श्रीवामनपुराण - अध्याय ५०
देवदेव ( महादेव ) - ने कहा - देवताओ ! इस प्रकार पृथूदकतीर्थ पाप - भयको नष्ट करनेवाला और पवित्र है । तुम लोग ' सन्निहित ' तालाबतक ( उस ) ज्ञात ( व्याप्त ) होनेवाले महातीर्थमें जाओ । जिस तिथिमें चन्द्रमा, सूर्य एवं बृहस्पति - ये तीनों ग्रह मृगशिरा नक्षत्रमें स्थित होते हैं, उस पवित्र तिथिको ' अक्षया
तिथि कहते हैं । श्रेष्ठ देवताओ ! जहाँ सरस्वती नदी पूर्व दिशामें बह रही है, वहाँ जाकर भक्ति - श्रद्धासे श्राद्ध करके पितरोंकी आराधना करो । भगवानका निर्देश सुनकर इन्द्रके सहित सभी देवता कुरुक्षेत्रमें विद्यमान पृथूदक नामवाले पवित्र तीर्थमें गये ॥१ - ४॥
वहाँ स्त्रान करके सभी देवताओंने बृहस्पतिसे कहा - भगवन् ! इस मृगशिरा नक्षत्रमें आप प्रविष्ट होकर पापविनाशिनी पवित्र तिथिका निर्माण ( विधान ) करें । आपका यह ( निर्दिष्ट ) समय आ गया है । सूर्य उस हैं । हे बृहस्पति ! देवताओंका कार्य आपके अधीन है, आप उसे पूरा करें । देवताओंके इस प्रकार कहनेपर देवोंके गुरु बृहस्पतीने यह कहा - देवताओ ! यदि मैं वर्ष - स्वामी बनूँ तो ( मृगशिरा नक्षत्रपर ) जाऊँगा । सभी देवोंने कहा - ठीक है । तब उन्होंने ( बृहस्पतिने ) मृगशिरा नक्षत्रमें प्रवेश किया ॥५ - ७॥
आषाढ़ महीनेके मृगशिरा नक्षत्रमें चन्द्रक्षय ( अमावस्या ) तिथिके आ जानेपर इन्द्रने प्रसन्न होकर कुरुक्षेत्रमें भक्तिके साथ पितरोंको तिल और मधुसे मिला हुआ हविष्यान्नका पिण्ड प्रदान किया । तब पितरोंने देवोंको अपनी मेना नामकी कन्या दी । देवताओंने उसे हिमालयको सौंप दिया । देवोंके अनुग्रहसे उस मेनाको पाकर वे हिमवान् प्रसन्न हो गये और इच्छानुकूल विनोद - विहारमें लग गये । हिमालय पितरोंद्वारा दी गयी उस कन्याके साथ दाम्पत्यसुखमें आसक्त हो गये । फिर उस मेनाने भी सुरनारियोंके समान अत्यन्त रुपवती तीन कन्याओंको उत्पन्न किया ॥८ - ११॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पचासवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥५०॥