अध्याय चार
मुझे मेरे पिता से मांग लो
‘प्रीति...; प्रीति को लगा जैसे किसी ने उसे आवाज दिया हो। वह अचरज से इधर उधर देखने लगी। रात्रि के नौ बजे रहे थे। आसपास कोई नहीं था वह विस्तर पर बैठी एक किताब के पन्ने को पलट रही थी। फिर उसने सोचा यह मेरा वहम है। उसे अचानक शाम की घटना याद हो आई और चलचित्र की तरह आंखों के सामने चलने लगी।
शोहदा जो उससे अपने जीवन की अपेक्षाएं रखता है, उसका सपना देखता है, उसको लेकर नित्य नई कल्पनाएं करता है, उसे पाना चाहता है क्यों? और वह उस वक्त गुस्से से तिलमिला उठी थी। ऐसा क्या था उसमें, कौन सा आकर्षण था जिसने शोहदा को दृढ़ बना दिया था, क्या शोहदा उसके स्त्रीत्व का मजाक उड़ाया था। फिर शोहदा उससे माफी क्यों मांगा ! क्या शोहदा का हृदय निश्छल है।
फिर उसके आंखों के सामने शोहदा का सजीव तस्वीर साकार हो उठा। शोहदा का उदास मुखड़ा, उसका भोलापन, पुनः अगले पल आनंद से मुस्कुराते उसके होंठ।
प्रीति व्यथित हो उठी। वह इतना तो जान चुकी थी कि शोहदा उसके प्यार का आकांक्षी है। उसके शब्दों में वह उसकी शारदा है। उसे फिर संशय हुआ....शोहदा का प्रेम एक छलावा तो नहीं है, या उसका प्रेम निमंत्रण सच्चा है। उसका आकर्षण शरीर सुख है या.....। और वह स्वयं शोहदा को कहां तक पसंद करती है। वह उसके जीवन मे प्रवेश कर उसका जीवन संगिनी बन सकती है। फिर क्या उसके पिता इस संबंध को कबुल करेंगे?
भारतीय समाज मे स्त्रियां एक निश्चित सीमा रेखा तक ही आजाद होती है। उसकी इच्छाएं, अभिलाषाएं सुप्त होती है। जब उसके माता पिता उसके शादी के पवित्र रिश्ते के बंधन में बांध देते हैं तब वह अपने भावी पति के साथ अपने अधिकारों को जीती है, मंथन करती है। फिर भी उसका सतीत्व और नारीत्व जीवन पर्यंत उसके साथ उसकी अमुल्य धरोहर होती है। पुरुष प्रधान समाज अपनी स्त्री पर अपने तरीके से प्रेम प्रदर्शन करता है। कभी उसकी भावनाओं से खिलवाड़ भी करता रहता है। वह अपनी मर्जी से अपनी जीवन संगिनी का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र होता है, लेकिन स्त्रियां जब अपना प्रेम प्रदर्शन किसी दूसरे पुरुष से करती है, तब वह चरित्रहीन कहलाती है और वह अपने घर समाज के लिए कोप भाजन की वस्तु बन कर रह जाती है, यहां तक कि वह अपने मन मुताबिक सुख साधनों का उपयोग भी नहीं कर पाती। अपनी भावनाओं को उजागर कर जीवन शैली जीने का अधिकार उसे नहीं है। हाँ कभी-कभी वह किसी पर पुरुष के आकर्षण पर उसे अपनी अंतरात्मा में ही जीती रहती है और अपने सुखद भविष्य की कल्पना करती हुई अपने इष्टदेव से दुहाई मांगती है।
दुसरे दिन प्रीति अपने घर के सामने वाले बगीचे में एक बेंच पर बैठी धुप सेक रही थी। सुवह का समय था। अचानक प्रीति की नजर बगीचे के दूसरे छोर पर बैठे शोहदा पर पड़ी। शोहदा एक मैगजीन में उलझ हुआ था। पता नहीं प्रीति के अंतर में कौन सी भावना जागृत हुई की वह कौतूहल नेत्रों से शोहदा को देखने लगी, और उसके पैर अपने आप उस दिशा में बढ़ते चले गए जहां शोहदा बैठा हुआ था। शोहदा आगे की ओर सिर झुकाए बैठा था, प्रीति का आना न जान सका। प्रीति चुपचाप जाकर उसके पीछे खड़ी हो गई। उसे शोहदा पर सहानुभूति हुई, वह बड़ी चपलता से शोहदा के बिल्कुल समीप जाकर उसपर झुकती चली गई।
युवा देह की मादक स्नेह की महक...शोहदा महसुस किया और झनझना कर रह गया। और तबतक उसके हाथों की मैगजीन प्रीति झपट ली।
शोहदा मुड़कर देखा तो प्रीति मंद-मंद मुस्कुरा रही है, जैसे अचानक उसके समीप चाँद मुस्कुराया हो। जैसे बहुत सारे रंग विरंगे फूलों की खुशबू एक साथ आई और उसके सम्पूर्ण शरीर पर न्योछावर कर दी हो। वह कुछ अचरज और कौतूहल नेत्रों से प्रीति को देखने लगा। कुछ आश्चर्य से, कुछ भय से, विष्मय भी हुआ कि प्रीति में अचानक यह बदलाव हुआ कैसे ! उसने सोचा---भावनाएं और परिस्थितियां इंसान को किस चौराहे पर ले जाता है, किस मंजिल को तय करता है, मादक देह की सावन की यह संगीतमय बौछार उसके जीवन को कहाँ तक भिंगोएगा।
“प्रीति!" आगे उसका कंठ सुख गया। होंठ थरथराने लगा।
जैसे हवा के हल्के झोंके पाकर आग के नीचे दबी चिंगारियां जागृत हो जाती है, शस्त्र पाकर कोई सैनिक धैर्य और हिम्मत के साथ बढ़ता है, और उसके अंतर में देश की अस्मिता कि आदर्श चिंगारी जाग उठता है, वैसे ही प्रीति को इतने करीब पाकर शोहदा का उन्माद जाग उठा। वह आनंद की धारा में बहने लगा। उसका दृष्टि प्रीति के रेशमी शरीर के उतार चढावों को बड़े ही सतर्कता के साथ देखने लगा। वस्त्र के भीतर छुपे हुए अंगों को जो नग्न भी था, अर्धनग्न भी, अपनी कल्पना में उसका रेखाचित्र खींचने लगा। कितना आनंदित हो रहा था वह। रोमांस से जैसे उसके शरीर के एक-एक अंग का एक-एक अनु जगमगा उठा। सतर्क भी था कि कहीं प्रीति उसकी कुदृष्टि को ताड न ले।
“तुम्हारे होंठ क्यों कांप रहे हैं” प्रीति हंसते हुए बोली।
शोहदा झेंप सा गया। वास्तव में उसके होंठ कांप रहे थे। इतना अधिक जो आनन्द पाया था। वह लज्जा से आतुर हो उठा।
प्रीति गंभीर हो गई , शोहदा के चेहरे को ध्यान से देखती हुई बोली---”कहां खो जाते भी, किसी के चाहत में इतना पागल हो जाना समझदारी तो नहीं है। तुम कैसे दीवाने हो कि अपने आप को भूल जाते हो। शोहदा, लड़कियों की कुछ अपनी मर्यादाएं होती है, मैं उस मर्यादा को तोड़ कर अपने कुल को दागदार नहीं बनाउंगी। यदि वास्तव में तुम मुझे पाना चाहते हो ,मुझे जीवन संगिनी बनाना चाहते हो, मुझे अपनाकर अपने जीवन की मंजिल तय करना चाहते हो, तो मुझे मेरे पिता से मांग लो।
कुछ लज्जा, कुछ संकोच से शोहदा भर उठा। एक अज्ञात भय से उसका मुखड़ा मलिन पड़ गया। शंकित स्वर में प्रीति से पूछ लिया---”क्या तुम्हारे पिता राजी हो जाएंगे।"
प्रीति को विष्मय हुआ, फिर हंसकर बोली---”फिर मेरे राजी होने से क्या होगा। मुझे अपनी संगिनी बनाने की बात करते हो और इतनी सीधी सी बात भी पिताजी से कहने में डरते हो।
शोहदा एक पल को सोचने लगा फिर धीरे से बोला---”ठीक है मैं तुम्हारे पिताजी के पास जाऊँगा, उनसे बात करूंगा! अपनी माँ को भी बताऊंगा।“
“देखती हूँ तुम्हारा प्यार , तुम्हारा विश्वास, तुम्हारी भावनाएं कितना सबल और सार्थक है।“ कहकर प्रीति धीरे से मुस्कुराई, फिर अपने घर की ओर चल दी। चलते हुए प्रीति सोच रही थी---शोहदा का प्रेम मात्र एक आकर्षण है, छलावा या शरीर पाने का सुख।