श्रीवामनपुराण - अध्याय १
भगवान् श्रीनारायण, मनुष्योंमें श्रेष्ठ नर, भगवती सरस्वतीदेवी और ( पुराणोंके कर्ता ) महर्षि व्यासजीको नमस्कार करके जय ( पुराणों तथा महाभारत आदि ग्रन्थों ) - का उच्चारण ( पठन ) करना चाहिये ।
जिन्होंने बलिसे ( भूमि, स्वर्ग और पाताल - इन ) तीनों लोकोंके राज्यको छीनकर इन्द्रको दे दिया, उन मायामय वामनरुपधारी और लक्ष्मीको हदयमें धारण करनेवाले विष्णुको नमस्कार है ।
( एक बारकी बात है कि - ) वाग्मियोंमें श्रेष्ठ विद्वद्वर पुलस्त्य ऋषि अपने आश्रममें बैठे हुए थे; ( वहीं ) नारदजीने उनसे वामनपुराणकी कथा - ( इस प्रकार ) पूछी । उन्होंने कहा - ब्रह्मन् ! महाप्रभावशाली भगवान् विष्णुने कैसे वामनका अवतार ग्रहण किया था, इसे आप मुझ जिज्ञासुको बतलायें । एक तो मेरी यह शङ्का है कि दैत्यवर्य प्रह्लादने विष्णुभक्त होकर भी देवताओंके साथ युद्ध कैसे किया और ब्राह्मणश्रेष्ठ ! दूसरी जिज्ञासा यह है कि दक्षप्रजापतिकी पुत्री भगवती सती, जो भगवान् शंकरकी प्रिय पत्नी थीं, उन श्रेष्ठ मुखवाली ( सती ) - ने अपना शरीर त्यागकर पर्वतराज हिमालयके घरमें किसलिये जन्म लिया ? और पुनः वे कल्याणी देवदेव ( महादेव ) - की पत्नी कैसे बनीं ? मैं मानता हूँ कि आपको सब कुछका ज्ञान है, अतः आप मेरी इस शंकाको दूर कर दें । साथ ही सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ हे द्विज ! तीर्थों तथा दानोंकी महिमा और विविध व्रतोंकी अनुष्ठान - विधि भी मुझे बताइये ॥१ - ८॥
नारदजीके इस प्रकार कहनेपर मुनियोंमें मुख्य तथा वक्ताओंमें श्रेष्ठ तपोधन पुलस्त्यजी नारदजीसे कहने लगे ॥९॥
पुलस्त्यजी बोले - नारद ! आपसे मैं सम्पूर्ण वामनपुराणकी कथा आदिसे ( अन्ततक ) वर्णन करुँगा । मुनिश्रेष्ठ ! आप मनको स्थिर कर ध्यानसे सुनें ! प्राचीन समयमें देवी हैमवती ( सती ) - ने ग्रीष्म - ऋतुका आगमन देखकर मन्दर पर्वतपर बैठे हुए भगवान् शंकरसे कहा - देवेश ! ग्रीष्म - ऋतु तो आ गयी है, परंतु आपका कोई घर नहीं है, जहाँ हम दोनों ग्रीष्मकालमें निवास करते हुए वायु और तापजनित कठिन समयको बिता सकेंगे । सतीके ऐसा कहनेपर भगवान् शंकर बोले - हे सुन्दर दाँतोंवाली सति ! मेरा कभी कोई घर नहीं रहा । मैं तो सदा वनोंमें ही घूमता रहता हूँ ॥१० - १३॥
नारदजी ! भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर सतीदेवीने उनके साथ वृक्षोंकी छायामें ( जैसे - तैसे रहकर ) निदाघ ( गर्मी ) - का समय बिताया । फिर ग्रीष्मके अन्तमें अद्भुत वर्षा - ऋतु आ गयी, जो अत्याधिक रागको बढ़ानेवाली होती है और जिसमें प्रायः सबका आवागमन अवरुद्ध हो जाता है । ( उस समय ) मेघोंसे आवृत हो जानेसे दिशाएँ अन्धकारमय हो जाती हैं । उस वर्षाऋतुको आयी देखकर दक्ष - पुत्री सतीने प्रेमसे महादेवजीसे यह वचन कहा - ॥१४ - १६॥
महेश्वर ! हदयको विदीर्ण करनेवाली वायु वेगसे चल रही है । ये मेघ भी गर्जन कर रहे हैं, नीले मेघोंमें बिजलियाँ कौंध रही हैं और मयूरगण केकाध्वनि कर रहे हैं । आकाशसे गिरती हुए जलधाराएँ नीचे आ रही हैं । बगुले तथा बगुलोंकी पंक्तियाँ जलाशयोंमें तैर रही हैं । प्रबल वायुके झोंके खाकर कदम्ब, सर्ज, अर्जुन तथा केतकीके वृक्ष पुष्पोंको गिरा रहे हैं - वृक्षोंसे फूल झड़ रहे हैं । मेघका गम्भीर गर्जन सुनकर हंस तुरंत जलाशयोंको छोड़कर चले जा रहे हैं, जिस प्रकार योगिजन अपने सब प्रकारसे समृद्ध घरको भी छोड़ देते हैं । शिवजी ! वनमें मृगोंके ये यूथ आनन्दित होकर इधर - उधर दौड़ लगाकर, खेल - कूदकर आनन्दित हो रहे हैं और देव ! देखिये, नीले बादलोंमें विद्युत् भलीभाँति चमक रही है । लगता है, जलकी वृद्धिको देखकर वीरगण हरे - भरे सुपुष्ट नये वृक्षोंपर विचरण कर रहे हैं । नदियाँ सहसा उद्दाम ( बड़े ) वेगसे बहने लगीं हैं । चन्द्रशेखर ! ऐसे उत्तेजक समयमें यदि असुवृत्त व्यक्तिके फंदेमें आकर स्त्री दुःशील हो जाती है तो इसमें क्या आश्चर्य ॥१७ - २१॥
आकाश नीले बादलोंसे घिर गया है । इसी प्रकार पुष्पोंके द्वारा सर्ज, मुकुलों ( कलियों ) - के द्वारा नीप ( कदम्ब ), फलोंके द्वारा बिल्व - वृक्ष एवं जलके द्वारा नदियाँ और कमल - पुष्पों एवं कमल - पत्रोंसे बड़े - बड़े सरोवर भी ढक गये हैं । हे शंकरजी ! ऐसी दुःसह, अद्भुत तथा भयंकर दशामें आपसे प्रार्थना करती हूँ कि इस महान् तथा उत्तम पर्वतपर गृह - निर्माण कीजिये; हे शंभो ! जिससे मैं सर्वथा निश्चिन्त हो जाऊँ । कानोंको प्रिय लगनेवाले सतीके इन वचनोंको सुनकर तीन नयनवाले भगवान् शंकरजी बोले - प्रिये ! घर बनानेके लिये ( और उसकी साज - सज्जाके लिये ) मेरे पास धन नहीं है । मैं व्याघ्रकी चर्ममात्रसे अपना शरीर ढकता हूँ । शुभे ! ( सूत्रोंके अभावमें ) सर्पराज ही मेरा उपवीत ( जनेऊ ) बना है । पद्म और पिंगल नामके दो सर्प मेरे दोनों कानोंमें ( कुण्डलका काम करते ) हैं । कंबल और धनंजय नामके ये दो सर्प मेरी दोनों बाँहोंके बाजूबंद हैं । मेरे दाहिने और बाँयें हाथोंमें भी क्रमशः अश्वतर तथा तक्षक नाग कण्डक बने हुए हैं । इसी प्रकार मेरी कमरमें नीलाञ्जनके वर्णवाला नील नामका सर्प अवस्थित होकर सुशोभित हो रहा है ॥२२ - २६॥
पुलस्त्यजी बोले - महादेवजीसे इस प्रकार कठोर तथा ओजस्वी एवं सत्य होनेपर भी असत्य प्रतीत हो रहे वचनको सुनकर सतीजी बहुत डर गयीं और स्वामीके निवासकष्टको देखकर गरम साँस छोड़ती हुई और पृथ्वीकी ओर देखती हुई ( कुछ ) क्रोध और लज्जासे इस प्रकार कहने लगीं - ॥२७॥
सतीदेवी बोलीं - देवेश ! वृक्षके मूलमें दुःखपूर्वक रहकर भी मेरा वर्षाकाल कैसे व्यतीत होगा ! इसीलिये तो मैं आपसे ( गृहके निर्माणकी बात ) कहती हूँ ॥२८॥
शंकरजी बोले - देवि ! मेघ - मण्डलके ऊपर अपने शरीरको स्थित कर तुम वर्षाकाल भलीभाँति व्यतीत कर सकोगी । इससे वर्षाकी जलधाराएँ तुम्हारे शरीरपर नहीं गिर पायेंगी ॥२९॥
पुलस्त्यजी बोले - उसके बाद महादेवजी दक्षकन्या सतीके साथ आकाशमें उन्नत मेघमण्डलके ऊपर चढ़कर बैठ गये । तभीसे स्वर्गमें उन महादेवजीका नाम ' जीमूतकेतु ' या ' जीमूतवाहन ' विख्यात हो गया ॥३०॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पहला अध्याय समाप्त हुआ ॥१॥