श्रीवामनपुराण - अध्याय ४६
सनत्कुमारने कहा - द्विजोत्तम ! स्थाणुवटकी उत्तर दिशामें ' शुक्रतीर्थ ' और स्थाणुवटकी पूर्व दिशामें ' सोमतीर्थ ' कहा गया है । स्थाणुवटके दक्षिण ' दक्षतीर्थ ' एवं स्थाणुवटके पश्चिममें ' स्कन्दतीर्थ ' स्थित है । इन परम पावन तीर्थोंके बीचमें ' स्थाणु ' नामका तीर्थ है । उसका दर्शन करनेमात्रसे परमपद ( मोक्ष ) - की प्राप्ति होती है । जो मनुष्य अष्टमी और चतुर्दशीको इनकी प्रदक्षिणा करता है, वह एक - एक पगपर यज्ञ करनेका फल प्राप्त करता है - इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥१ - ४॥
मुनियों, साध्यों, आदित्यों, वसुओं, मरुतों एवं अग्नियोंने इन तीर्थोंका यत्नपूर्वक सेवन किया है । जो भी अन्य कोई प्राणी उस उत्तम स्थाणुतीर्थमें प्रवेश करते हैं वे भी सभी पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त करते हैं । उसकी निकट त्रिशूल धारण करनेवाले देवदेव भगवान् शंकरका लिङ्ग है । उमादेवी वहाँपर लिङ्गरुपमें रहनेवाले शंकरजीके पासमे ही रहती हैं; वे उनकी बगलसे अलग नहीं होती । उस लिङ्गके दर्शन करनेमात्रसे मनुष्य सिद्धिको प्राप्त करता है । वटके उत्तरी भागमें महात्मा तक्षकने सभी कामनाओंको सिद्ध करनेवाले महालिङ्गको प्रतिष्ठित किया है । वटकी पूर्व दिशाकी और विश्वकर्माके द्वारा निर्मित्त किया गया महान् लिङ्ग है । पश्चिमकी ओर रहनेवाले लिङ्गका दर्शन कर मानवको सिद्धि प्राप्त होती है । वहींपर देवी सरस्वती लिङ्गरुपसे स्थित हैं ॥५ - १०॥
मनुष्य उन्हें प्रयत्न ( श्रद्धा - विधि ) - पूर्वक प्रणाम कर बुद्धि एवं तीव्र मेधा प्राप्त करता है । वटकी बगलमें ब्रह्माके द्वारा प्रतिष्ठापित वटेश्वर - लिङ्गका दर्शन करके मनुष्य परम पदको प्राप्त करता है । तत्पश्चात् जिसने स्थाणुवटका दर्शन और प्रदक्षिणा कर ली उसकी वह मानो सातों द्वीपवाली पृथिवीकी की हुई प्रदक्षिणा हो जाती है । स्थाणुकी पश्चिम दिशाकी ओर ' नकुलीश ' नामके गण स्थित हैं । विधिपूर्वक उनकी पूजा करनेवाला मनुष्य सभी प्रकारके पापोंसे छूट जता है । उनकी दक्षिण दिशामें ' रुद्रकरतीर्थ ' है ॥११ - १४॥
जिसने उस ( रुद्रकरतीर्थ ) - में स्त्रान कर लिया मानो उसने सभी तीर्थोंमें स्त्रान कर लिया । उसकी उत्तर दिशाकी ओर महात्मा रावणने गोकर्ण नामका प्रसिद्ध महालिङ्ग स्थापित किया है । आषाढ़मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिमें जो गोकर्णकी अर्चना करता है उसके पुण्यफलको सुनो । यदि किसीने अपनी इच्छा या अनिच्छासे भी पापसंचय कर लिया है तो वह भगवान् शंकरकी पूजा करके पवित्र हो जाता है और वह संचित पापसे छूट जाता है । जो अष्टमी तिथिमें शिवका पूजन करता है उसे कौमार - अवस्था ( जन्मसे १६ वर्षकी अवस्था ) - में ब्रह्मचर्य - पालनसे जो फल प्राप्त होता है वह सम्पूर्ण पुण्य - फल उसे प्राप्त होता है ॥१५ - १८॥
यदि मनुष्य उत्तम सौन्दर्य, सौभाग्य या धनसम्पत्ति चाहता है तो ( उसे कुमारेश्वरकी आराधना करनी चाहिये; क्योंकि ) कुमारेश्वरके माहात्म्यसे उसे निस्सन्देह उन सबकी सिद्धि प्राप्त होती है । उन ( कुमारेश्वर ) - के उत्तर भागमें विभीषणने शिव - लिङ्गक्को स्थापित कर उसकी पूजा की, जिससे वे अजर और अमर हो गये । आषाढ़ महीनेके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको उपवास रहकर उसकी पूजा करनेवाला मनुष्य देवत्व प्राप्त कर लेता है । द्विजोत्तम ! खरने वहाँपर लिङ्गकी पूजा की थी । उस लिङ्गकी विधिपूर्वक पूजा करनेवालेकी सभी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं ॥१९ - २२॥
दूषण एवं त्रिशिराने भी वहाँ महेश्वरकी पूजा की और वे प्रसन्न हो गये । उन दोनोंने अभिवाञ्छित मनोरथ प्राप्त कर लिये । चैत्र महीनेके शुक्लपक्षमें जो मनुष्य वहाँ पूजन करता है, उसकी समस्त इच्छाएँ वे दोनों देव पूरी कर देते हैं । ' हस्तिपादेश्वर ' शिव स्थाणुवटकी पूर्व दिशामें हैं । उनका दर्शन करके मनुष्य अन्य जन्मोंमें बने पापोंसे छूट जाता है । उसके दक्षिणमें हारीत नामके ऋषिद्वारा स्थापित किया हुआ लिङ्ग है, जिसको विधिपूर्वक प्रणाम करनेसे ( ही ) मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥२३ - २६॥
उसके निकट दक्षिण भागमें महात्मा वापीतके द्वारा संस्थापित सभी पापोंका हरण करनेवाला कल्याणकर्ता लिङ्ग है जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है । कंकालके रुपमें रहनेवाले महात्मा भगवान् रुद्रने भी समस्त पापोंका नाश करनेवाला महालिङ्ग प्रतिष्ठित किया है । महात्मा रुद्रद्वारा प्रतिष्ठापित वह लिङ्ग भुक्ति एवं मुक्तिका देनेवाला तथा सभी पापोंको नष्ट करनेवाला है । उस लिङ्गका दर्शन करनेसे ही अग्निष्टोम - यज्ञके फलकी प्राप्ति हो जाती है । उसकी पश्चिम दिशामें सिद्धोंद्वारा प्रतिष्ठित सिद्धेश्वर नामसे विख्यात लिङ्ग है । ह सर्वसिद्धिप्रदाता है ॥२७ - ३०॥
उसकी दक्षिण दिशामें महात्मा मृकण्डने ( शिव ) लिङ्गकी स्थापना की है । उस लिङ्गके दर्शन करनेसे सिद्धि प्राप्त होती है । उसके पूर्व भागमें महात्मा आदित्यने सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेवाले श्रेष्ठ लिङ्गको प्रतिष्ठापित किया है । अप्सराओंमें श्रेष्ठ रम्भा और चित्राङ्गद नामके गन्धर्व - इन दोनोंने परस्परमें प्रेमपूर्वक स्थाणु भगवानके दर्शन किये; फिर उनका पूजन किया और तब वरदानी देवकी स्थापनाकर आराधना की । ( उनसे स्थापित लिङ्गोंका नाम हुआ चित्राङ्गद और रम्भेश्वर ) ॥३१ - ३४॥
द्विज ! चित्राङ्गदेश्वर एवं रम्भेश्वरका दर्शन करके मनुष्य सुन्दर और दर्शनीय ( रुपवाला ) हो जाता है एवं सत्कुलमें जन्म ग्रहण करता है । उसके दक्षिण भागमें इन्द्रने प्राचीन कालमें लिङ्गकी स्थापना की थी । इन्द्रद्वरा प्रतिष्ठापित लिङ्गके प्रसादसे मनुष्य मनोवाञ्छित फल प्राप्त कर लेता है । उसी प्रकार पराशर मुनिने शंकरकी आराधना की और भगवान् शंकरके दर्शनसे उत्कृष्ट कवित्वको प्राप्त किया । वेदव्यास मुनिने परमेश्वर ( शंकर ) - की आराधना की और उनकी कृपासे सर्वज्ञता तथा ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया ॥३५ - ३८॥
स्थाणुके पश्चिम भागमें जगतके प्राण - स्वरुप ( जगत्प्राण ) वायुने महालिङ्गको प्रतिष्ठित किया है, जो दर्शनमात्रसे ही पापका विनाश कर देता है । उसके भी दक्षिण भागमें हिमवतेश्वर लिङ्ग प्रतिष्ठित है । पुण्यात्माओंने उसे प्रतिष्ठित किया है । उसका दर्शन सिद्धि देनेवाला है । उसके पश्चिम भागमें कार्तवीर्यने ( एक ) लिङ्गकी स्थापना की है । ( यह लिङ्ग ) पापका तत्काल हरण करनेवाला है । ( इसके ) दर्शन करनेसे पुण्यकी प्राप्ति होती है । उसके भी उत्तरकी ओर बिलकुल निकट स्थानमें ( एक ) लिङ्गकी स्थापना हुई हैं; हनुमानने उस लिङ्गकी आराधना कर शंकरकी कृपासे सिद्धि प्राप्त की ॥३९ - ४२॥
उसके भी पूर्वी भागमें प्रभावशाली विष्णुने वरदाता महादेवकी आराधना कर सुदर्शनचक्र प्राप्त किया था । उसके भी पूर्वी भागमें मित्र एवं वरुणने सभी अभिलाषाओंकी पूर्ति करनेवाले दो लिङ्गोंकी स्थापना की है । ये दोनों लिङ्ग सभी प्रकारके पापोंका विनाश करनेवाले हैं । ये दोनों लिङ्ग सभी प्रकारके पापोंका विनाश करनेवाले हैं । मुनियों, साध्यों, आदित्यों एवं वसुओंद्वारा इन लिङ्गोंकी उत्साहपूर्वक सेवा की गयी है । तत्त्वदर्शी ऋषियोंने स्वर्णलिङ्गके पीछेकी ओर जिन लिङ्गोंको प्रतिष्ठित किया है, उनकी संख्या नहीं गिनी जा सकती । उसी प्रकार स्वर्णलिङ्गके उत्तर ओघवती नदीतक पश्चिमकी ओर महादेवके एक हजार लिङ्ग स्थित हैं ॥४३ - ४७॥
उस ( नदी ) - के पूर्वी भागमें महात्मा बालखिल्योंने संनिहित सरोवरतक करोड़ों रुद्रोंकी स्थापना की है । गन्धर्वों, यक्षों एवं किन्नरोंने दक्षिण दिशाकी ओर भगवान् शंकरके असंख्य लिङ्गोंकी स्थपना की है । वायुका कहना है कि साढ़े तीन करोड़ लिङ्गोकी स्थापना हुई है । स्थाणुतीर्थमें अनन्त सहस्त्र रुद्र - लिङ्ग विद्यमान हैं । मनुष्यको चाहिये कि श्रद्धाके साथ स्थाणुलिङ्गका आश्रय ले । इससे स्थाणु - लिङ्गकी दयासे मनोवाञ्छित फल मिलता है ॥४८ - ५१॥
जो मनुष्य निष्काम या सकामभावसे स्थाणुमन्दिरमें प्रवेश करता है, वह घोर पापोंसे छुटकारा पाकर परम पदको प्राप्त करता है । जब चैत महीनेकी त्रयोदशी तिथिमें दिव्य नक्षत्रोंका योग हुआ और उसमें शुक्र, सूर्य, चन्द्रका ( शुभ ) संयोग हुआ तब अतीव पवित्र शुभ दिनमें जगतका धारण और पोषण करनेवाले ब्रह्माने स्थाणु - लिङ्गको प्रतिष्ठापित किया । ऋषियों एवं देवताओंके द्वारा अनन्त वर्षोंतक अर्थात् सदैव इसकी अर्चना होती रहेगी । जो मनुष्य उस समय निराहार रहते हुए व्रत करके श्रद्धासे शिवकी पूजा करते हैं, वे परम पदको प्राप्त करते हैं । जिन मनुष्योंने स्थाणु - लिङ्गकी शिवसे आरुढ़ ( निविष्ट ) मानकर उसकी प्रदक्षिणा की, उन्होंने मानो सात द्वीपवाली पृथिवीकी प्रदक्षिणा कर ली ॥५२ - ५६॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें छियालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४६॥