श्रीवामनपुराण - अध्याय ६०
नारदने कहा ( पूछा ) - आप मुझे यह बतलायें कि शङ्कर कहाँ चले गये थे, जिससे नन्दिसहित अम्बिकाने अन्धकसे ( स्वयं ) युद्ध किया ॥१॥
पुलस्त्यजी बोले - वे ( शंकरजी ) जिस समय एक हजार वर्षतक महामोहमें पड़ गये थे, उस समयसे वे तेजरहित एवं शक्तिहीन - से दिखायी दे रहे थे । मतिमानोंमें श्रेष्ठ महेश्वरने स्वयं अपने अङ्गोंको निस्तेज देखकर तप करनेके लिये निश्चय किया । उन व्यापक शङ्करने महाव्रतका निर्णय करनेके बाद अम्बिकाको धैर्य धारण कराया और वे शैल आदि ( नन्दी ) - को उनकी रक्षाके लिये नियुक्त कर पृथ्वीपर विचरण करने लगे । उन्होंने गलेमें तन्त्रानुसार महामुद्रा पहन ली । महासर्पोंके कुण्डल एवं कमरमें महाशङ्खकी मेखला धारण कर ली ॥२ - ५॥
दाहिने हाथमें कपाल एवं बायें हाथमें कमण्डलु लेकर वे वृक्षोंके नीचे ( कभी ) पड़े रहते, कभी पहाड़ोंकी चोटियोंपर तथा नदियोंके तटपर चक्कर लगाते रहते । प्रथम ( आरम्भमें ) मूल - फल खाकर फिर जल पीकर, उसके बाद वायु पीकर ( यम - नियमका ) व्रत पालन करनेवाले उन्होंने क्रमशः तीनों लोकोंमें नौ सौ वर्ष व्यतीत किये । उसके बाद उन्होंने हिमालयके ऊपर रमणीय तथा समतल पर्वतीय चट्टानपर आसन लगा लिया और अपने मुखमें काष्ठकी बनी गुल्ली डालकर श्वास रोक लिया - कुम्भक प्राणायाम कर लिया । उसके बाद शंकरके कपालको फोड़कर ज्वालामयी वह गुल्ली ( उनकी ) जटाके बीचसे निकलकर पृथ्वीपर गिर पड़ी ॥६ - ९॥
उस गुल्लीके गिरनेसे पर्वत टूट - फूटकर पृथ्वीके समान ( समतल ) हो गया और वहाँ केदार नामका प्रसिद्ध तीर्थ बन गया । ब्रह्मन् ! उसके बाद वृषध्वज महादेवने केदारको पुण्यकी वृद्धि करनेवाले एवं पापके विनाश करनेवाले और मोक्षके साधनका वर दिया तथा यह भी वर दिया कि जो संयमी मनुष्य परान्नभोजनको त्यागकर तथ ब्रह्मचर्यव्रत धारणकर तुम्हारा जल पीते हुए यहाँ छः महीनेतक निवास करेंगे उनके हदयकमलमें निश्चय ही मेरे लिङ्गकी सत्ता प्रत्यक्ष प्रकट होगी ॥१० - १३॥
उन्हें कभी पापमें अभिरुचि नहीं होगी तथा उनसे किया गया पितरोंका श्राद्ध अक्षय होगा - इसमें कोई सन्देह नहीं हैं । मनुष्योंद्वारा यहाँ की गयी स्त्रान, दान, तपस्या, होम एवं जप आदिकी क्रियाएँ अक्षय होंगी तथा इस स्थानपर मनुष्योंके मरनेपर उनका पुनर्जन्म नहीं होगा । महादेवसे इस प्रकारका वर पाकर वह केदारतीर्थ त्रिनेत्र महादेवके वचनके अनुकूल प्राणिवर्गको पवित्र एवं देवताओंका पोषण करने लगा । केदारतीर्थको वर देकर महादेव पापविनाशिनी रवितनया देवी कालिन्दी ( यमुना ) - में स्त्रान करनेके लिये शीघ्र चले गये ॥१४ - १७॥
वहाँ स्त्रान करके पवित्र होकर भगवान् शंकर सैकड़ों पवित्र तीर्थोंसे घिरी ( वृत्त ) और प्लक्षवृक्षसे उत्त्पन्न पापनाशिनी सरस्वतीके निकट गये । उसके बाद वे स्त्रान करनेके लिये उसमें उतरे एवं अगाध जलमें भलीभाँति स्त्रान कर द्रुपदा गायत्रीका जप करने गे । कलिप्रिय ! देवी सरस्वतीके जलमें शङ्करको डुबकी लगाये हुए एक वर्षसे अधिक बीत गया; परंतु भगवान् ऊपर नहीं उठे । ब्रह्मन् ! उस समय समुद्रोंसहित सातों भुवन काँपने लगे और ताराओंके साथ नक्षत्र ( टूट - टूटकर ) भूतलपर गिरने लगे ॥१८ - २१॥
इन्द्र प्रमुख हैं जिनमें, ऐसे देवता अपने - अपने आसनोंसे उचक पड़े और महर्षिगण ' संसारका कल्याण हो ' - इस भावनासे जप करने लगे । तत्पश्चात् जगतके अशान्त होकर क्यों सन्देहके झोंके खा रहा है ? कमलयोनि ब्रह्माने उनसे कहा - मैं इसके कारणको नहीं जान पा रहा हूँ । तुम लोग जाओ, ( इसके लिये ) चक्र - गदाधारी विष्णुका दर्शन करना उचित है । पितामहके इस प्रकार कहनेपर इन्द्र आदि सभी देवता पितामहको आगे कर मुरारिलोक ( विष्णुलोक ) - में गये ॥२२ - २५॥
नारदने पूछा - देवर्षे ! आप यह बतलायें कि ये मुरारि कौन हैं ? ये देवता हैं या यक्ष, किन्नर हैं या दैत्य, राक्षस हैं या मनुष्य ? ॥२६॥
पुलस्त्यजीने कहा - देवताओ ! जो ये मुरारि हैं वे मधु नामके राक्षसके विनाशकारी हैं; वे सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणसे युक्त हैं, निर्गुण और सगुण हैं; सर्वगामी और सर्वव्यापी हैं ॥२७॥
नारदने ( पुलस्त्यजीसे ) पूछा - आप मुझे यह बतलायें कि यह मुर - नामधारी दानव किसका पुत्र है और लड़ाईके मैदानमें भगवान् विष्णुने उसे किस प्रकार मारा ? ॥२८॥
पुलस्त्यजी बोले - नारद ! मुर असुरके विनाशकी कथा अद्भुत हैं; वह पापका विनाश करनेवाली और पवित्रकारिणी है; मैं उसे कहूँगा; तुम सुनो । दनुकी कोखसे कश्यपका औरस पुत्र मुर उत्पन्न हुआ । उसने श्रेष्ठ देवोंद्वारा संग्राममें दैत्योंको पराजित देखा । उसके बाद मृत्युसे भयभीत होकर बहुत वर्षोंतक तपस्या करते हुए व्यापक अजेय ब्रह्माकी कहा - वत्स ! वर माँगो । उस दैत्यने पितामहसे यह श्रेष्ठ वर माँगा ॥२९ - ३२॥
विभो ! युद्धमें मैं जिसे हाथसे छू दूँ वह मेरे हाथसे छूते ही अमर ( देवता ) होनेपर भी मृत्युको प्राप्त हो जाय । लोकपितामह भगवान् ब्रह्माने कहा - बहुत ठीक; ऐसा ही होगा । उसके बाद महातेजस्वी बलशाली मुर देवगिरिपर जा पहुँचा । [ पुलस्त्यजी कहते हैं कि ] नारदजी ! वहाँ पहुँचकर उसने देवता, यक्ष, किन्नर आदिको युद्धके लिये ललकारा, किंतु किसीने भी उसके साथ युद्ध नहीं किया । उसके बाद क्रुद्ध होकर वह अमरावतीकी ओर चला गया और इन्द्रको संग्राम करनेके लिये ललकारने लगा । किंतु इन्द्रने भी उसके साथ युद्ध करनेका विचार नहीं किया ॥३३ - ३६॥
उसके बाद हाथ उठाये हुए उसने अमरावतीमें प्रवेश किया । परंतु किसीने भी प्रवेश करते हुए उसको रोकनेका साहस नहीं किया । उसके बाद इन्द्रके भवनमें जाकर मुरने इन्द्रसे कहा - सहस्त्राक्ष ! मुझसे संग्राम करो, अन्यथा स्वर्गको छोड़ दो । ब्रह्मन् ! मुरके इस प्रकार कहनेपर इन्द्र ( युद्ध न कर ) स्वर्गका राज्य छोड़कर पृथ्वीपर विचरण करने लगे । उसके बाद ( उस ) शत्रुने इन्द्रके गजराज ( ऐरावत ) और वज्रको छीन लिया । महातेजस्वी इन्द्र अपनी पत्नी, पुत्र और देवताओंके साथ कालिन्दीके दक्षिण तटपर अपना नगर बसाकर रहने लगे और मुर स्वर्गमें रहते हुए महान् भोगोंका उपभोग करने लगा ॥३७ - ४१॥
मय और तारक आदि दूसरे भयङ्कर दानव भी मुरके निकट पहुँचकर स्वर्गमें पुण्यात्माओंके समान आमोद - प्रमोद करने लगे । वह महान् असुर किसी समय पृथ्वीपर आया और अकेला ही हाथीपर चढ़कर सरयू नदीके तटपर उपस्थित हुआ । उसने सरयूके किनारे सूर्यवंशमे उत्पन्न हुए एवं यज्ञकर्ममें दीक्षित रघु नामके राजाको देखा । उनके पास जाकर उस दैत्यने कहा - मुझसे संग्राम करो, नहीं तो यज्ञ करना बंद कर दो । तुम देवताओंकी पूजा नहीं कर सकते ॥४२ - ४५॥
ब्रह्मन् ! मित्रावरुणके पुत्र महातेजस्वी, बुद्धिमान् और तपस्वियोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठने उस दैत्यके पास जाकर कहा - दैत्य ! मनुष्योंको जीत लेनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा ? जो नहीं जीते गये हैं उनको पराजित करो । यदि तुम ( चढ़ाई कर ) प्रहार करना चाहते हो तो उन यमराजका अवरोध करो । महासुर ! वे बलशाली हैं । तुम्हारा शासन नहीं मानते । उनको जीत लेनेपर समस्त भूतलको पराजित हुआ समझो । वसिष्ठका वह वचन सुनकर दानवश्रेष्ठ दण्ड धारण करनेवाले धर्मराजको जीतनेके लिये चल पड़ा ॥४६ - ४९॥
उसे आता हुआ सुनकर तथा संग्राममें वह अवध्य है - ऐसा विचारकर वे यमराज महिषपर सवार होकर भगवान् केशवके पास चले गये । उनके पास जाकर प्रणाम करनेके पश्चात् ( यमराजने ) मुरके कृत्योंको बताया । उन्होंने कहा - तुम जाकर अभी उस महासुरको मेरे पास भेज दो । वासुदेवके वचनको सुनकर वे शीघ्र चले आये । इतनेमें मुर दैत्य उनकी नगरीमें आया । उसके आनेपर यमने कहा - हे मुर ! बतलाओ तुम क्या करना चाहते हो ? दानवेश्वर ! मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करुँगा ॥५० - ५३॥
मुरु या मुरने कहा - यम ! तुम प्रजाओंके ऊपर नियन्त्रण करना बंद कर दो, नहीं तो मैं तुम्हारा सिर काटकर पृथ्वीपर फेंक दूँगा । ब्रह्मन् ! धर्मराजने उससे कहा - यदि तुम मेरे ऊपर संयम करनेवालेसे मेरी रक्षा कर सको तो मैं सत्य कहता हूँ कि तुम्हारे वचनका पालन करुँगा । मुरने उनसे कहा - मुझे बतलाओ कि तुम्हारा संयन्ता ( शासक ) कौन है ? मैं निस्सन्देह उसे पराजित कर रोक दूँगा । यमने उससे कहा - जो श्वेतद्वीपके निवासी, चक्र - गदा धारण करनेवाले, अविनाशी भगवान् विष्णु हैं, वे ही मुझे शासित करते हैं ॥५४ - ५७॥
दैत्योंमें श्रेष्ठ मुरने यमराजसे कहा - यम ! वह कहाँ रहता है, जिसे कठिनतासे जीता जा सकता है ? उसका संयमन करनेके लिये मैं तैयार होकर वहाँ स्वयं जाऊँगा । यमराजने उससे कहा - तुम क्षीरसागरमें जाओ । वहाँ लोकस्वामी जगन्न्मूर्ति भगवान् विष्णु रहते हैं । मुरने उनकी बात सुनकर कहा - धर्मराज ! मैं केशवके पास जा रहा हूँ , परतु तुम तबतक मनुष्योंका नियमन मत करना । उस ( मुर ) - ने कहा - तुम जाओ । तबतक मैं तुम्हारे नियमकको जैसे भी हो जीतनेका प्रयत्न करुँगा । उसके बाद तुम युद्ध करना । इतना कहकर मुरु या मुर दैत्य क्षीरसागरमें जा पहुँचा । वहाँ ( जाकर उसने देखा कि ) चतुर्भुजाधारी जनार्दन अनन्त नागकी शय्यापर ( पड़े हुए ) हैं ॥५८ - ६२॥
नारदजीने पूछा - आप ( कृपया ) यह बतलायें कि विष्णु एक होनेपर भी चतुर्मूर्ति क्यों कहे जाते हैं । क्या सर्वगत एवं अव्यक्त होनेके कारण तो नहीं कहा जाता ? ( आप ) उसे कहें ॥६३॥
पुलस्त्यजी बोले - ब्रह्मन् ! अव्यक्त एवं सर्वव्यापी होनेपर भी वे एक ही हैं । जिस कारणसे जगन्नाथ चतुर्मूर्ति कहे जाते हैं, उसे बताता हूँ, सुनो । वासुदेव नामक श्रेष्ठ पद ( तर्क या अनुमानद्वारा अज्ञेय ) एवं निर्देश किये जानेमें अशक्य, शुक्ल ( शुद्ध ), शान्तियुक्त, अव्यक्त ( अप्रकट ) एवं द्वादशपत्रक ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय - ) द्वादशाक्षर मन्त्रवाला कहा गया है ॥६४ - ६५॥
नारदजीने पुनः पूछा - किस प्रकार वे शुक्ल, शान्त, अप्रतर्क्य एवं अनिन्दित हैं ? मुझे बतलाइये कि उनके कथित द्वादशपत्रक कौन हैं ॥६६॥
पुलस्त्यजी बोले - पितामह ब्रह्माने जिस परम गुह्य वचनको कहा है, उसे सुनिये । सनत्कुमारने उसे सुना था और उन्होंने मुझसे कहा था ॥६७॥
नारदजीने फिर कहा - इस विषयमें स्वयं ब्रह्माने जिनसे कहा है, वे सनत्कुमार कौन हैं ? और उन्होंने भी आपसे जो कहा है उसे क्रमशः मुझसे कहें ॥६८॥
पुलस्त्यजी बोले - धर्मकी पत्नी अहिंसा है । उससे चार पुत्र हुए । मुनिश्रेष्ठ ! वे सभी योगशास्त्रके विचार करनेमें कुशल थे । उनमें सनत्कुमार ज्येष्ठ, सनातन द्वितीय, सनक तृतीय एवं चतुर्थ सनन्दन हुए । वे सभी सांख्यवेत्ता कपिल, वोढु, आसुरी एवं योगसे युक्त तपोनिधि श्रेष्ठ पञ्चशिख नामक ( ऋषि ) - को देखकर ( उनके पास गये ) । बड़े होनेपर भी उन लोगोंने अपनेसे छोटोंको ज्ञानयोगका उपदेश नहीं दिया । कपिल आदिकी उपासना करनेवालोंको महायोगका परिमाणमात्र बतला दिया । सनत्कुमारने कमलोद्भव ब्रह्माके पास जाकर योग - विज्ञान पूछा । प्रजापतिने उनसे कहा ॥६९ - ७३॥
ब्रह्माने कहा - साध्य ! यदि तुम पुत्र होना चाहो तो मैं तुमसे कहूँगा । उसे जिस - किसीसे नहीं कहना चाहिये; क्योंकि यह सत्य है, अन्यथा नहीं है ॥७४॥
सनत्कुमारने कहा - देवेश ! मैं पुत्र ही हूँ; क्योंकि विभो ! मैं शिष्य हूँ । पितामह ! पुत्र और शिष्यमें कोई भेद नहीं होता ॥७५॥
ब्रह्माने कहा - धर्मनन्दन ! शिष्य और पुत्रमें धर्म - कर्मके संयोगमें ( जो ) कुछ भेद होता है उसे बताता हूँ, मुझसे सुनो । यह वैदिकी श्रुति है - जो ' पुम् ' नामक नरकसे उद्धार कर देता है उसे ' पुत्र ' कहा जाता है और शेष पापोंका हरण करनेवाला होनेसे ' शिष्य ' कहा जाता है ( - यही दोनोंमें भेद है ) ॥७६ - ७७॥
सनत्कुमारने कहा ( पूछा ) - देव ! वह ' पुम् ' नामक नरक कौन है ? जिस नरकसे पुत्र रक्षा करता है और शिष्य किससे अवशिष्ट पापका हरण करता है; आप कृपया इन्हें बतलाइये ॥७८॥
ब्रह्माने कहा - महर्षे ! मैं तुमको अत्यन्त प्राचीन, योगाङ्गसे युक्त, उग्र भय दूर करनेवाली परम पवित्र कथा सुनता हूँ । हे साध्य ! तुम इसे सुनो ॥७९॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें साठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥६०॥