श्लोक १०,११,१२
शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं
महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् ।
अधोऽधो गङ्गेयं पदमुपगता स्तोकमथवा
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ॥[10]
गंगा स्वर्ग से निकल कर भगवान शिव के जटाओं में बंध जाती है, और वहां से मुक्त होकर हिमालय से होकर धरती पर आती है; और फिर गंगा मैदानी इलाकों में आती है, और मैदानों में आकर और नीचे जाते हुए अंततः समुद्र में मिल जाती है। ठीक इसी प्रकार मुर्ख भी अपने जीवन के साथ करते हैं। वे हमेशा सबसे सरल मार्ग अपनाते हुए सबसे निम्न स्तर पर पहुँच जाते हैं।
शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदौ दण्डेन गोगर्धभौ ।
व्याधिर्भेषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ॥[11]
अग्नि को जल से बुझाया जा सकता है, तीव्र धुप में छाते द्वारा बचा जा सकता है, जंगली हाथी को भी एक लम्बे डंडे(जिसमे हुक लगा होता है ) की मदद से नियंत्रित किया जा सकता है, गायों और गधों से झुंडों को भी छड़ी से नियंत्रित किया सकता है। अगर कोई असाध्य बीमारी हो तो उसे भी औषधियों से ठीक किया जा सकता है। यहाँ तक की जहर दिए गए व्यक्ति को भी मन्त्रों और औषधियों की मदद से ठीक किया जा सकता है। इस दुनिया में हर बीमारी का इलाज है लेकिन किसी भी शाश्त्र या विज्ञान में मूर्खता का कोई इलाज या उपाय नहीं है।
साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥
साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात नाख़ून और सींघ रहित पशु के समान है। और ये पशुओं की खुद्किस्मती है की वो उनकी तरह घास नहीं खाता।