अध्याय दो
हर लड़की जूलियट नहीं होती...
वे दिन शोहदा को आज भी याद है। जुलाई का महीना था। भयंकर गर्मी और तपिस से लोग व्याकुल थे। शाम उस वक्त की प्रायः बहुत सुहावनी होती है। शोहदा घुमने के ख्याल से नदी तट की ओर निकल पड़ा था क्षितिज की ओर ढलते सुर्य की रौशनी में नदी तट पर फैली अपार बालुका राशि सोने की भांति दमक रही थी। शोहदा किसी फिल्मी गीत की कड़ियां गुनगुनाता हुआ नदी तट पर ही एक पेड़ के झुरमुटों के नीचे बैठा हुआ था। मन प्रसन्न था। तभी उसकी नजर नदी के निर्मल जलधारा में स्नान करती तीन युवतियों पर पड़ा, उस लघु समूह में प्रीति भी थी, उसका सारा शरीर अनावृत था। शोहदा देखा तो उसका दिल फाख्ता हो गया। वह धीरे से बड़ी चपलता के साथ वृक्ष के मोटे तने के पीछे छुप गया और उन तीनों गौर वर्ण बालाओं को देखने लगा। उन तीनों में प्रीति ही बला की सौंदर्य लिए, स्वप्न्नपरी सी लग रही थी। और शोहदा अपनी उसी जलपरी को देखकर अपनी आँखो को सराबोर कर रहा था। दुबली पतली इकहरी बदन की सत्रह सावन काट चुकी प्रीति पेटीकोट और ब्रा में लिपटी जल किल्लोलें कर रही थी। पतली-पतली कोमल चिकनी टांगें, गोल सुगठित घुटने, दो मोटे मछलियों के समान चिकनी जांघें, हल्का नितम्भ, सीने पर छोटे-छोटे फूलवाले ब्रा के पीछे अविकसित और कचकचाते उरोज, काले और चमकीले मुलायम रेशमी बाल और सम्पूर्ण शरीर पर रूह आफजा। शोहदा के रोंगटे खड़े हो गए। वह उतेजना से सनसना उठा। मन मे भावनाएं टपकने लगी। देरों तक और बहुत करीब से देखता रहा। आँखों को तृप्त करता रहा। मन में विचार झनझनाया। देखने मे इतना तड़प है तो छू लेने में क्या गति होगी।
बाघ के बच्चे को जब एक बार इंसानी खून का चस्का लग जाय तो फिर उसे पाने के लिए इंसानों को मार डालता है। और इस देखने की क्रिया को शोहदा कई बार दुहरा चुका था। और जब भी देखता एक नए आकर्षण से भर जाता।
"सुनों तो...!" शोहदा जाती हुई प्रीति को आवाज लगाया। उसके आवाज में गंभीरता थी।
"बोलो क्या बात करना चाहते हो।" प्रीति एकदम पलटकर गुस्से में बोली।
शोहदा भावुक हो गया। मुहँ से बोल न निकले। वह तो रोज-रोज योजनाएं बनाता। नए-नए हथकंडे अपनाता, सिर्फ प्रीति से दो प्रेमभरी बात करने के लिए, उसका सानिध्य पाने के लिए, वह जानता था कि प्रीति से सीधे अपनी दिल की बात कहने के लिए अभी और इंतजार करना होगा, खूब सोच समझकर बात करना होगा, खूब मान करना होगा, लोगों से बचना होगा।
वह जानता था कि प्रीति उसके जीवन का अमर गीत, उसका अमुल्य प्यार, ईश्वर की ओर से उसका कीमती उपहार है। उसको पाने के लिए एक महान धैर्य की आवश्यकता है।
प्रीति लौट कर शांत स्वर में बोली---"बोलो तो...!
प्रीति की ऐसी सरलता पर शोहदा का हिम्मत बढ़ा। धैर्य के साथ बोला--- "मैं तुमसे दोस्ती करना चाहता हूँ।"
" क्यों...?" प्रीति शोहदा के चेहरे पर उतावलापन को बड़े गौर से देख रही थी।
शोहदा अटक गया, उसके मुख से आवाज न निकले, वह निरुत्तर प्रीति के चेहरे को देखने लगा।
"बोलो न क्यों करोगे दोस्ती!"
"क्यों? क्या दोस्ती नही कर सकता" शोहदा कुछ खीझ सा गया।
प्रीति सोचने लगी---विनती, प्रार्थना, एकालाप या प्रीति का उपहास, क्या था उसके शब्दों में।
"और कुछ.....या बस इतना ही.....!"
" प्रीति मैं तुम्हे चाहने लगा हूँ" जैसे शोहदा के सब्र का बांध टूट गया।
प्रीति खामोश और चुप ।
"तुम्हे अपनी परिणीता समझता हूँ ।"
प्रीति चुप और शांत ।
"तुम्हें पाकर मैं अपने जीवन की शून्यता को पाट देना चाहता हूँ।" वह निर्विकार भाव से कह रहा था।
प्रीति शांत और शून्य।
"अब भले ही तुम हमसे शादी मत करना, मैं अपने जीवन के संध्या काल तक तुम्हें अपना समझता रहूँगा, अपना हमसफ़र, अपने गीत का राग, अपनी शारदा, अपना प्यार और अपना सबकुछ।" कहते-कहते शोहदा अपने आप में इतना भावुक हो गया कि स्वयं उसे नहीं पता कि वह क्या-क्या बके जा रहा है और उसकी बातों को सुनने के लिए प्रीति वहाँ है भी या नहीं। प्रीति कब वहाँ से चली गई उसे स्वयं पता नहीं। वह तो भावनाओं के उन्माद में इतना बावला हो गया है कि उसे स्वयं पता नहीं है कि वह किस स्थिति में कहाँ पर खड़ा किस नाम की रट लगा रहा है। जुवान पर एक ही नाम है---'प्रीति।'
"अरे मूर्ख! किसकी माला जप रहे हो, यहाँ तो कोई है भी नहीं" किसी ने शोहदा को टोका।
वह पागलों की तरह इधर- उधर देखने लगा लेकिन प्रीति कहाँ थी? वह तो कब गायब हो गई उसे पता भी नहीं चला। कुछ दूर पर गाँव का ही एक युवक उसके इस हरकत पर दाँत निपोर रहा था। उसे लगा आज उसकी चोरी पकड़ ली गई, कहीं बदनामी न हो जाय। वह सिर पर पांव रखकर भागा, जैसे सैकड़ों भुत, एक साथ उसका पीछा कर रहा हो, शोहदा को अपने ऊपर क्रोध आ रहा था, अफसोस भी हो रहा था, डर भी रहा था। वह भावुक हो उठा। प्रीति उसके सपनो की राजकुमारी, अहा ! उसका दिल कितना दुखा होगा, वह अपने मन मे उसके लिए क्या सोचती होगी। 'कायर...बदमाश...' जैसे प्रीति की मोहनी सूरत सामने आकर दुत्कार रही हो। प्रीति उसे कितना नीच समझती होगी, कितना भीरु हृदय वाला। वह स्वयं को जैसे अपमानित महसुस करने लगा।
प्रीति उसके बातों का विरोध भी तो नहीं कर सकी। विरोध के अपेक्षाओं के विपरीत वह चुपचाप वहाँ से चली गई। विवश थी या मान चाहती थी। उस विवश और लाचार पथिक की तरह जो दुनियाँ से मिले जख्मों के दर्द को पीता हुआ बगैर अपनी बर्बादी का ढिंढोरा पीटता दुनियाँ से दूर एकांतवास की ओर प्रस्थान करता हो।
शोहदा को संशय होने लगा कि क्या प्रीति उसके जीवन मे आएगी और उसके जीवन धारा को गति प्रदान करेगी। उसने मन को समझाया, अगर प्रीति को पाना है तो अपने ऊपर नियंत्रण रखना सिखना होगा, धैर्य से काम लेना होगा, सबसे पहले प्रीति की भावनाओं को समझना होगा। कोई भी ऐसा बेहूदा प्रदर्शन जो उसे पसंद न आए, उसपर अंकुश लगाना होगा। शोहदा इसी उधेड़-बुन में पड़ा, भागता फिरता कहाँ पहुंच गया उसे स्वयं ही पता नहीं चला। चौका! जब सामने झाड़ियों से घिरी एक छोटी सी तलैया के किनारे प्रीति इत्मीनान से बैठी अपनी नंगी पावों को जल सतह पर झपका रही है।
शोहदा एक ऊंचे टीले की ओट में लेट गया और उस रोमान्स को देखने लगा। दुपट्टा सरक जाने से उसकी गर्दन अनावृत हो गई थी। शोहदा उसकी रेशमी गोलाइयों को नापता, पूरी उत्सुकता के साथ एक नए ब्रांड की बोतल की तरह पीता अपने नशे में भर रहा था। उसकी दृष्टि प्रीति के गले के नीचे अंदर तक समाता चला गया। जो कुछ अस्पष्ट था, कुछ अर्धनग्न और उसमें उसके दो अधपके कोमल और विकसित हो रहे उरोज का ख्याल शोहदा के मस्तिष्क को झनझनाहट से भर दिया। कितना स्वर्गिक आनंद की अनुभूति हो रहा था। और शोहदा बस देख भर सकता था ललचाई दृष्टि से, तरसता हुआ। उस भूखे प्यासे मुसाफिरों की तरह जो सामने के रेस्तरां में अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ को देख रहा है और खाने को तरस रहा है, लेकिन उसके जेब मे पैसे नहीं हैं ।
अचानक प्रीति वहाँ से उठ खड़ी हुई, जैसे जल के निर्मल सतह पर कोई आकृति को देख ली हो। पलटी और शोहदा से उसकी आंखें चार हुई। शोहदा हड़बड़ा गया।
"क्या चाहते हो।" प्रीति तेज आवाज में बोली।
प्रीति के अचानक पूछे गए प्रश्न पर शोहदा हड़बड़ा कर रह गया । वह अपना कंठ सूखता हुआ महसूस करने लगा।
" निर्लजों की तरह मेरा पीछा क्यों कर रहे हो। मेरे जैसा और न मिला तुम्हे" वह गुस्से में दाँत पिसती हुई बोली।
शोहदा मन ही मन मुग्ध हुआ प्रीति के झुंझलाहट पर, भय भी हुआ लेकिन बोल ही दिया---"हर लड़की जूलियट नहीं होती।"
"तुम्हे शर्म नहीं आता मेरा अपमान करते हुए जो अकेले पाकर तुम...."
किन्तु शोहदा उसकी बात बीच मे ही काट दिया।
"अपमान! माफ करो प्रीति....! जो कहा उसके लिए मैं बड़ा शर्मिंदा हूँ, दिल ही है न, चित नित्य नए आकर्षण और युवा मादक स्नेह सुगंध से महकने के लिए लालायित रहता है, इसीलिए मैं तुम्हे हर पल निहारता रहता हूँ। करीब से देखना चाहता हूँ । प्यार का जो जज्बा मेरे दिल में है तुम्हारे लिए उसे सहेजना चाहता हूँ। सजाना चाहता हूँ। किसी को चाहना, पाने के लिए विकल होना, सपने देखना क्या पाप है? प्रीति...! बाग में खिले कलियों को देखना या देखकर तृप्त होना क्या निर्लज्जता है ? तुम्हे देख लेने से, तुम्हारी कल्पना कर लेने से, तुम्हारा कोई नुकसान होता है। आज तक भावनाएं किसके वस में हुए हैं, मधुर ख्याल किसके मन में नहीं आता, विचार कब साथ छोड़ता है, जिसे मैं अपना आराधना माना, पुजा किया, उसके साथ मैं कभी अनुचित व्यवहार कर सकता हूँ भला, हर्गिज़ नहीं" इतना सुन लो मैं तुम्हे हर पल याद करूँगा भावुकता के क्षणों में, मैं तुम्हें अपनी सांसों में बसाउंगा, इससे तुम्हे क्या आपत्ति हो सकती है।" फिर वह प्रीति के प्रतिक्रिया जाने वगैर तेज रफ्तार के साथ वहाँ से चल दिया।
और प्रीति क्या वह खुश थी। नहीं-नहीं शोहदा के पिछले वाक्य ने उसके सारे शरीर को सनसनाहट से भर दिया, वह कोमल शाखा की तरह लहरा उठी। कितने अधिकार के साथ और किस निर्भीकता के साथ शोहदा अपनी बात को कह कर चला गया। फिर किसी की भावनाओं, चाहतों, और सपनों पर क्या वह अंकुश लगा सकती है। उसे हक ही क्या है। कोई आता जाता मुसाफिर उसे देख कर आनन्दित हो जाए, रोमांचित हो जाए, तो क्या उसे वह मना कर सकती है। सपने देखना, भावनाओं का जागना ये भी तो विराट जिंदगी के ही अंग है, जो प्रकृति प्रदत्त है। ईश्वर की ओर से दिया गया तोहफा है। यह तो उसे अहसास है कि जब कोई उसे देखकर हर्षित होता है, तो उसे भी आनंद की अनुभूति होती है। अपने सौंदर्य की वाहवाही होते देख इतराती है, इठलाती है, मन ही मन मुस्काती है।
शोहदा के पिछले कई मुलाकातों से वह स्वयं में बहुत तरह के परिवर्तन होते महसूस की है। उसकी भावनाएं जागी है, और आनंद से तरंगित हुई है। वह स्वयं महसूस कर रही है कि पिछले कई दिनों से उसके अंदर एक आग सी सुलग रही है और आज की टकराहट ने तो उस आग के नीचे दबी चिंगारी को और भी तेज और प्रज्वलित कर दिया।
शाम रात में बदलने लगा। आकाश की ओर बढ़ता हुआ चाँद कभी-कभी बादलों से लुकछिप कर मुस्कुरा देता है । हवा के कभी तेज बहने से कभी कभी झाड़ियों के पत्ते आपस मे टकराकर एक शोर उत्पन्न कर रहा है। और प्रीति के मन मे द्वन्द मचा है। भावनाएं, इच्छाएं, और विचारों की स्वीकारोक्ति और अस्वीकार का द्वन्द । बचपन को पार कर यौवन की दहलीज पर कदम रख चुकी प्रीति को अस्तित्व का कड़वा-मीठा रस एक अनजान धारा में बहाए जा रहा है।
...........क्रमश:..........
अगले अंको में जारी.....
©सुरेन्द्र प्रजापति
गया, बिहार