श्लोक १९,२०,२१
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥[19]
कंगन मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ाते, न ही चन्द्रमा की तरह चमकते हार, न ही सुगन्धित जल से स्नान ; देह पर सुगन्धित उबटन लगाने से भी मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ती और न ही फूलों से सजे बाल ही मनुष्य की शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत और सुसज्जित वाणी ही मनुष्य की शोभा बढाती है।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकारी यशःसुखकारी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता
विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
वास्तव में केवल ज्ञान ही मनुष्य को सुशोभित करता है, यह ऐसा अद्भुत खजाना है जो हमेशा सुरक्षित और छिपा रहता है, इसी के माध्यम से हमें गौरव और सुख मिलता है। ज्ञान ही सभी शिक्षकों को शिक्षक है। विदेशों में विद्या हमारे बंधुओं और मित्रो की भूमिका निभाती है। ज्ञान ही सर्वोच्च सत्ता है। राजा - महाराजा भी ज्ञान को ही पूजते व् सम्मानित करते हैं न की धन को। विद्या और ज्ञान के बिना मनुष्य केवल एक पशु के समान है।
क्षान्तिश्चेत्कवचेन किं, किमिरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां
ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधिः किं फलम् ।
किं सर्पैर्यदि दुर्जनः, किमु धनैर्वुद्यानवद्या यदि
व्रीडा चेत्किमु भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम् ॥
यदि व्यक्ति धैर्यवान या सहनशील है तो उसे अन्य किसी कवच की क्या आवश्यकता; यदि व्यक्ति को क्रोध है तो उसे किसी अन्य शत्रु से डरने की क्या आवश्यकता; यदि वह रिश्तेदारों से घिरा हैं तो उसे अन्य किसी अग्नि की क्या आवश्यकता; यदि उसके सच्चे मित्र हैं तो उसे किसी भी बीमारी के लिए औषधियों की क्या जरुरत? यदि उसके आप-पास बुरे लोग निवास करते हैं तो उसे सांपों से डरने की क्या आवश्यकता? यदि वह विद्वान है तो उसे धन-दौलत की क्या आवश्यकता? यदि उसमे जरा भी लज्जा है तो उसे अन्य किसी आभूषणों की क्या आवश्यकता तथा अगर उसके पास कुछ अच्छी कवितायेँ या साहित्य हैं तो उसे किसी राजसी ठाठ-बाठ या राजनीति की क्या आवश्यकता हो सकती है।