श्लोक ४,५,६
प्रहस्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्रदंष्ट्रान्तरात्
समुद्रमपि सन्तरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम् ।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारये
न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
अगर हम चाहें तो मगरमच्छ के दांतों में फसे मोती को भी निकाल सकते हैं, साहस के बल पर हम बड़ी-बड़ी लहरों वाले समुद्र को भी पार कर सकते हैं, यहाँ तक कि हम गुस्सैल सर्प को भी फूलों की माला तरह अपने गले में पहन सकते हैं; लेकिन एक मुर्ख को सही बात समझाना असम्भव है।
लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयत्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः ।
कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
अथक प्रयास करने पर रेत से भी तेल निकला जा सकता है तथा मृग मरीचिका से भी जल ग्रहण किया जा सकता हैं। यहाँ तक की हम सींघ वाले खरगोशों को भी दुनिया में विचरण करते देख सकते है; लेकिन एक पूर्वाग्रही मुर्ख को सही बात का बोध कराना असंभव है।
व्यालं बालमृणालतन्तुभिरसौ रोद्धुं समुज्जृम्भते
छेत्तुं वज्रमणीञ्छिरीषकुसुमप्रान्तेन सन्नह्यते ।
माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते
नेतुं वाञ्छति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः ॥[6]
अपनी शिक्षाप्रद मीठी बातों से दुस्ट पुरुषों को सन्मार्ग पर लाने का प्रयास करना उसी प्रकार है जैसे एक मतवाले हाथी को कमल कि पंखुड़ियों से बस मे करना, या फ़िर हीरे को शिरीशा फूल से काटना अथवा खारे पानी से भरे समुद्र को एक बूंद शहद से मीठा कर देना।