श्रीवामनपुराण - अध्याय ५७
नारदजीने पूछा - दृढ़तासे व्रतका सुपालन करनेवाले अमित तेजस्वी ब्रह्मन् ! आप मुझे विस्तारस्से यह बतलाइये कि स्कन्दने महिषके सहित क्रौञ्चको किस प्रकार मारा ? ॥१॥
पुलस्त्यजी बोले - नारद ! सुनो, मैं कीर्तिको बढ़ानेवाली कुमार कार्तिकेयकी पवित्र प्राचीन कथा कहता हूँ । ब्रह्मन् ! अग्निने शङ्करके उस च्युत शुक्रका पान कर लिया था । उससे ग्रस्त होनेके कारण अग्निका तेज फीका हो गया । उसके बाद अत्यन्त तेजस्वी अग्नि देवताओंके निकट गये । फिर उन देवोंके भेजे जानेपर वे शीघ्र ही ब्रह्मलोक चले गये । मार्गमें जाते हुए अग्निने कुटिला नामकी देवीको देखा । उसको देखकर अग्निके कहा - कुटिले ! इस तेजको धारण करना कठिन हैं ॥२ - ५॥
शङ्करके द्वारा त्यागा गया ( यह तेज समस्त ) लोकोंको दग्ध कर देगा, अतः तुम इसे ग्रहण कर लो । इससे तुम्हें एक भाग्यशाली पुत्र होगा । अग्निके इस प्रकार कहनेपर अपने उत्तम मनोरथका स्मरणकर महानदी कुटिलाने अग्निसे कहा - इसे मेरे जलमें छोड़ दें । ( ऐसा करनेपर ) उसके बाद वह देवी शङ्करके तेजको ग्रहणकर उसका पालन - पोषण करने लगी । भगवान् अग्निदेव भी इच्छाके अनुसार विचरण करने लगे । अग्निने उस तेजको पाँच हजार वर्षोंतक धारण किया था । इसलिये अग्निके मांस, हड्डी, रक्त, मेदा, आँत, रेतस, त्वचा, रोम, दाढ़ी - मूँछ, नेत्र एवं केश आदि सभी सुवर्णमय बन गये । इसीसे संसारमें अग्निको ' हिरण्यरेता ' कहा जाने लगा ॥६ - १०॥
तब अग्निके समान उस गर्भको पाँच हजार वर्षोंतक धारण करती हुई कुटिला ब्रह्माके स्थानपर गयी । कमलजन्मा ब्रह्माने उस महानदीको सन्तप्त होती देखकर पूछा - तुम्हारा यह गर्भ किसके द्वारा स्थापित है ? उसने उत्तर दिया - सत्तम ! अग्निने पिये हुए शङ्करके उस शुक्रको अपनेमें धारण करनेकी शक्ति न होनेके कारण मुझमेंख त्याग दिया । पितामह ! गर्भ धारण किये हुए मेरा पाँच हजार वर्षका समय बीत गयाः परंतु किसी प्रकार यह बाहर नहीं निकल रहा है ॥११ - १४॥
उसको सुनकर भगवान् ब्रह्माने कहा - तुम उदयाचलपर जाओ । वहाँपर सौ योजनमें फैला हुआ सरपतोंका विशाल घनघोर वन है । अयि सुन्दर कटिवाली ! उस विस्तृत पर्वतकी ऊँची चोटीपर इसे छोड़ दो । यह दस हजार वर्षोंके बाद बालक हो जायगा । ब्रह्माकी बात सुननेके बाद वह गिरिनन्दिनी सुन्दरी पर्वतपर गयी एवं मुखसे ही ( उसने ) गर्भका परित्याग कर दिया । वह उस ( जन्म लेनेवाले ) बालकको छोड़कर शीघ्र ही ब्रह्माके समीप चली गयी । सती कुटिला मन्त्र ( शाप ) - के कारण जलरुपमें हो गयी ॥१५ - १८॥
शङ्करके तेजसे वह विशाल सरपतोंका वन सुवर्णमय बन गया । उस वनमें रहनेवाले वृक्ष, मृग एवं पक्षी भी सुवर्णमय हो गये । उसके बाद दस हजार वर्षोंके बीत जानेपर उगते हुए बाल सूर्यके सदृश दीप्तिमान् तथा कमलके समान आँखोंवाला बालक उत्पन्न हुआ । उस दिव्य सरपतके वनमें उतान सोये हुए भगवान् कुमार अपने मुखमें अपना अंगूठा डालकर बादलकी ध्वनिके समान अस्पष्ट ध्वनिमें रोने लगे । इसी बीच स्वेच्छासे जाती हुई दिव्य तेजस्विनी छहों कृत्तिकाओंने सरपतके वनमें स्थित उस बालकको देखा ॥१९ - २२॥
ये कृतिकाएँ दयापूर्वक वहाँ गयीं जहाँ कुमार स्कन्द थे । उन्हें दूध पिलानेके लिये वे आपसमें ' हम पहले, हम पहले ' ( पिलायेंगी - ) कहकह विवाद करने लगीं । उन्हें आपसमें विवाद करती हुई देखकर वह कुमार षण्मुख ( छह मुखवाले ) बन गये । फिर तो उन ( छहों ) कृत्तिकाओंने प्रेमपूर्वक बच्चेका पोषण किया । मुने ! उनके द्वारा रक्षित होकर वह शिशु बड़ा हुआ । वह बलवानोंमें श्रेष्ठ कार्तिकेय नामसे प्रसिद्ध हुआ । ब्रह्मन् ! इसी बीच ब्रह्माने अग्निसे प्रश्न किया कि अग्निदेव ! तुम्हारा पुत्र गुह ( कार्तिकेय ) इस समय कितना बड़ा हुआ है ? ॥२३ - २६॥
ब्रह्माके प्रश्नको सुनकर अग्निने शङ्करके उस पुत्रको न जाननेके कारण उत्तरमें कहा - देवेश ! मैं पुत्रको नहीं जानताह कौन - सा गुह हैं ? भगवानने उनसे कहा - त्रिलोकेश ! पूर्वकालमें तुमने शङ्करका जो तेज पी लिया था, वह शरवण ( सरपतके वन ) - में शिशुरुपसे उत्पन्न हुआ है । पितामहका वचन सुननेके बाद अग्निदेव तीव्र गतिवाले बकरेपर चढ़कर शीघ्र ( वहाँ ) गये । कुटिलाने उन्हें जाते हुए देखा । तब कुटिलाने उनसे पूछा - अग्निदेव ! आप कहाँ जा रहे हैं ? उन्होंने कहा - कुटिले ! शरवणमें उत्पन्न हुए बालक पुत्रको देखने जा रहा हूँ ॥२७ - ३०॥
उसने कहा कि ' पुत्र मेरा है ' और अग्निने कहा कि ' मेरा है ' । स्वेच्छासे विचरण कर रहे जर्नादनने उन दोनोंको परस्पर विवाद करते हुए देखा । उन्होंने उन दोनोंसे पूछा - तुम दोनों आपसमें किसलिये विवाद कर रहे हो । ( तो ) उन दोनोंने कहा - रुद्रके शुक्रसे उत्पन्न हुए पुत्रके लिये । विष्णुने उन दोनोंसे कहा - तुम लोग त्रिपुरासुरका विनाश करनेवाले शिवके पास जाओ । वे देवेश जो कहें, उसे निस्सन्देह करो । ( पुलस्त्यजी कहते हैं कि ) नारदजी ! वासुदेवके इस प्रकार कहनेपर कुटिला एवं अग्नि शङ्करके पास गये और उन्होंने ( उनसे ) यह गूढ रहस्य पूछा कि पुत्र किसका हैं ? ॥३१ - ३४॥
उनके वचनको सुनकर शङ्करका मन हर्षसे भर गया । उन्होंने हर्षगदगद होकर गिरिजासे कहा - अहो भाग्य ! अहो भाग्य !! तब अम्बिकाने शड्करसे कहा - देव ! हम सब उस शिशुसे ही पूछने चलें । वह जिसका आश्रय स्वीकार करेगा उसीका पुत्र होगा । ठीक है - ऐसा कहकर वृषभध्वज भगवान् शङ्कर पार्वती, कुटिला तथा बुद्धिमान् पावकके साथ चलनेके लिये उठ खड़े हुए । शङ्कर, पार्वती, कुटिला एवं पावक शरवणमें गये । इन लोगोंने कृत्तिक की गोदमें लेटे हुए उस बालकको देखा ॥३५ - ३८॥
उसके बाद छः मुखोंवाला वह बालक उन लोगोंको चिन्तित जान करके उनमें आदर रखकर बच्चा होते हुए भी योगीके समान कुमार, विशाख, शाख, महासेन - ( इन ) चार मूर्तियोंवाला हो गया । कुमार शङ्करके, विशाख गिरिजाके, शाख कुटिलाके और महासेन अग्निके समीप चले गये । फिर तो रुद्र, उमा, कुटिला तथा देवेश्वर अग्नि - ये चारों ही अत्यन्त हर्षित हो गये । उसके बाद उन कृत्तिकाओंने पूछा - क्या षडवदन शङ्करके पुत्र हैं ? मुने ! शङ्करने उन सभीसे प्रेमपूर्वक विधिवत ( आगेका ) वचन कहा ॥३९ - ४२॥
कृत्तिकाओ ! ' कार्तिकेय ' नामसे ये तुम्हारे पुत्र होंगे तथा ये अविनाशी ' कुमार ' नामसे कुटिलाके पुत्र होंगे । ये ही ' स्कन्द ' नामसे विख्यात गौरीके पुत्र होंगे तथा ' गुह ' नामसे मेरे पुत्र होंगे ' महासेन ' नामसे ये अग्निके प्रख्यात पुत्र होंगे तथा ' शारद्वत ' - इस नामसे विख्यात ये शरवणके पुत्र होंगे । इस प्रकार ये महायोगी भूमण्डलमें विख्यात होंगे । छः मुखवाले होनेके कारण ये महाबाहु षण्मुख नामसे प्रसिद्ध होंगे ॥४३ - ४६॥
इस प्रकार कहकर शूलपाणि शङ्करने देवताओंके साथ पितामह ब्रह्माका स्मरण किया । वे सभी सहसा वहाँ आ गये और कामरिपु शङ्कर तथा गिरिनन्दिनी पार्वतीको प्रणामकर एवं अग्निदेव, कुटिला और कृत्तिकाओंको स्नेहपूर्वक देखकर उन देवोंने अतिशय दीप्तिमान् सूर्यके सदृश एवं अपने तेजसे सभीके नेत्रोंको चकाचौंधमें डालनेवाले उस षडानन बालकको देखा । प्रसन्नतासे भरे उन श्रेष्ठ देवोंने कहा - देव ! आपने, देवीने एवं अग्निने देवताओंका कार्य सम्पन्न कर दिया ॥४७ - ५०॥
तो आप उठें । अब हम लोग अविनाशी औजस तीर्थको चलें । कुरुक्षेत्रमें चलकर सरस्वती ( नदी ) - में हम लोग षण्मुखका अभिषेक करें । देवो, गन्धर्वो और किन्नरो ! ये हमारे सेनापति बनें और महिष तथा भयंकर तारकका संहार करें । शङ्करने कहा - बहुत अच्छा । उसके बाद सभी देवता उठे और कुमारके साथ महान् फलदायी कुरुक्षेत्रमें चले गये । वहीं मुनियोंके साथ इन्द्र, रुद्र, प्रजापति ब्रह्मा, जनार्दन आदि समस्त देवताओंने उस कुमारके अभिषेकका उपाय किया ॥५१ - ५४॥
उसके बाद अच्युत ( विष्णु ) आदि देवताओंने ( सरस्वतीके तथा ) सातों समुद्रोंमें मिलकर बहनेवाली नदियोंके महान् फलदायक जलसे एवं सहस्त्रों प्रकारकी उत्तमोत्तम ओषधियोंसे गुहका ( सेनापतिके पदपर ) अभिषेक किया । दिव्य रुप धारण करनेवाले सेनापति कुमारके अभिषिक्त हो जानेपर गन्धर्वराज गाने लगे एवं अप्सराएँ नृत्य करने लगीं । गिरिजाने कुमारको अभिषिक्त देखकर स्नेहसे गोदमें ले लिया और वे बार - बार उनके सिरको सूँघने लगीं । अभिषेकसे आर्द्र हुए कार्तिकेयके मुखको ( आशीर्वाद देनेकी प्रक्रियामें ) सूँघती हुई पार्वती पूर्वकालमें ( आशीर्वाद देती हुई ) इन्द्रके मुखको सूँघनेवाली देवमाता अदिति - जैसी सुशोभित हुईं ॥५५ - ५८॥
उस समय शङ्कर, पावक, कृत्तिकाएँ एवं यशस्विनी कुटिला ( - ये सभी ) अपने पुत्रको अभिषिक्त देखकर अत्यन्त हर्षित हुए । उसके बाद शङ्करने सेनापतिके पदपर अभिषिक्त किये गये गुहको इन्द्रके सदृश शक्तिवाले चार प्रमथों - घण्टाकर्ण, लोहिताक्ष, दारुण नन्दिसेन और चौथे बलवानोंमें श्रेष्ठ विख्यात कुमुदमालीको दिया । नारदजी ! शङ्करद्वारा दिये गये गणोंको देखकर ब्रह्मा आदि सभी देवताओंने ( सेनापति ) स्कन्दके लिये अपने - अपने प्रमथोंको ( भी ) दे दिया ॥५९ - ६२॥
ब्रह्माने अपने गण स्थाणुको दिया और विष्णुने संक्रम, विक्रम और पराक्रम नामके तीन गणोंको दिया । इन्द्रने उत्केश और पङ्कजको, रविने दण्डक और पिङ्गलको, चन्द्रमाने मणि एवं वसुमणिको, अश्विनीकुमारोंने वत्स और नन्दीको दिया । अग्निने ज्योति तथा दूसरे ज्वलज्जिह्वको दिया । धाताने कुन्द, मुकुन्द तथा कुसुम नामके तीन अनुचरोंको दिया । त्वष्टाने चक्र और अनुचक्रको, वेधाने अतिस्थिर और सुस्थिरको एवं पूषाने महाबलशाली पाणित्यज तथा कालकको दिया ॥६३ - ६६॥
हिमालयने प्रमथोंमें श्रेष्ठ स्वर्णमाल और घनाह्वको तथा ऊँचे विन्ध्याचलने अतिश्रृङ्ग नामक पार्षदको दिया । वरुणने सुवर्चा एवं अतिवर्चाको, समुद्रने संग्रह तथा विग्रहको एवं नागोंने जय तथा महाजयको दिया । अम्बिकाने उन्माद, शङ्कुकर्ण और पुष्पदन्तको तथा पवनने घस और अतिघस नामके दो अनुचरोंको दिया । अंशुमानने षडाननको परिघ, चटक, भीम, दहति तथा दहन नामके पाँच प्रमथोंको दिया ॥६७ - ७०॥
यमराजने प्रमाथ, उन्माथ, कालसेन, महामुख, तालपत्र और नाडिजङ्घ नामके छः अनुचरोंको दिया । द्विजोत्तम ! धाताने सुप्रभ और सुकर्मा नामके दो गणेश्वरोंको तथा मित्रने सुव्रत तथा सत्यसन्ध नामके दो अनुचरोंको तथा मित्रने सुव्रत तथा सत्यसन्ध नामके दो अनुचरोंको दिया । यक्षोंने अनन्त, शङ्कुपीठ, निकुम्भ, कुमुद, अम्बुज, एकाक्ष, कुनटी, चक्षु, किरीटी, कलशोदर, सूचीवक्त्र, कोकनद, प्रहास, प्रियक एवं अच्युत - इन पंद्रह गणोंको कार्तिकेयको दे दिया ॥७१ - ७४॥
कालिन्दीने कालकन्दको, नर्मदाने रणोत्कटको, गोदवरीने सिद्धयात्रको एवं तमसाने अद्रिकम्पकको दिया । सीताने सहस्त्रबाहुको, वञ्जुलाने सितोदरको, मन्दाकिनीने नन्दको एवं विपाशाने प्रियङ्करको दिया । ऐरावतीने चतुर्दष्ट्रको, वितस्ताने षोडशाक्षकी, कौशिकीने मार्जारको एवं गौतमीने क्रथ और क्रौञ्चको दिया । बाहुदाने शतशीर्षको, वाहाने गोनन्द और नन्दिकको, भीमरथीने भीमको और सरयूने वेगारिको दिया ॥७५ - ७८॥
काशीने अष्टबाहुको, गण्डकीने सुबाहुको, महानदीने चित्रदेवको तथा चित्राने चित्ररथको दिया । कुहूने कुवलयको, मधूदकाने मधुवर्णको, धूतपापाने जम्बूकको और वेणाने श्वेताननको समर्पित किया । पर्णासने श्रुतवर्णको, रेवाने सागरवेगीको, प्रभावाने अर्थ और सहको एवं काञ्जनाने कनकेक्षणको दिया । विमलाने गृध्रपत्रको, मनोहराने चारुवक्त्रको, धूतपापाने महारावको एवं कर्णाने विद्रुमसन्निभको दिया ॥७९ - ८२॥
सुवेणुने सुप्रासदको और ओघवतीने जिष्णुको प्रदान किया । विशालाने यज्ञबाहुको दिया । इस प्रकार इन सरस्वती आदि नदियोंने अनेक गणोंको दिया । कुटिलाने अपने पुत्र ( उन ) - को कराल, सितकेश, कृष्णकेश, जटाधर, मेघनाद, चतुर्दंष्ट्र, विद्युज्जिह्व, दशानन, सोमाप्यायन एवं उग्र देवयाजी नामके दस गणोंको दिया । कृत्तिकाओंने अपने पुत्रको हंसास्य, कुण्डजठर, बहुग्रीव, हयानन तथा कूर्मग्रीव - इन पाँच अनुचरोंको प्रदान किया ॥८३ - ८६॥
ऋषियोंने स्कन्दको स्थाणुजङ्घ, कुम्भवक्त्र, लोहजङ्घ, महानन और पिण्डाकार - इन पाँच अनुचरोंको दिया । पृथूदक तीर्थने नागजिह्व, चन्द्रभास, पाणिकूर्म, शशोक्षक, चाषवक्त्र तथा जम्बूक नामके अनुचरोंको दिया । गयाशिरने चक्रतीर्थ, सुचक्राक्ष तथा मकराक्षको और कनखलने पञ्चशिख नामके अपने गणोंको दिया । वाजिशिरने बन्धुदत्त, पुष्कर और बाहुशालको तथा मानसने सर्वोजस, माहिषक और पिङ्गलको दिया ॥८७ - ९०॥
औशनसने रुद्रको प्रदान किया तथा अन्योंने मातृकाओंको दिया । सोमतीर्थने वसुदामाको और प्रभासने नन्दिनीको तथा उदपानने इन्द्रतीर्थ, विशोका और घनस्वनाको अर्पित किया । सप्तसारस्वतने गीतप्रिया, माधवी, तीर्थनेमि एवं स्मितानना नामकी चार अद्भुत मातृकाओंको प्रदान किया । नागतीर्थने एकचूडा, कुरुक्षेत्र और पलासदाको दिया । ब्रह्मयोनिने चण्डशिलाको, त्रिविष्टपने भद्रकालीको तथा चरणपावनने चौण्डी, भैण्डी तथा योगभैण्डीको दिया ॥९१ - ९४॥
महीने सोपानीयाको, मानसह्नदने शालिकाको एवं बदरिकाश्रमने शतघण्टा, शतानन्दा, उलूखलमेखला, पद्मावती और माधवीको प्रदान किया । केदारतीर्थने सुषमा, एकचूडा, धमधमादेवी, उत्क्राथनी तथा वेदमित्रा नामक मातृकाओंको दिया । रुद्रमहालयने सुनक्षत्रा, कद्रूला, सुप्रभाता, सुमङ्गला, देवमित्रा और चित्रसेनाको दिया । प्रयागने कोटरा, ऊर्ध्ववेणी, श्रीमती, बहुपुत्रिका, पलिता तथा कमलाक्षी नामकी मातृकाओंको अर्पित किया । सर्वपापविमोचनने सूपला, मधुकुम्भा, ख्याति, दहदहा, परा और खटकटाको समर्पित किया । क्रमने सन्तानिका, विकलिका और चत्वरवासिनीको प्रदान किया ॥९५ - १००॥
श्वेततीर्थने तो जलेश्वरी, कुक्कुटिका, सुदामा, लोहमेखला, वपुष्मती, उल्मुकाक्षी, कोकनामा, महाशनी, रौद्रा, कर्कटिका और तुण्डा - इन अनुचरियोंको दिया । इन भूतों, गणों और मातृकाओंको देखकर विनतापुत्र महात्मा गरुड़ने अपने पुत्र महावेगशाली मयूरको समर्पित किया और अरुणने अपने पुत्र ताम्रचूडकी प्रदान कर दिया । अग्निने शक्ति, पार्वतीने वस्त्र, बृहस्पतिने दण्ड, उस कुटिलाने कमण्डलु, विष्णुने माला, शङ्करने पताका तथा इन्द्रने अपने हदयका हार कार्तिकेयके कण्ठमें अर्पित कर दिया । गणोंसे युक्त, मातृकाओंसे अनुसरित, मयूरपर बैठे एवं श्रेष्ठ शक्तिको हाथमें लिये हुए महाशरीरधारी वे कुमार ( कार्तिकेय ) शङ्करके द्वारा सैन्याधिपतिके पदपर अभिषिक्त होकर ( और उपहार पाकर ) सूर्यके समान प्रकाशित होने लगे ॥१०१ - १०४॥