी राजमहल में जन्म देना था। और भेज दिया इस टूटी हुई झोपड़ी में।
" चाय ले आऊँ।" । प्रीति पानी का गिलास अपने पिता को थमाती हुई पुछ ली।
" चाय बना ली बेटी।" पानी का गिलास प्रीति को वापस देते हुए हरचरण जी बोले।
प्रीति उतर में सिर हिला दी।
"तो जाओ आज तुम पी लो!"
"आप नहीं पीएंगे पिताजी?"
हरचरण को ज्वर जैसा लग रहा था। सिर में हल्का-हल्का दर्द था। चाय पीने का जी नहीं कर रहा था। लेकिन वे जानते थे कि यदि वे चाय नहीं पीएँगे तो प्रीति भी नहीं पिएगी । किसी दिन को अगर वे नहीं खाएं तो प्रीति को भूखा सोना पड़ता है। नासमझ लड़की कुछ न खाती है न पीती है।
"अच्छा ले आओ।" वे दीर्घ श्वास छोड़ते हुए बोले।
(अगले अंको में जारी....)
सुरेन्द्र प्रजापति