श्लोक ७,८,९
स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादानमज्ञतायाः ।
विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ॥[7 ]
अपनी मूर्खता छिपाने के लिये भगवान ने मूर्खों को मौन धारण करने का एक अद्भुत सुरक्षा कवच दिया है, जो उनके अधीन भी है। विद्वानो से भरी सभा मे "मौन रहना" मूर्खो के लिये आभूषण से कम नहीं है।
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽसमीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
यदा किंचित्किंचिद्बुधजनसकाशादवगत
तदा मूर्खोस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥[ 8 ]
जब मैं बिल्कुल ही अज्ञानी था तब मैं मदमस्त हाथी की तरह अभिमान मे अंधे होकर अपने आप को सर्वज्ञानी समझता था। लेकिन विद्वानो की संगति से जैसे-जैसे मुझे ज्ञान प्रप्त होने लगा मुझे समझ मे आ गया की मैं अज्ञानी हूँ और मेरा अहंकार जो मुझपर बुखार की तरह चढ़ा हुआ था उतर गया।
कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं
निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् ।
सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ॥[9]
जिस तरह एक कुत्ता स्वर्ग के राजा इंद्र की उपस्थिति में भी उन्हें अनदेखा कर मनुष्य की हड्डियों को जो बेस्वाद, कीड़ों मकोड़ों से भरे, दुर्गन्ध युक्त और लार में सने होते हैं, बड़े चाव से चबाता रहता है, उसी तरह लोभी व्यक्ति भी दूसरों से तुक्ष्य लाभ भी पाने में बिलकुल भी नहीं कतराते हैं।