अध्याय तीन
शोहदा 21 वर्षीय सजीला नौजवान, मध्यम वर्गीय किसान परिवार का होनहार बेटा। दो वर्ष पहले उनके पिता का देहांत हो गया था। माँ धार्मिक विचारों वाली, शिक्षित और कुशाग्र बुद्धि की महिला थी। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। वृद्ध माता को अपने मेघावी बेटे पर काफी भरोसा है कि उसका बेटा एक कामयाब इंसान बने, और हो भी क्यों न उसे शोहदा के कुशाग्र बुद्धि पर काफी विश्वास है। और शोहदा में वे सारे गुण मौजुद हैं जो जीवन को एक नए तरीके से परिभाषित कर सके। शोहदा भौतिक विज्ञान में एम.ए.द्वितीय वर्ष का छात्र है। मां की दिली इच्छा है कि उसका बेटा भैतिक विज्ञान में रिसर्च करके दुनिया को एक नई खोज दे। शोहदा भी महीनों से इस विषय पर काफी सोच विचार कर रहा था लेकिन अभी तक अपना रिसर्च को शुरू नहीं कर पाया है, इसमें दो कारण थे--- पहला कुछ तकनीकी कमी, दूसरा –प्रीति....हाँ प्रीति को पाने की तड़प।
अध्ययन से उसे धीरे-धीरे एलर्जी होने लगा है, मन अस्थिर और बेचैन रहता है। चौबीसो घंटे उसके आंखों के सामने प्रीति का मुस्कुराता मनोहारिणी मुरत सीधे उसके सरल हृदय को उद्वेलित करता रहता, और वह मचल उठता है। कभी-कभी उसे स्वयं से घृणा होने लगता है---यह प्यार है या वासना या शरीर पाने का सुख, ये पापी आँखें उस कोमलांगना रमनी के अनावृत शरीर को ही क्यों देखता है, उसका चित्तवृत्ति इतना घिनौना कैसे हो गया।
दिल धिक्कारता---- कायर...स्वार्थी....!
एक तरल ऐश्वर्य सुख उसे मीठी नींद सुलाता तो दूसरे तरफ दिल का इंसान उसे बुरी तरह फटकारता। उसके आँखों की खुमारी, चेहरे का उतावलापन उसकी वृद्ध माता से छिपी न रही, वह शोहदा से इसका रहस्य जानने की कोशिश करती लेकिन वह हमेशा टाल दिया करता है।
आज प्रीति का फटकार उसे बेचैन कर रहा है, उसे क्रोध भी आ रहा है, ईर्ष्या भी हो रहा है तो कभी प्रीति के चंचल चित पर दया भी आ रहा है। कभी लगता, प्रीति के निर्मल आँखों की ज्योति उसके ढीठ हो चुके हृदय को वेध रहा है। प्रीति के चंचल नयन उसके आंखों में बरछे की भांति पेवस्त हो रहा है, जो बज्र से भी ज्यादा दुखदायी और असाध्य है। प्रीति के वे कोमल बाहुपाश उसके गले का हार बनने के बजाए कठोर और भारी लौह जंजीर की तरह जकडा है, उसके सरल, रागात्मक मधुर प्रणय की बातें क्या उसके जीवन को सुख नहीं देगा।
उफ! यह करुण वेदना, उसके इर्द गिर्द हजारों सर्पों की भांति रेंग रहा है, फुफकार रहा है दिल पर, दिमाग पर, उसके सम्पूर्ण शरीर पर, और वह सिर्फ चीत्कार
रहा है।
मुंदी पलकों में नींद नही है, वह यों ही विस्तर पर बेसुध पड़ा है कभी-कभी उसी अवस्था में उसकी चेतना जगती है और उसके होंठो से वेदना के स्वर फुट पड़ते हैं---’ओह! प्रीति क्यों रुला रही हो दया करो।‘
और तभी उसके आँखों के सामने रोशनी का एक तेज पुंज उसे जगमगा गया फिर वह स्वंय को एक सुरंग में पाता है। सुरंग के गर्भ में अपार जलराशि, उसका शरीर नील जल सतह पर तैर रहा है, सांसे फूलता जा रहा है, हाथ पैर थककर चुर हो रहे हैं, लेकिन वह पैर को कहां जमाए। जीवन की चाह उसे तैरने के लिए विवश कर रहा है। सामने बहुत दुर आखिरी छोर पर एक वृहत प्रकाश पुंज फैल रहा है, और वह सारी शक्ति को बटोर बस उसी वृहत उजाले की ओर बढ़ता जा रहा है, वह उजाले के समीप, और समीप पहुंचता है, बिल्कुल उजाले के समीप एक विशाल पत्थर पर एक एक सुंदर, अप्सरा सी दिखने वाली युवती बैठी हुई है। वह अपने दिमाग पर जोर डालता है , पहचानने का प्रयत्न करता है। अचानक उसे उस रमनी में प्रीति का चेहरा नजर आता है---हां वही हसमुख मुखारविंद, कौशेय वस्त्र में लिपटी हुई वही चंचल सी मुस्कान।
वह शोहदा को हाथ के इशारे देकर बुला रही है और वह उसकी ओर और आगे बढ़ता जा रहा है। लेकिन यह क्या वह प्रीति तो नहीं है, कहां गई प्रीति! फिर वह कौन है—बला की खूबसूरती लिए वही सुंदर नैन नक्श, नाजुक और रसीले होंठ, होंठो पर वही सरलता, मुख पर वही प्रसन्ता। उसी तरह शोहदा को हाथ देकर आमंत्रित करती है। धीरे-धीरे आवाज भी दे रही है।
शोहदा बिल्कुल पास पहुंचता है, तभी अचानक उस रमनी पर पीछे से एक हाथ बढ़ता है, फिर कई हाथ बढ़ता है, वे सभी शोहदा को हिंशक दृष्टि से देख रहा है और उस रमनी को चारों ओर से दबोच रहा है। वह युवती काफी डर जाती है, सहम जाती है, भय से थर-थर कांप रही है, मारे दहशत के रहम की भीख मांग रही है, चीखें घुट रही है आवाजें दम तोड़ रही है।
उसके आंखों में, हां ! अंगारों सी लपलपाती आंखो में क्रुरता है, युवती की आंखों में दहशत, खौफ, याचना। शोहदा को बुरा लगता है ,भृकुटि तन जाती है, क्रोध के मारे कांपने लगता है, क्रोध और अपमान से आंखें लाल हो जाता है। दांत पीसकर पूरे जोर से ललकारता है--- “चांडाल......!”
वे सब धूर्तता से ठहाके लगाता है।
वे ठहाके सांप के समान शोहदा के सीने से टकराता है, वह घोर गर्जना करता है और तभी एक विशाल पत्थर बज्र के समान उससे टकराता है, वह पीड़ा से चीख पड़ता है और उसकी निन्द्रा भंग हो जाता है, अवचेतन प्राण लौटता है।
शोहदा जग जाता है। इतना सुंदर और भयानक दृश्य, यह स्वप्न था या हकीकत...। उसके मष्तिष्क में एक धुंधला सा दृश्य कौंधता है। प्रीति की मोहनी सूरत, उसकी मधुर आवाज, उसे थपकी देता मौन आमंत्रण।
स्वप्न में अचानक प्रीति का गायब होना, फिर एक अनजान रूपसी, उसकी आँखों मे उसके लिए असीम कृपा। फिर दो चार दानवों की भेंट चढ़ चुकी उसकी करुण चीखें, फिर उसपर ब्रजघात। क्या संबंध है उसका इन सभी बातों से। तो क्या शोहदा वास्तव में प्रीति को पा नहीं सकेगा। उसके जीवन मे क्या उसी रूपसी यौवना की तरह कोई दूसरी आने वाली है? वास्तविकता में क्या उसे भी किसी तूफान का सामना करना पड़ेगा।
“बेटे क्या कोई स्वप्न देख रहा था?”
“ माँ....” शोहदा अचानक अपनी माँ को देखकर चौक गया---"नहीं तो... तुम इतनी रात गए जाग रही हो” फिर वह अपनी माँ के झुर्रिदार चेहरे को निहारने लगा। जहां गहन शांति और गंभीरता का साम्राज्य था।
माँ शोहदा के गोल मुखड़े को बड़े गौर से देखती रही—”हाँ तुम भी तो इतनी रात गए जागते रहे हो”। फिर वह इत्मीनान से शोहदा के बालों को सहलाती हुई बोली--- ”अच्छा एक बात पुछूं बेटे...!” वह शोहदा के चेहरे पर आते जाते भावों को पढ़ने की कोशिश करती हुई बोली---”तुम दो चार दिनों से इतने उदास क्यों रह रहे हो, बताओ हमारे बेटे को किसकी नजर लग गई है।”
“नहीं तो...!” शोहदा अटक सा गया---”तुम व्यर्थ ही चिंता करती हो, भला मैं क्यों उदास रहूंगा। बस ऐसे ही कभी-कभी दिमाग मे किसी विषय को लेकर टेंशन बन जाता है बस।”
“वजह जान सकती हूं।” बेहद शांत लहजे में उसकी माँ पूछी।
“कुछ नहीं रिसर्च को लेकर...सोचता हूँ माँ आखिर इतनी बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर अबतक बेकार ही तो बैठा हूँ सोच रहा हूँ कहीं नौकरी कर लूं।”
“हाँ ठीक सोचते हो” बूढ़ी आंखें पहले ध्यान से अपने बेटे के चेहरे को देखी फिर एक-एक शब्द को तौलते हुए बहुत ही गंभीरता के साथ बोली---”नौकरी कर लो, कुछ कमा धमा कर कुछ पैसे इकठ्ठा कर लो ताकि मेरे मरने पर मेरा क्रिया-कर्म खुब धूमधाम से कर सको, साथ ही मेरे इतने दिनों की तपस्या जला कर राख कर डालो।”
“माँ....” शोहदा का स्वर कांप गया। दुःख भी हुआ, वेदना से उसका चेहरा करुणा और विछोभ से लाल हो गया, पछताने लगा, नाहक ही वह अपनी माँ को दुःख पहुंचाया।
“बस बावले हो गए। अरे पगले मैंने तुम्हे पढ़ाया लिखाया था इसलिए नहीं कि तुम किसी और मातहत के पास जाकर सुवह-शाम उसका सलामी ठोको, उसका जी हुजूरी करो नहीं बेटे.. .बेटे तुम्हारे जन्म से आज तक बहुत तपस्या किया है मैंने, तुम्हारे लिए सुनहले स्वप्न देखें हैं। तेरे शरीर को गौरवशाली और काबिलियत के संस्कार से सींचा है। पराक्रमी विद्वताओं, विद्वानों, मनीषियों का लोरी सुनाया है। क्या मेरे सपने को पुरा नहीं करोगे बेटे। तुम्हारे विरल शरीर में मैंने एक साक्षात पौरुष का दर्शन किया है, जो दुनियाँ में अपनी कामयाबी के झंडे गाड़ सकता है। क्या मेरी अभिलाषाओं को पुरा नही करोगे बेटे। सोचो नौकरी करके मेरे स्वप्नों को साकार कर सकोगे। यकीनन नहीं....” और सचमुच माँ दार्शनिकों की भांति बोलती चली गई।
“माँ...!” शोहदा बड़े ध्यान से माँ के चेहरे को निहारने लगा उस माँ को जिसके दिलों में अपने बेटे के काबिलियत की अभिलाषाएं हिलोंरे मार रही थी।
“अपना रिसर्च शुरू करो बेटे...कल आगरे से प्रिंसिपल साहब का एक टेलीग्राम आया है उसे देख लेना” कहकर वह चली गई।
शोहदा अपनी माँ के झुरीदार चेहरे को देख रहा था जिस पर उसके प्रति आशाएं अंकित थी, महत्वकांक्षाएं थी, विश्वास था, और कामयाबी के ऐश्वर्य सुख का स्वप्न था। वह घंटों अपनी माँ के बारे में सोचता रहा फिर एकाएक उसके आंखों के सामने प्रीति का मोहक चेहरा उभर आया। प्रीति की मोहनी सूरत मुस्कुरा रही है, विहंस रही है, चहक रही है, गुनगुना रही है। वह घंटों कल्पना के कैनवास पर प्रीति के चेहरे को निहारता रहा, चूमता रहा, मनाता रहा और न जानें कब वह उसी सुख स्वप्न में डुबकी लगाता चला गया।
सुवह सात बजे उसकी माँ उसे जगाई। वह हाथमुँह धोकर टेलीग्राम लेकर बैठ गया।
प्रिंसिपल ए०के० पटनायक का तार था। कुछ दिन पहले वे शोहदा के पास एक पुस्तक भेजे थे। पुस्तक का नाम था ‘भारतीय लोक संस्कृति में स्त्रियों की स्वतंत्रता’ उसी का जिक्र करते हुए शोहदा से निवेदन किए थे कि वह उक्त पुस्तक की समीक्षा लिखकर विश्वविद्यालय को भेज दे! पिछले महीने में ही राजधानी के हिंदी सभागार में उस पुस्तक का लोकार्पण किया गया था।
“लो अब मिल गया दिमाग का खुराक। अब इसी पर अपने दिमाग का ईंधन खर्च करते रहो।” वह बुदबुदाया।